पड़ोसी नेपाल का वर्तमान घटनाचा भारत सहित दुनिया भर के लिए हैरत का विषय बना हुआ है। तीन महीने के राजनीतिक गतिरोध के बाद किसी प्रकार राष्टपति, उपराष्टपति एवं संविधान सभा सह संसद के सभापति का चुनाव हुआ और उसके बाद फिर उपराष्टपति के धोती-कुर्ता पहनकर हिन्दी में शपथ लेने के विरुद्घ हिंसक आंदोलन आरंभ हो गया। 10 अप्रैल को संपन्न संविधान सभा के चुनाव में माओवादियों के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बाद प्रायः यह मान लिया गया था कि वहॉं की प्रत्येक राजनीतिक घटना माओवादियों की इच्छा के अनुरूप ही घटित होगी। हालांकि पहले भी ऐसा नहीं हुआ एवं माओवादियों को राष्टपति शासन प्रणाली की जिद से पीछे हटकर भारत के समान प्रणाली स्वीकार करनी पड़ी। लेकिन इस बार तो बाजाब्ता राष्टपति पद के उनके उम्मीदवार पराजित हो गए एवं नेपाल कांग्रेस के रामबरन यादव विजीत हुए। इसी प्रकार उपराष्टपति पद पर मधेशी जनाधिकार फोरम के परमानंद झा एवं सभापति के पद पर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ पाल (यूएमएल) या एमाले की विजय हो गई।
दुनिया के लिए यह भले ही अनपेक्षित घटना हो लेकिन नेपाल की राजनीति पर तटस्थ नजर रखने वालों के लिए न तो यह हैरत की घटना है और न वहॉं उभरा धोती-कुर्ता व हिन्दी विरोध आंदोलन ही। ये तीनों बातें सीधे मधेश से जुड़ीं हैं। राष्टपति एवं उपराष्टपति जैसे दो महत्वपूर्ण पदों पर मधेशी उम्मीदवारों का आरूढ़ होना एक ऐतिहासिक घटना है। जो मधेशी अपने सामान्य मानवीय अधिकारों के लिए, अपने खिलाफ ढाई सौ सालों के अन्याय के अंत के लिए, नेपाल के नागरिक के रूप में अपनी पहचान एवं समान अधिकारों के लिए कुछ महीने पहले तक सड़कों पर थे, अचानक उनके दो प्रतिनिधि शीर्ष पर पहुँच गए। इससे उनके अंदर उत्साह पैदा होना स्वाभाविक है। हालांकि रामबरन यादव कभी मधेश आंदोलन के साथ नहीं रहे, पर हैं तो मधेशी ही। लेकिन दूसरी ओर वे शक्तियां भी हैं जो लंबे समय से उनको विदेशी भगोड़ा या अन्य अपमानजनक उपाधियों से विभूषित करते हुए उन्हें हर तरह से पददलित बनाए रखने की सफल साजिशें करती रहीं। माओवादियों के उम्मीदवार रामराजा प्रसाद सिंह भी मधेशी ही थे एवं उन्हें भी मधेशियों के एक वर्ग का समर्थन मिला, किंतु मधेश की मांगों के प्रति माओवादियों के विरोधी रवैये के कारण प्रमुख मधेशी संगठन उन्हें समर्थन देने को तैयार नहीं हुआ। ध्यान रखने की बात है कि तीन पदों का यह परिणाम कांग्रेस, एमाले एवं फोरम के बीच समझौते के कारण आया। 594 सदस्यों की संविधान सभा सह संसद में माओवादियों के पास केवल 220 सदस्य हैं। इसके समानांतर कांग्रेस के 110, एमाले के 103 एवं फोरम के 52 सदस्य हैं। इन तीनों की सम्मिलित शक्ति माओवादियों से ज्यादा है। इनके साथ वे दल भी हैं जो माओवादियों की जिद और उनके अड़ियल रवैये से नाखुश हैं। मधेशी समूहों की संविधान सभा सह संसद में 84-85 सदस्य हैं। अन्य दलों के मधेशियों को मिला दें तो इनकी संख्या 125 से ज्यादा हो जाती है। अगर संसद में मधेशी इतनी संख्या में जीतकर नहीं पहुँचे होते तो यह परिणाम नहीं आता।
