प्रकृति में कितने ही रहस्य ऐसे हैं, जिनका सुलझना संभव ही नहीं है। आदमी का जीवन छोटा पड़ जाता है, माया के चक्कर में। कभी स्वयं के लिए कामना, कभी परिवार के लिए कामना, मात्र कामना करते-करते ही शरीर पूर्ण हो जाता है, मिट्टी हो जाता है।
मथुरा के बांके बिहारी मंदिर में मूर्ति के सामने सुंदर पर्दा पड़ा रहता है। पुजारी कुछ समय के अंतराल के बाद उस पर्दे को इधर से उधर करते रहते हैं। यह साधारण-सी प्रिाया है।
एक अन्य भक्त ने, जो उस मंदिर विशेष के प्रति विशेष आस्था रखते हैं, बताया कि कुछ वर्ष पहले उस मंदिर में यह परंपरा नहीं थी। एक दिन एक विशिष्ट साधक, साधारण-सा मानव उस गर्भगृह के सामने बैठ कर ध्यानमग्न हो गया। शायद त्राटक का अभ्यास करने लगा। अपलक रूप से उस मूर्ति को निहारने लगा। मंदिर परिसर में सब अपने कार्य में व्यस्त थे। किसी को क्या पता कि क्या हो रहा है? अचानक मूर्ति में कंपन हुई और मूर्ति चलने लगी, उस साधक की ओर। समीप खड़े पुजारी को आभास हुआ तो वह यह सब देखक चकित रह गया और भावशून्य होकर बांके बिहारी को निहारने लगा।
तब तक दर्शन कर रहे भक्त भी इस घटना के साक्षी हो चुके थे। अचानक पुजारी ने न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत होकर पर्दा खींच दिया। त्राटक प्रिाया में विघ्न पड़ा। मूर्ति स्थिर हो गई। बांके बिहारी अपने किस भक्त की ओर बढ़ रहे थे, पुजारी ने देखा तो पाया कि वह भक्तराज अभी तक टकटकी बांधे बांके बिहारी की ओर ही ताक रहा है। पुजारी की आंखों से आंसू बहने लगे। वह लपक कर उस साधक के चरणों में लोट गये। उस दिन से मंदिर में मूर्ति के सामने पड़ा पर्दा लंबे समय के लिए स्थिर नहीं किया जाता। साष्टांग नमन उस अज्ञात साधक को, जिसकी भक्ति के वशीभूत होकर बांके बिहारी की मूर्ति सजीव हो उठी थी। प्रणाम उस साधक को भी, जिसने यह कल्पनातीत घटना सुनाई।
एक बार काशीपुर में बाल सुंदरी के दर्शन के लिए नैनीताल के सीतावनी मंदिर जाना हुआ। सीतावनी घनघोर जंगल में वह स्थान बताया जाता है, जहां श्री राम से परित्यक्त होकर मां सीता ने वाल्मीकि आश्रम में वास किया था। पूरे विश्र्व में शायद ही एक मंदिर है, जहां मात्र मां सीता की ही मूर्ति है, वह भी लव-कुश को गोद में लिए। श्री राम-लक्ष्मण-हनुमान किसी का भी कोई विग्रह नहीं है। मात्र मां सीता की ही सत्ता है यहां।
पिछली बार जब गया था, तो मंदिर में वास कर रहे स्वामी पूर्णानंद ने पूर्ण श्रद्घा-विश्र्वास से बताया था, “”उसकी ही माया है, आज तक यहां आने वाले किसी भी यात्री पर कभी किसी जंगली जानवर ने हमला नहीं किया, कभी कोई यात्री अगर मार्ग में भटक गया तो यहां वास कर रही किसी न किसी महान आत्मा (महर्षि कालू, महर्षि भारद्वाज, अमर अश्र्वत्थामा, महर्षि वशिष्ठ आदि) ने किसी न किसी रूप में उस श्रद्घालु यात्री की सहायता की है।”
स्वामी जी के यह शब्द मेरे कानों में गूंजते रहते हैं। उस दिन भी मारूति वैन में हम छः मानव जंगल में प्रवेश कर गये। रामनगर की ओर से यात्रा प्रारंभ करते ही, गाड़ी का पहिया पंचर हो गया। राह में जगह-जगह जंगली हाथियों द्वारा तोड़े गये वृक्ष इस बात के स्पष्ट प्रमाण थे कि इस जंगल में हाथियों की कोई कमी नहीं है।
