यह क्या हो रहा है विकास के नाम पर

किसी भी राष्ट्र के विकास में कृषि, खनिज, वन एवं जल संसाधनों की प्रमुख भूमिका रहती है। हमारा देश कृषि प्रधान है परन्तु कृषक यहाँ आत्महत्या करने के लिये मजबूर है। विगत कुछ वर्षों में एक लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली है। ऐसा क्यों? यह प्रश्‍न्न हमारे मस्तिष्क पटल पर उभरता है। इस विषय पर चिंतन करने पर ज्ञात होता है कि किसी राष्ट्र के पास कृषि एवं उद्योग उसके विकास का आधार हैं। कृषि सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी के समान है परन्तु उद्योगों में खनिज सम्पदा का दोहन होता है। उनकी भरपाई हम नहीं कर पाते हैं।

किसी भी राष्ट्र की जीवन-रक्षा एवं विकास के लिये हमें कृषि एवं उद्योग दोनों की आवश्यकता होती है परन्तु सबसे पहले पेट भरना आवश्यक है, जिसके लिए अनाज की आवश्यकता होती है। इसी कारण कृषक को अन्नदाता कहा जाता है। वह हमें जीवन-रक्षा के लिए अन्न देता है। पर क्या हमने आजादी के बाद कृषि के विकास के लिए समुचित ध्यान दिया है? क्या गांवों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिये मार्ग बनाये हैं? गांव के लोगों के लिये क्या हमने बिजली, पानी, सड़क आदि सुविधाजनक स्थिति का निर्माण किया है? क्या कृषकों को उनकी फसल का उचित दाम मिलता है? ऐसे बहुत सारे प्रश्‍न्न उत्पन्न होते हैं। निष्कर्ष यही निकलता है कि हमने कृषि के विकास के लिये समुचित ध्यान नहीं दिया। इसी कारण शास्त्री जी ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था। जवान हमारी सरहदों की रक्षा करता है तथा किसान हमारे जीवन की रक्षा करते हैं।

आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सम्पूर्ण देश पर छा गई हैं। कृषि के क्षेत्र में वे उन्नत बीज के नाम से जैव-टेक्नोलॉजी का उपयोग कर रही हैं परन्तु इन बीजों में दुबारा बीज उत्पन्न करने की शक्ति नहीं रहती है। कृषक इन बीजों को लेकर अपने जीवन को विषम परिस्थिति में डाल देता है। किसी साल यदि फसल ठीक से नहीं होती है या बीज फसल उत्पन्न करने में असफल हो जाते हैं तो बीजों के दाम की वसूली के लिये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लठैत आ जाते हैं। किसान किंकर्तव्यविमूढ़ हो आत्महत्या करने को उतारू हो जाता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आने के पहले क्या इस प्रकार की आत्महत्याओं की घटनायें होती थीं? इस प्रश्‍न्न का उत्तर हमारे देश की कृषि की स्थिति बताती है।

आजादी के बाद हमने प्रमुख रूप से उद्योगों पर ध्यान दिया है। इसका लाभ हमें स्पष्ट दिखाई देता है परन्तु विकास की आंधी से खनिज सम्पदा का दोहन एवं वन सम्पदा का उन्मूलन भी तो हुआ है। इससे पर्यावरण का संकट पैदा हो गया है। हमने नदियों के स्वच्छ जल को बांध कर बिजली पैदा की है परन्तु नदियों की स्थिति प्रदूषित नालों जैसी हो रही है। ऐसा क्यों हो रहा है? इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। प्रदूषित होते पानी के कारण हमें पीने के लिये स्वच्छ जल नहीं मिल पाता है। इस तरह से जल व वायु दोनों प्रदूषित होते जा रहे हैं। कारखानों द्वारा छोड़ा हुआ धुआं पर्यावरण को प्रदूषित करता है। इससे कार्बन डाई ऑक्साईड एवं अन्य घातक गैसें वायुमंडल में फैलती जाती हैं। पर्यावरण के असंतुलित होने से वायुमंडल की सुरक्षा परत (ओजोन परत) में छेद हो गया है। इन छेदों से सूर्य की घातक पराबैंगनी किरणों के प्रवेश से तथा कारखानों के द्वारा छोड़ी हुई प्रदूषित गैसों से वायुमंडल का तापाम बढ़ गया है। हिमालय के ग्लेशियर तथा उत्तरी ध्रुव की सदाबहार बर्फ पिघलने लगी है। समुद्र के जल के तापाम में व्यतिाम पैदा हो गया है। इसका समुद्र तल की चट्टानों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। वह समुद्रीय भूकंप एवं सुनामी को जन्म देता है।

