हम अपनी परम्परा में इतिहास की ओर देखते हैं, पौराणिक परम्परा की ओर देखते हैं अथवा हमारे प्राचीन इतिहास की परम्परा को देखते हैं तो ध्यान में आता है कि भिन्न-भिन्न प्रकारों से हमारी सम्पूर्ण संस्कृति यज्ञमय ही है। भगवान् श्रीराम यज्ञ से ही आविर्भूत हुए। यह कथा इस प्रकार है- महाराज दशरथ महर्षि वसिष्ठजी के पास गए और उनसे अपनी इच्छा बतलाई। महर्षि वसिष्ठ ने कहा- “”आपको पुत्र तो होने ही हैं, लेकिन इसमें जो बाधा है उसे दूर करने के लिए दो यज्ञ करने होंगे। ये दोनों यज्ञ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। एक अश्र्वमेध यज्ञ करेंगे और उसके पश्र्चात् पुत्रकामेष्टि यज्ञ। राजन् आपको एक वर्ष के लिये यज्ञ में दीक्षित होकर रहना पड़ेगा।”
महाराज दशरथ ने सांगोपांग यज्ञ का अनुष्ठान किया। इस यज्ञ का अत्यन्त विस्तार के साथ शास्त्रीय वर्णन वाल्मीकि रामायण में मिलता है कि कैसे उस यज्ञ को सम्पन्न किया गया? किस प्रकार की दीक्षायें महाराज को लेनी पड़ीं और किस प्रकार वे एक वर्ष के लिये व्रतस्थ रहे? पहले अश्र्वमेध यज्ञ हुआ और उसके पश्र्चात् पुत्रकामेष्टि यज्ञ हुआ। समस्त पातकों के नाश के लिए, समस्त दोषों को दूर करने के लिए अश्र्वमेध यज्ञ किया गया। उसके पश्र्चात् अपनी कामना को पूर्ण करने के लिये – पुत्रकामेष्टि यज्ञ। तब जाकर भगवान् का प्रादुर्भाव हुआ।
जिस प्रकार प्रभु के अवतार के लिये यज्ञ किया गया, उसी प्रकार भगवती जानकी का प्रादुर्भाव जिस स्थान पर हुआ उस भूमि को भी जोता गया था। महाराज जनक अपनी धर्मपत्नी सुनयनाजी के साथ यज्ञभूमि का शोधन करने के लिये स्वर्ण के हल से उस भूमि को जोत रहे थे और वहीं पर भगवती सीताजी की उत्पत्ति हुई। केवल भगवती सीताजी की उत्पत्ति की ही बात ऐसी नहीं है। आश्र्चर्य की बात है भगवती राधाजी की उत्पत्ति जो हुई वह भी इसी प्रकार हुई। महाराज वृषभानु यज्ञ के लिये भूमि को जोत रहे थे, उस समय उनको भगवती राधाजी की प्राप्ती हुई। इतना ही नहीं हमारी इस भव्य परम्परा का अत्यन्त श्रेष्ठ आदर्श भगवती द्रौपदी का प्रादुर्भाव हुआ। भगवती द्रौपदी का सम्पूर्ण जीवन पाण्डवों के जीवन से भी कुछ अलौकिक दिखता है। भगवान श्रीकृष्ण भी उन्हें अपनी बहन मानें इतना उनमें कुछ विशेष है। भगवती द्रौपदी का जीवन केवल यज्ञ है। वह यज्ञसंभूता हैं।
भगवान ने गोपों के परंपरागत इंद्रयज्ञ को बन्द नहीं किया, लेकिन उस यज्ञ को एक व्यापक स्वरूप दे दिया। प्रभु का वहां का वाक्य है – “”हूयन्तां ग्नयः सम्यक् ब्राह्मणैबर्रह्मवादिभिः” । बाबा हम लोग यज्ञ करेंगे। आपके अभी तक चलते आये यज्ञों से वह कुछ भिन्न होगा। सातवें वर्ष में प्रभु ने यज्ञ का प्रतिपादन किया और यज्ञ स्वयं कराया। तब से भगवान निरंतर यज्ञों का संचालन करते रहे हैं। भगवान् स्वयं राजसूय यज्ञ में अपनी अत्यन्त अनोखी भूमिका को प्रस्तुत करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की दिनचर्या में श्रीमद् भागवत के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण नित्य हवन करते थे और प्रभु का यह कार्य प्रतिदिन सूर्योदय से पहले सम्पन्न हो जाता था। प्रभु स्वयं भगवत् स्वरूप हैं, साक्षात् परमात्मा हैं। लेकिन रोज स्वयं परमात्मा श्रीकृष्ण भी हवन करते हैं।
You must be logged in to post a comment Login