लगभग 30 कि. मी. चलकर, एक पहाड़ी नदी पार करते समय गाड़ी पत्थरों में फंस गयी। मात्र 30 फुट की दूरी, पत्थर हटाते, गाड़ी उठाते-सरकाते हम चारों पुरुष शिथिल हो गये। दोपहर 12 बजे गाड़ी फंसी थी, साढ़े तीन घंटे में 20 फुट भी पार न हो सका। जंगल में दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था।
मुझे न जाने क्या सूझा, अकेला ही मंदिर की ओर पैदल इस आशा से बढ़ चला कि मंदिर पास ही होगा और कुछ न कुछ सहायता मिल ही जायेगी। हाथों से खून रिसने लगा था। हम सब थक कर बेहाल हो गये थे। शाम होने लगी थी। जंगली जानवरों का डर अन्तर्मन में समाने लगा। लगभग एक किलो मीटर तक चलने पर भी मंदिर का कोई निशान नहीं मिला।
मन घबरा गया। मैं निराश होकर पहले तो चीखने लगा, “”अरे कोई है, मदद करो।” कौन सुनता, कहीं से कोई उत्तर नहीं? अब पैदल ही वापस लौटने लगा, मारूति की ओर। अवसाद बढ़ गया, प्रलाप करने लगा, आंखों से आंसू बह निकले- “”अरी माई, तेरे दर्शन करने ही तो आ रहे थे, कोई पाप करने नहीं। ये जो लोग साथ में हैं, मेरे कारण ही आये हैं। इनका क्या गुनाह है? अरे तू तो बड़ी दयालु है। अरे तू मेरी जान ले ले, मगर इन बाकी को क्यों परेशान कर रही है? कहां गई महात्मा जी की आस्था, कोई न कोई जरूर मिलता है यहां? अरी माई, मैं दुष्ट हूं, तू महादुष्ट है।” कुल मिलाकर वह सब बातें कह गया, जो लिखने योग्य भी नहीं हैं। मां-बेटे का वह झगड़ा अगर कोई तीसरा देखता तो बेटे को पागल ही बताता।
लगभग पूरी वापसी उसी प्रलाप में गुजर गई। महिलाएँ रोने को तैयार, पुरुष थक कर किनारे बैठ गये। मैं नदी के किनारे आया ही था कि दूर पहाड़ी पर एक व्यक्ति हाथ में लाठी लिए नजर आया। उसे देख खुशी के मारे मैं चीख पड़ा, “”इधर आओ।” तब तक दूसरा एक और नजर आया, उसे भी इशारे से बुलाया। कुछ ही देर में वे दोनों वहां आ गये। एक दुष्ट प्रकृति का था और दूसरा शांत, एक सहायता को तत्पर तो दूसरा उसे रोकने पर आमादा।
पता नहीं कैसे वे दोनों गाड़ी को धक्का लगाने के लिए तैयार हो गये। अरे कमाल हो गया। डाइवर ने गाड़ी स्टार्ट की। हम सबने जरा-सा जोर लगाया, गाड़ी एकदम नदी से बाहर, जो काम हम साढ़े तीन घंटे में न कर सके, उन दोनों ने हाथ रखते ही कर दिया। मैंने उन्हें कुछ रुपये दिये तो उन्होंने संकोच के साथ रख लिये।
मंदिर पहुंच कर स्वामी जी को सारी घटना बताई तो वह कहने लगे, “”मैंने तो पहले ही कहा था कि यहां कोई न कोई विशिष्ट आत्मा सहायता जरूर करती है।”
कुल मिलाकर जीवन भर याद रहेगी सीतावनी की वह यात्रा, मां से किया गया नालायक पुत्र का दुर्व्यवहार। पुत्र कपूत हो सकता है- मैं भी हो गया था, माता कुमाता नहीं हो सकती।
आज तक यह रहस्य ही बना है कि चार घंटे बाद मिलने वाले वे देवदूत स्वरूप कौन थे?
– स्वामी बिजनौरी
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