यातनाओं की जन सुनवाई

संयुक्त राष्ट संघ की साधारण सभा ने 10 दिसम्बर, 1948 को विश्र्व में मानवाधिकार घोषणा-पत्र को स्वीकार करते हुए विश्र्वास प्रकट किया था कि हम एक ऐसा सभ्य समाज बनाएंगे, जो यातना, ाूरता, प्रताड़ना और अमानवीयता से मुक्त होगा। लेकिन तब से अब तक भारत में आजादी के 60 साल इस बात का प्रमाण हैं कि यहॉं गरीब और दलित जातियां आज भी यातना के अभिशाप से मुक्त नहीं हुई हैं तथा राज्य पुलिस और सशस्त्र बलों की ज्यादतियों से ही मानवाधिकारों का सबसे अधिक उल्लंघन हो रहा है। दुनिया के 19 बड़े देश, जिनमें कि धरती की 60 प्रतिशत आबादी रहती है, हमें यह चौंकाने वाला तथ्य उजागर करती है कि राज्य का आतंक ही आज बेकसूर और असहाय लोगों के सामान्य जीवन का सबसे बड़ा संकट है।

अमेरिका में 9/11 की घटना के बाद जिस आतंकवाद के विरुद्घ एक विश्र्वव्यापी अभियान चलाया जा रहा है, उससे भी यही सत्य सामने आ रहा है कि ग्वान्तेनामो जैसे बंदी शिविर केवल अमेरिका में ही नहीं चल रहे हैं, अपितु नाइजीरिया, तुर्की, दक्षिणी कोरिया तथा मिस्र जैसे देशों में भी यातना के तौर-तरीके आम तौर पर अपने राजनैतिक और सामाजिक अपराधियों के खिलाफ वहॉं की सरकारें कर रही हैं। आपको याद रहे कि 1987 में यातना के विरोध में आयोजित संयुक्त राष्ट संघ के एक सम्मेलन के प्रस्ताव पर भारत सरकार ने आज तक कोई कानून-विधान बनाकर हमारे देश में लागू नहीं किया है। इसी कारण भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में और अमेरिका जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में हिरासत की यातना, हिरासत की मौतें, अनधिकृत पुलिस अपहरण और गुपचुप जॉंच के नाम पर पुलिस थानों की पूछताछ ने आम नागरिकों को असुरक्षित बना रखा है। “जो समर्थ है, वही सच्चा है’ जैसा असभ्य सिद्घान्त आज भी भारत के कोई 6 लाख गांवों में स्थापित है।

इसी संदर्भ में “पीपुल्स वाच’ नामक अंतर्राष्टीय संगठन द्वारा राजस्थान में जो कार्य पिछले कई वर्षों से प्रदेश के अनेक जन संगठनों के साथ मिलकर हो रहा है, उसकी 15-16 जुलाई, 2008 को अजमेर में हुई जन सुनवाई में भी यही तथ्य सामने आया कि प्रदेश में मानवाधिकारों की सबसे अधिक अनदेखी असंगठित पुलिस बल के द्वारा ही हो रही है। पुलिस खुले आम एक नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन कर रही है तथा स्थिति इतनी दयनीय है कि जो ताकतवर होता है, वह मारता भी है और रोने भी नहीं देता है। सिक्किम उच्च नयायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश सुरेंद्रनाथ भार्गव की अध्यक्षता में अरुणा राय, डॉ. मेथीहरन, पी. एल. मीमरोठ, सौम्या उमा, महेश बोड़ा, रमाकांत सक्सेना, थानसिंह, डी.एल. त्रिपाठी, डॉ. एम.एल. अग्रवाल, कविता श्रीवास्तव, गौरी चौधरी जैसी सामाजिक और न्यायिक सदस्यों की समिति के साथ बैठ कर मैंने दो दिन तक चली अजमेर की “यातना के विरुद्घ’ इस जन सुनवाई में पाया कि यातना के खिलाफ आए सारे प्रार्थी ग्रामीण थे, अशिक्षित थे, गरीब थे, छोटी- निःशक्ति जातियों के थे और पैसा, पंचायत और पुलिस के गठजोड़ के शिकार थे। हमने देखा कि इनमें से किसी की ऐसी हैसियत नहीं थी कि अपने लिए किसी वकील की सहायता भी ले सकें। समिति ने यह भी जाना कि पुलिस बल ही (स्थानीय थाना/चौकी) ही सामान्यतः दूरदराज के क्षेत्रों में अपना संविधान और न्याय प्रिाया चलाती है तथा जाति पंचायतें और ग्राम पंचायतें आम तौर पर पुलिस का साथ देने भर का कार्य करती हैं। यहॉं पुलिस का व्यवहार स्त्री-पुरुष सभी के लिए एक-जैसा है और सारी शिकायतें पुलिस हवलदार अथवा थानेदार के खिलाफ ही रहती हैं।

