यज्ञ का सहयोग श्रीवृद्घि के लिए कैसे किया जाता है? सम्पूर्ण जीवन के उत्थान के लिए कैसे किया जाता है? उसकी बड़ी सुन्दर रूप-रेखा बलि के जीवन में प्राप्त होती है। बलि ने अपने जीवन में सब कुछ खो दिया था। बलि के पास कुछ भी नहीं बचा था। सम्पत्ति गई, राज्य गया, प्राण भी गये – प्राण तो खैर शुााचार्य महाराज संजीवनी विद्या के माध्यम से वापिस ले आये, किन्तु उसके पश्र्चात् बलि जो बिल्कुल आजकल की भाषा में कहें तो शरणार्थी प्रतीत होता था। उस बलि को पुनश्र्च अत्यन्त श्रेष्ठ, सम्पन्न और इन्द्र तक को भी जीत सकने वाला बनाने में कौन-सी प्रिाया अपनाई गई? स्वयं भगवान् शुकदेव जी महाराज कहते हैं –
तं ब्राह्मणा भृगवः प्रीयमाणा।
अयाजवन्विश्र्वजिता त्रिणाकम्।।
भृगुवंशीय ब्राह्मणों ने जिनमें शुााचार्य प्रधान हैं, बलि के द्वारा पहले छोटे-छोटे यज्ञ आरंभ करवाये और उसके पश्र्चात् शक्ति सम्पन्न होते-होते बलि एक ऐसी स्थिति में आ गए कि एक विश्र्वजित् नामक यज्ञ का आयोजन किया। जिस यज्ञ में स्वयं अग्निदेव को प्रकट होकर बलि को वह सामग्री प्रदान करनी पड़ी, जिस सामग्री के बल पर बलि ने पुनश्र्च एक बार इन्द्र को और स्वर्ग को जीत लिया। भगवान् को स्वयं बलि के सामने आकर याचना करनी पड़ी। इससे बड़ा गौरव और किसका हो सकता है? भगवान स्वयं आकर बलि के सामने एक याचक बने इतनी महत्ता बलि ने जो पाई वह यज्ञों के माध्यम से पाई। बलि निरंतर यज्ञ करते रहे। बलि के इस उत्थान की पूरी सुन्दर रूप – रेखा यज्ञों के माध्यम से मिलती है।
महाराज पृथु ने पूरी भूमि का विकास किया। भूमि के ऊपर कुछ नहीं बचा था। भूमि के ऊपर बोये जाने वाले बीज भी नष्ट हो गए थे। ऐसी स्थिति में पृथु ने स्वयं भूमि का विकास किया और रामराज्य जैसा सुन्दर राज्य निर्माण किया। इसमें प्रमुख योगदान यज्ञों का रहा। भूमि ने स्वयं पृथु से कहा – महाराज आप यज्ञ कीजिये। वेन ने यज्ञों को बन्द कर दिया और इसी कारण हम सब की दुर्दशा हुई है। आप यज्ञों का आरंभ कीजिए। पृथु ने यज्ञों का आरंभ किया। पृथु ने यज्ञों का सुन्दर संयोजन और भूमि का दोहन करते हुए तथा यज्ञों का सम्पादन करते हुए ऐसे राज्य का निर्माण कर दिया कि जितनी प्रजा पृथु के राज्य में सुखी थी, उतनी राम राज्य छोड़कर अन्य किसी भी राज्य में सुखी नहीं थी। यह सब जो पृथु ने किया वह केवल यज्ञ और भूमि का दोहन, इन दो बातों के बल पर किया।
यज्ञ की महत्ता
ऐसा वर्णन जब हम लोग पाते हैं तो यज्ञों की विशेषताओं की ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए। क्या होता है यज्ञों में, यह भी हम लोगों को देखना चाहिए। हमारे यहां यज्ञ साक्षात् भगवान् के प्रतीक के रूप में ही गृहीत होता है। यज्ञो वै विष्णुः। यज्ञ को साक्षात् विष्णु भगवान का ही रूप कहा गया है। साक्षात भगवान नारायण का स्वरूप कहा गया है। इसलिए जिस-जिस ने भगवान् का विरोध करना चाहा, उस-उस ने यज्ञ का विरोध किया। पृथु के पूर्व वेन ने यही बात कही। “”न यष्टव्यं न दातव्यं द्विजा क्वचित्।” धर्म का उच्छेद करना है, भगवान की भक्ति को समाप्त करना है तो पहले यज्ञों को नष्ट करो। यज्ञों का विरोध करने वाला पूरी संस्कृति का विरोध करने वाला माना गया है। जब कंस को इस बात का पता चला कि देवकी का अष्टम गर्भ कहीं पल रहा है तो कंस ने स्वयं सबसे पहले यही बात कही “मूलं हि विष्णुः देवानाम्’। उसने अपने साथियों से कहा कि सभी देवताओं का मूल विष्णु है और उसकी आराधना यज्ञ से होती है। यज्ञ के कारण उसका इस पूरे समाज में प्रचार होता है और समाज में उसके लिए एक प्रतिष्ठा का निर्माण होता है तो पहले हम यज्ञों को समाप्त करें। इस धर्म को नष्ट करने के लिए यज्ञ को समाप्त करना चाहिए। “तपस्विनो यज्ञशीलान् गाश्र्च हन्मो हविर्दुघाः’। कंस ने अपने साथियों को आज्ञा दी कि तपस्वियों को मारिये। यज्ञ करने वालों को समाप्त कीजिए। यज्ञ की परिपुष्टि धर्म की अभिवृद्घि है और यज्ञ का विरोध धर्म का विरोध है। इस प्रकार का पूरा चित्र हमें अपनी परम्परा में दिखता है।
एक विचित्र बात और है कि यज्ञ न केवल अत्यन्त श्रेष्ठ लोग करते थे या भगवद् भक्त लोग ही करते थे, ऐसी बात नहीं। असुर भी यज्ञ करते थे। असुर भी इन यज्ञों के माध्यम से शक्ति सम्पन्न होते थे। रामायण में एक प्रसंग आता है। विभीषण ने भगवान् श्रीराम से कहा कि इन्द्रजीत चला तो गया, लेकिन अभी जाकर इन्द्रजीत निकुम्भिला नगरी में एक यज्ञ करेगा। यदि उसका यह यज्ञ सम्पन्न हो गया तो इसे जीतना हम लोगों के लिए बड़ा कठिन हो जायेगा। इसीलिए हम लोगों को किसी प्रकार वहां पहुंचकर, ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि उसका यज्ञ सम्पन्न न हो पाए। यह सोचकर निकुम्भिला पर आामण किया गया और लक्ष्मण और हनुमानजी ने जाकर उस यज्ञ के स्थान को ध्वस्त कर दिया। तो इतना महत्व है, हमारी संस्कृति में यज्ञ और यज्ञ परंपरा का।
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