किसी भी राष्ट्र के भौतिक विकास के साथ जन-स्वास्थ्य की सुरक्षा भी आवश्यक होती है। क्या हमने जन-स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया है? हमने सिर्फ अर्थलाभ की दिशा की ओर ध्यान दिया है। हमने खनिज व वन सम्पदा का दोहन तो किया है परन्तु क्या उसके द्वारा होने वाली हानि पर ध्यान दिया है? उस हानि से बचने के लिये क्या कोई सारभूत उपाय किया है? एक ओर तो हमने उद्योगों को बेतरतीब ढंग से बढ़ा दिया तो दूसरी ओर कृषि की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया है। हमने अर्थ प्राप्त करने के लिये जन सुरक्षा पर ध्यान नहीं दिया है।

आज का युग अर्थ प्रधान बन गया है। उससे उत्पन्न होने वाली त्रासदियों पर हमने ध्यान नहीं दिया। इस कारण आज हम विभिन्न प्रकार की बीमारियों से पीड़ित होते जा रहे हैं तथा हमारा मानसिक संतुलन बिगड़ता जा रहा है। अमेरिका में हर दो मिनट में एक मानसिक रोग से ग्रसित रोगी पागलखाने में भर्ती हो रहा है।

गांव के लोगों का आकर्षण शहर की ओर बढ़ता जा रहा है। इससे गांव के लोगों का पलायन शहर की ओर होता है। आज किसान का लड़का खेती करना नहीं चाहता है। वह भी नौकरी की तलाश में शहर की ओर आता है। उसे वहाँ सारी सुविधाओं का आकर्षण बुलाता है। गांव उजड़ते जा रहे हैं। प्रश्‍न्न यह है कि फिर खेती कौन करेगा? हमारे अंदर श्रम से दूर भागने की प्रवृत्ति पैदा होती जा रही है। भोगवाद की लालसा ने इस स्थिति का निर्माण कर दिया है।

आज हम कृषि एवं उद्योगों के क्षेत्र में कहाँ खड़े हैं? इन विषयों पर चिंतन की आवश्यकता है। आखिर आज का कृषक आत्महत्या क्यों कर रहा है? क्या हमने इस विषय पर चिंतन किया है? क्या सरकार अपने दायित्वों का निर्वहन कर रही है? सरकार ने न तो कृषि की प्रधानता पर और न उद्योगों से उत्पन्न त्रासदियों पर ध्यान दिया है। एक ओर किसान आत्महत्या कर रहा है तो दूसरी ओर पर्यावरण के दूषित होने से वायुमंडल प्रदूषित हो गया है। नदियों का जल भी उद्योगों के प्रदूषण से अपनी स्वच्छता खो चुका है। इसके दुष्परिणाम तुरंत दिखाई नहीं देते पर यह बीमारियों का रूप लेता जा रहा है। गांव का किसान आत्महत्या करता है तो शहर का नागरिक बीमारियों से पीड़ित हो रहा है। यह हमारे लोभ व स्वार्थ का परिणाम ही तो है। लगता है कि हमने सभी मर्यादाओं एवं वर्जनाओं की सीमा तोड़ दी है।

 

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