इस जन सुनवाई में आए सैकड़ों दुःखी फरियादी एक के बाद एक यही बता रहे थे कि राज्य मानवाधिकर आयोग, पुलिस अधीक्षक, जिला कलेक्टर अथवा गृहमंत्री और मुख्यमंत्री को भेजी जाने वाली सभी प्रार्थनाएं प्रायः निरुत्तर रहती हैं तथा इसके विपरीत पुलिस यही कहती है कि और शिकायत करो! पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर करते हो! नेतागिरी करते हो! जन सुनवाई में रोते-बिलखते फरियादी बच्चे, बूढ़े, महिला और गरीब ही अधिक थे। एक भी फरियादी बड़ी जात का नहीं था। लोग कह रहे थे कि जबसे हमारी शिकायत अखबारों में छपी है, तब से पुलिस ने हमारा जीना दूभर कर दिया है तथा हमें पीटा भी जाता है, हमसे पैसा भी ऐंठा जाता है और हमें मनचाहे समय तक थानों में बिठा दिया जाता है। उधर गांवों में हालत ऐसी है कि पुलिस से कोई कुछ पूछना नहीं चाहता तथा उल्टे हमें ही जात और न्यात का कोपभाजन बनना पड़ता है। उधर यातना और उत्पीड़न के ऐसे मामलों को संकलित और उजागर करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को पुलिस लगातार “देख लेने’ की धमकी भी देती है।

निश्र्चिय ही जन सुनवाई में यातनाओं की ऐसी दर्दभरी फरियादें सुनकर हमें लगता है कि जिसके पॉंव में बिवाई नहीं फटती, वह भला दूसरों की पीड़ा क्या समझेगा? स्थिति यह है कि राज्य मानवाधिकार आयोग में 90 प्रतिशत शिकायतें आज भी पुलिस के खिलाफ ही आ रही हैं।

यही कारण है कि हमारे देश में भूख, बेरोजगारी, यातना, गैर-बराबरी और अन्याय के खिलाफ सबसे अधिक जनता की सिायता दिनों-दिन बढ़ रही है तथा गरीब भारत में पुलिस और प्रशासन की व्यवस्था का चेहरा, चाल और चरित्र अभी तक अलोकतांत्रिक बना हुआ है। मुझे लगता है कि यदि आज हमारा मीडिया इतना सिाय नहीं होता, तो शायद ही हमें कभी कोई अत्याचार और उत्पीड़न की खबरें मिल पातीं।

“नेशनल प्रोजेक्ट ऑन प्रिवेंटिंग टॉर्चर इन इंडिया’ की राजस्थान में निदेशक कैरोल गीता के अनुसार, प्रदेश में हिरासत की मौतें, पुलिस उत्पीड़न, पुलिस हिंसा, पुलिस गोलीकांड, गैर-कानूनी हिरासत, सामूहिक दण्ड, झूठे मुकदमे, पुलिस का महिला उत्पीड़न और पुलिस का साम-दाम-दण्ड-भेद का आचरण जिस तेजी से बढ़ रहा है, वह एक सभ्य समाज के लिए चिन्ता और चुनौती का कारण है। न्यायमूर्ति सुरेंद्रनाथ भार्गव ने भी इस जन सुनवाई के बाद इसीलिए कहा कि पुलिस, प्रशासन और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए बने संवैधानिक संस्थानों की चुप्पी और उपेक्षा हमें एक बार फिर याद दिलाती है कि हमारा समाज अभी तक शिक्षित होकर भी असभ्य बना हुआ है तथा हम सब एक बर्बर राज्य, धर्म और जातीय समाज की यातनाओं के शिकार हैं।

 

– वेद व्यास

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