यह नेपाल में बिल्कुल नई स्थिति है जिसे वहॉं की मुख्यधारा के दलों को पचाना मुश्किल हो रहा है। राजनीतिक लाभ देखते हुए कांग्रेस एवं एमाले दोनों ने फोरम के साथ गठजोड़ तो किया, क्योंकि इनके पास कोई चारा नहीं था लेकिन परमानंद झा के शपथ को इन्होंने मुद्दा बना दिया। इस आंदोलन में अगुवाई तो माओवादियों की थी, क्योंकि अचानक आए इस परिणाम से वे गुस्से में थे लेकिन सभी दलों की छात्र एवं युवा ईकाई इसमें शामिल हुई। यानी सत्ता समीकरण में तो कांग्रेस एवं एमाले का माओवादियों से मतभेद बना रहा पर मधेशी पहचान से जुड़े विषय पर इनमें तत्काल एकता हो गई। फोरम में डांग स्थित कार्यालय को जला दिया गया एवं काठमांडू के कार्यालय में तोड़-फोड़ की गई। जगह-जगह परमानंद झा के पुतले फूंके गए एवं हिन्दी की पुस्तकें जलाई गईं। काठमांडू में धोती-कुर्ता, पायजामा-कुर्ता जलाया जा रहा है। देश की आबादी में मधेशी 52 प्रतिशत होने का दावा करते हैं, लेकिन अगर इनकी संख्या 48 प्रतिशत भी है तो यह कम नहीं है। पूरे तराई क्षेत्र में संपर्क भाषा हिन्दी है। लोग मैथिली, वज्जिका, अवधी एवं भोजपुरी में आपसी बातचीत करते हैं। विडम्बना देखिए कि वहॉं जिन 100 भाषाओं या बोलियों को मान्यता है उनमें हिन्दी नहीं है। मैथिली है, भोजपुरी है लेकिन हिन्दी नहीं। नेपाली, जिसे खम भाषा कहा जाता है उसका आतंक इतना ज्यादा है कि काठमांडू में पहुँचते ही मधेशी नेपाली बोलने लगते थे। मधेशी संघर्ष के पर्चे भी नेपाली में लिखे जाते थे। इसी प्रकार काठमांडू में ये ज्यादातर वहॉं की पोशाक दाउरा-सुरवाल पहन लेते थे। यह कैसी विडम्बना है कि वहॉं पैंट-शर्ट और टाई को तो मान्यता है पर धोती-कुर्ता एवं पायजामा को नहीं।
वैसे संविधान सभा में चुनकर पहुँचे मधेशियों में से बड़ी संख्या ने धोती कुर्ता या पायजामा-कुर्ता पहनकर हिन्दी में शपथ लिया था। उस समय भी थोड़ी सुगबुगाहट हुई लेकिन तब यह विवाद का विषय नहीं बना। जैसे-जैसे ये संविधान सभा में हिन्दी में भाषण देने लगे इनका विरोध आरंभ हो गया। एक दिन करीब 40 मधेशी सभासदों सह सांसदों ने हिन्दी में भाषण दिया। नेपाली मीडिया ने इस मामले को ज्यादा तूल दिया है। इन सबसे यह साबित हो जाता है कि मधेशियों को अभी अपनी पहचान सहित अन्य मानवीय अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़नी होगी। हालांकि नेपाल में पहाड़ी बनाम मधेशी के बीच द्वन्द्व दुर्भाग्यापूर्ण है। भारत में पहाड़ी एवं तराई दोनों प्रकार के इलाके हैं, लेकिन यहॉं ऐसा मतभेद नहीं है। दुर्भाग्य से नेपाल में भारत के विरोध में मनोविज्ञान इतना रूढ़ है कि इसकी पहचान से जुड़ी हर चीज को वे अपनी राष्टीयता के विरुद्घ मानते हैं। सच यह है कि नेपाल में तीन चौथाई से ज्यादा लोग हिन्दी समझने एवं बोलने वाले हैं। किंतु इसे वे मजबूरी मानते हैं। तथाकथित भारतीय विस्तारवाद का खतरा नेताओं ने वहॉं इस कदर लोगों के मनोविज्ञान में बिठा दिया है कि वे हिन्दी के साथ धोती, कुर्ता, पायजामा को भी इसी का अंग मान बैठे हैं। चुनाव में तो माओवादियों के प्रचार का यह सर्वप्रमुख मुद्दा था। अब प्रचार यह है कि मधेशी नेता इनके माध्यम से भारतीय विस्तारवाद को नेपाल में फैलाने की भूमिका अदा कर रहे हैं। इनसे पूछा जा रहा है कि आपकी राष्टीयता नेपाली है या भारतीय? अब कहा जा रहा है मधेश का मामला उभरने के बाद माओवादियों के साथ एमाले का सरकार बनाने के लिए समझौता हो सकता है और शीघ्र सरकार गठित हो सकती है।
तो यह मानसिकता की समस्या है। मधेशियों की असली लड़ाई इस मानसिकता के खिलाफ ही है और इसीलिए इसमें कठिनाई आ रही है। हिन्दी-नेपाली या धोती, कुर्ता, पायजामा एवं दाउरा-सुरवाल में भेद नहीं है। नेपाली लिखी जाती है देवनागरी लिपि में ही। नेपाली पोशाक दाउरा-सुरवाल भी भारतीय कमीज एवं चुस्त पायजामा के ही समान है। लेकिन लोगों की चेतना में जो बात बिठा दी गई है और नेता जिसे अपने लाभ के लिए बनाए रखना चाहते हैं उसका इलाज आसान नहीं है। हालांकि जब 12 फरवरी को मधेशी संगठन एवं अंतरिम सरकार के बीच समझौता हुआ तो प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला ने हिन्दी में ही मीडिया को बयान दिया। कारण, उन्हें इस बात का अहसास था कि हिन्दी में बोलने से यह मधेश के ज्यादातर लोगों तक पहुँचेगा। आज तक नेपाल का कौन प्रधानमंत्री हुआ होगा जो हिन्दी में कभी बोला नहीं होगा? परमानंद झा की राष्टीयता पर सवाल उठाने वाले माओवादी नेता तक हिन्दी में अनेक साक्षात्कार दे चुके हैं। लेकिन यही बात मधेशी करें तो वह भारतीय विस्तारवाद का परिचायक हो जाता है। परमानंद झा ने एक बयान में कहा है कि नेपाली भाषा के प्रति मेरे मन में सम्मान है एवं अगर मेरे हिन्दी में शपथ लेने से किसी को कष्ट हुआ है तो मुझे इसका दुःख है। लेकिन मधेश में आंदोलन का तीखा प्रतिवाद हुआ है। हिन्दी की पुस्तकें जलाने के विरोध में नेपाली पुस्तकें जलाई गई हैं। विरोध में उतरे लोगों के साथ इनका टकराव हुआ है। इन सबसे हिन्दी विरोधी आंदोलन थोड़ी ठंडी हुई है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में यह मामला पहुँच चुका है। कुर्ता-पायजामा और धोती को जलाने का कार्याम चल रहा है। काठमांडू में जिस प्रकार धोती-कुर्ता एवं पायजामा जलाया जा रहा है उससे भय यह है कि कल कोई भारतीय वहॉं जाएगा तो सबसे पहले उसे त्रिभुवन अंतर्राष्टीय हवाई अड्डे पर अपनी पोशाक बदलनी होगी। क्या माओवादियों या दूसरे नेताओं को पता नहीं है कि भारत में नेपाली भाषा को संविधान में स्थान दिया गया है? भारत में प्रशासन के सर्वोच्च पदों के लिए संघ लोकसेवा आयोग की जो परीक्षा होती है उसमें कोई नेपाली भाषा ले सकता है। भारत में धोती-कुर्ता तो छोड़िए, किसी प्रकार के पोशाक को लेकर कोई विधान नहीं है। यहॉं दाउरा-सुरवाल पहनने वाले भी हैं। ये सारी बातें उन्हें पता है, लेकिन वे अपना मधेश विरोधी, भारत विरोधी मानसिकता बदलने को तैयार नहीं हैं।
– अवधेश कुमार
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