1896 में जन्मे यल्लप्रगड़ा सुब्बाराव ने मद्रास (अब चेन्नई) में अपने छोटे भाई को “स्प्रू’ रोग से ग्रस्त होकर तिल-तिलकर मरते देखा। उसकी दशा को देख उसने मन में संकल्प किया कि वह असाध्य रोगों का उपचार खोजने के लिए चिकित्सक बनेगा। सन् 1918 में प्रतिभा के बलबूते पर वह मद्रास मेडिकल कॉलेज में अध्यापक बन गया। अध्ययन का केंद्र उसका वही था, दुश्मन “स्प्रू’ का भेद जानकर उसका समाधान खोजना।
पहले इंग्लैंड, फिर अमेरिका जाकर हार्वर्ड के शोध-कार्य में प्रवेश पाया और स्कॉलशिप भी अर्जित कर ली। क्रमशः प्रगति के सोपानों पर चढ़ता एक गरीब क्लर्क का वह बेटा “लेडरले’ कंपनी का अनुसंधान निदेशक बन गया। उसने फोलिक एसिड द्वारा “स्प्रू’ की औषधि ढूंढ निकाली। विश्र्व ने उसे पोषण विशेषज्ञ के रूप में स्वीकार किया। यद्यपि वह नोबल पुरस्कार प्राप्ति का हकदार था, उसने रक्ताल्पता के लिए प्रभावी रसायन खोजे, जिनसे आज लाखों को राहत मिल रही है, पर उसकी टीम के अमेरिकी लोगों को पुरस्कार मिलते चले गये, भारतीय होने के कारण वह उपेक्षित ही रहा।
ऐसे श्री सुब्बाराव पर कठोर श्रम का बहुत प्रभाव पड़ा और भारत आकर 1948 में वे चिरनिद्रा में लीन हो गये। “लेडरले’ कंपनी ने उनकी स्मृति में एक प्रयोगशाला बनायी है, जिसके नीचे एक पत्थर लगाया है, उस पर उनका प्रिय वाक्य लिखा है, “”विज्ञान जीवन की अवधि बढ़ाता है, धर्म उसकी गहराई।” हमें आज ऐसे अनेक सुब्बारावों की आवश्यकता है।
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