जिस समय ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं तब तक करीब-करीब यह तय हो चुका है कि यूपीए सरकार एटमी डील के मामले में वामपंथी पार्टियों की परवाह न करके आगे बढ़ेगी। बदले में वामपंथी पार्टियां यूपीए सरकार को दिया जा रहा अपना समर्थन वापस ले लेंगी जिसकी उन्होंने औपचारिक रूप से घोषणा भी कर दी है। इसके बावजूद भी जो तात्कालिक सियासी परिदृश्य बन रहा है उससे नहीं लगता कि तुरंंत चुनाव की नौबत आएगी। मनमोहन सरकार बची रहेगी, इसका जुगाड़ हो गया दिखता है। तभी सरकार “याचना नहीं अब रण होगा’ की मुद्रा में आ गई है। क्योंकि कांग्रेस पार्टी तो एकबारगी कोई कूटनीतिक या कहें ढुलमुल रवैया आख्तयार कर लेती लेकिन स्वभाव से गैर राजनीतिक प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने साफ-साफ शब्दों में अपनी पार्टी को अपना फैसला सुना दिया था कि यदि डील पर आगे नहीं बढ़ना तो वह न तो आगामी टोक्यो यात्रा के लिए जाएंगे और न ही सरकार चलाने के इच्छुक होंगे। कांग्रेस पार्टी और यूपीए पार्टी गठबंधन को अब वामपंथी दलों और प्रधानमंत्री के दो टूक फैसलों में से किसी एक का साथ देना मजबूरी बन गई है।
लेकिन अगर बात सिर्फ अहं तक सीमित होती तो शायद कोई अप्रत्याशित घटनााम भी सामने आ सकता था। मगर ऐसा नहीं है। बात दरअसल इस सरकार के चलते रहने या परमाणु संधि पर आगे बढ़ने तक ही सीमित नहीं है बल्कि इससे आगे अपने वोट बैंक को मजबूत करने, उसे बढ़ाने और एक बार फिर से सत्ता के लिए जोड़-तोड़ का सफल समीकरण तैयार करने की भी है। यही वजह है कि वामपंथी पिछले एक साल से भी ज्यादा समय से न तो अपनी धमकियों पर पूरा अमल कर रहे हैं और न ही कांग्रेस बार-बार यह इशारा करके भी कि उसे वामपंथियों की परवाह नहीं है, पूरी तरह से उनकी परवाह करना छोड़ रही है। यह एक नट संतुलन की सियासत है जिसमें इंच-इंच आगे बढ़ते हुए बार-बार उसके नफे-नुकसान का आंकलन किया जा रहा है। मुंह से निकली हुई विरोधी दल की हर बात को तौला जा रहा है और उसे अपने पक्ष में मददगार बनाने का प्रयोग चल रहा है।
…और अंत में शायद दोनों ही पक्ष इस नतीजे पर संतुलन के साथ पहुंच गए हैं कि अपनी-अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता साबित करने के लिए उन्हें कदम आगे बढ़ाना ही होगा। यही वजह है कि लगभग 7 बार की औपचारिक और 27 बार की अनौपचारिक बातचीत के बाद भी न तो लेफ्ट, सरकार से यह बात मनवाने में सफल हुआ कि सरकार एटमी करार पर आगे न बढ़े और न ही कांग्रेस तथा यूपीए घटक दल, लेफ्ट को यह बात समझाने में सफल हुए कि बदली हुई विश्र्व परिस्थितियों में वैचारिकता नहीं व्यावहारिकता पर अमल करना ज्यादा जरूरी है। एक दृष्टि से शायद यह पहले से ही सुनिश्र्चित परिणाम था। इस वजह से दोनों ही पक्षों में से किसी को यह सब कुछ बहुत अप्रत्याशित या विश्र्वासघात जैसा भी नहीं लग रहा।
लेकिन फिर सवाल उठता है कि अगर यही परिणाम बहुत पहले से तय था तो सरकार इतने दिनों तक इसको लेकर असमंजस में क्यों रही? नहीं, यह असमंजस नहीं था। यह सियासी शतरंज की सधी हुई चालों में पहले से तय वक्त को बर्बाद करने की सोची-समझी रणनीति थी। चूंकि अब लोकसभा चुनावों के लिए इतना समय नहीं बचा कि विरोधी खेमे में सरकार बनाने का लालच पैदा हो। बीजेपी अब ऐसी कोई कोशिश नहीं करेगी कि 4-5 महीने की सरकार बनाने के लिए दुस्साहसी राजनीतिक समीकरण विकसित करे। वामपंथी खुद भी नहीं चाहते कि उनकी वजह से अंत में भाजपा की सरकार बने और 4 सालों से ज्यादा का उनका यूपीए सरकार को दिया गया समर्थन यूं ही बर्बाद हो। ध्यान दें, वामपंथी पार्टियों ने इन सालों में लगातार यह कहते हुए यूपीए सरकार को समर्थन दिया है कि वह सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं। उनके ऐसे दावों के बीच अगर अंत में भले कुछ महीनों के लिए ही सही, उनकी वजह से भाजपा की सरकार बनती है तो उनके तमाम सियासी दावे व बातें झूठी साबित होंगी। यही वजह है कि यह जानते हुए भी कि यूपीए सरकार उनके मनमुताबिक नहीं चलेगी, फिर भी वामपंथी दलों ने सालभर पहले सरकार को समर्थन वापसी का अल्टीमेटम नहीं दिया था।
वास्तव में यह दोनों ही पक्ष यानी कांग्रेस व यूपीए सरकार तथा वामपंथी दल भली-भांति जानते हैं कि उनका हठ, सियासी हाराकीरी नहीं बल्कि ठहरे हुए राजनीतिक माहौल में अपने लिए तरंगें पैदा करने का एक कृत्रिम सियासी दांव है। अगर इस मोड़ पर आकर सरकार ने यह रुख आख्तयार किया है कि “याचना नहीं अब रण होगा’ तो इसके पीछे एक बड़ा सच यह है कि अगर सरकार गिर भी रही होगी तो वामपंथी पर्दे के पीछे से यह कोशिश करेंगे कि सरकार गिरे न। भले ही उन्हें इसके लिए बेतुकी दलीलें भी क्यों न देनी पड़ें। मगर कोई भी राजनीतिक दल या सरकार महज नकारात्मक सिद्धांतों के परिणामों को ध्यान में रखकर कोई दूरगामी फैसला नहीं करती। यूपीए सरकार ने भी सिर्फ इस बात से आश्र्वस्त होकर ही वामपंथियों से दो-दो हाथ करने का मन नहीं बनाया कि सैद्धांतिक मजबूरी के चलते वह सरकार को नहीं गिराएंगे बल्कि इसके लिए यूपीए सरकार खासतौर पर कांग्रेस ने एक व्यापक रणनीति भी बनाई है जो तात्कालिक भी हो सकती है और अगर समीकरण ठीक-ठाक परिणाम देने वाला रहा तो वह दूरगामी भी बन सकता है।
फिलहाल यूपीए सरकार ने अगर साफ-साफ “वाम नहीं तो गम नहीं’ का नारा बुलंद किया है तो इसके पीछे समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, जनता दल सेक्युलर और कई छोटे दलों व निर्दलीय सांसदों के साथ गोटियां फिट करके इस निर्णायक जंग का मन बनाया है। कांग्रेस का पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से मुलायम सिंह के साथ लुका-छुपी का इंद्रधनुषी खेल चल रहा था, उसके नतीजे लगभग सामने आ चुके हैं। अमर सिंह ने साफ शब्दों में कहा, “हम एटमी करार का वैचारिक सनक के स्तर पर विरोध नहीं करते। अगर हमें लगा कि इसके राष्ट्रीय हितों का कैनवास बड़ा है और हमें इसके लिए अपनी पुरानी सोच में कुछ फेर-बदल करने की जरूरत पड़ रही है तो हम पीछे नहीं हटेंगे।’ समझदार को इशारा बहुत है। वामपंथी पार्टियां और दूसरे विपक्षी दल समझ चुके हैं कि अमर सिंह की इन बहुअर्थी बातों के मतलब क्या-क्या निकल सकते हैं।
कई छोटे दल लंबे समय से इस फिराक में थे कि कुछ ऐसी स्थितियां बनें कि उन्हें अपनी कीमत मिले। अब जब स्थितियां बन गई हैं तो भला वह पूरे खेल का दूर से खड़े होकर तमाशा क्यों देखें? क्यों न इस खेल में शामिल हों और उसकी कीमत वसूल करें? शिवसेना ने इसकी पहल कर दी है। जिस तरह से उसने मराठा सेंटीमेंट को ध्यान में रखकर एनडीए के उलट राष्ट्रपति पद के यूपीए के उम्मीदवार का समर्थन किया था, उसी तरह अब व्यापक राष्ट्रीय हितों का हवाला देकर भाजपा की इस नजदीकी दोस्त पार्टी ने एटमी डील के समर्थन का मन बना लिया है। देवगौड़ा की पार्टी जिस तरह से कर्नाटक में चारों खाने चित्त हुई है उसके पास भी भविष्य में कांग्रेस के नजदीक आने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए शायद अजित सिंह के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकदल और मायावती के बढ़ते कद से दहशतजदा समाजवादी पार्टी ने भी यूपीए के साथ आने या फौरी तौर पर इस समय सरकार बचाकर कुछ हासिल करने का मन बना लिया है। कुल मिलाकर “याचना नहीं अब रण होगा’ का स्वर चाहे वह कांग्रेसियों का हो या वामपंथियों का, इसके पीछे एक सुनिश्र्चित होमवर्क और फायदे मौजूद हैं।
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