किसी को गरीब कहने का क्या मतलब होता है? एक मतलब तो वह बेचारा है यानी असहाय, जो या तो अपनी स्थितियों का मारा है या अपनी करनी का। गरीब का दूसरा मतलब है- वह, जिसके पास खाने को रोटी नहीं है, पहनने को कपड़ा नहीं है, रहने को घर नहीं है। बेचारा यह भी होता है लेकिन ़जरूरी नहीं कि अपनी असहाय स्थिति का दोषी वह स्वयंं ही हो। वह परिस्थिति का मारा भी हो सकता है और व्यवस्था की रीति-नीति का भी। लेकिन कितने हैं ऐसे गरीब देश में? इस प्रश्र्न्न का सही ़जवाब दुर्भाग्य से देश के पास नहीं है।
हॉं, देश के पास एक आंकड़ा है, लेकिन इस आंकड़े का आधार रोटी, कपड़ा और मकान का अभाव न होकर एक निश्चित आय है। यह तय किया गया है कि जिस व्यक्ति की आय शहरों में 538 रुपए प्रतिमाह से कम है और गांवों में 356 रुपए से कम है, वह गरीब है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार ऐसे व्यक्तियों की संख्या देश में लगभग छब्बीस करोड़ है। अर्थात् देश में लगभग 26 करोड़ व्यक्ति ऐसे हैं जो 12 रुपये से लेकर 20 रुपये प्रतिदिन पर अपना गु़जारा करते हैं। यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि 12 रुपये या 20 रुपये में कोई व्यक्ति क्या खा सकता है या क्या पहन सकता है। मुम्बई में एक कटिंग चाय (यानी चार-पॉंच घूंट चाय) कम से कम दो रुपये में मिलती है, एक पाव-रोटी के कम से कम दो रुपये लगते हैं। मतलब यह कि पाव-रोटी और कटिंग चाय में ही व्यक्ति के बीस रुपये खर्च हो जाते हैं लेकिन पेट नहीं भरता। इस पर तुर्रा यह कि सरकार इस तथ्य पर संतोष प्रकट करना चाहती है कि सन् 2004-05 में देश में गरीबी का स्तर 27.5 प्रतिशत था जो 2005-06 में घट कर 25.9 प्रतिशत हो गया है। सत्तर के दशक के प्रारंभ में इंदिरा गांधी ने “गरीबी हटाओ’ का नारा देकर चुनाव जीता था, कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी सरकारों की लगभग चार दशक की कोशिशों के बाद भी देश की एक चौथाई आबादी गरीबी का जीवन जी रही है अर्थात् भूखी और नंगी है। किसी सरकार के लिए ये आंकड़े भले ही किसी संतोष का विषय हों, लेकिन मानवीय संवेदना के ऩजरिये से इस स्थिति को शर्मनाक ही कहा जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि सरकारें इस बात को नहीं समझतीं। समझती हैं, लेकिन अपनी असफलता और अकर्मण्यता को अक्सर आंकड़ों में छुपाती हैं। आंकड़े बहुत कुछ बोलते हैं, लेकिन यह नहीं बोलते कि जब कोई बच्चा भूख से रोता है या इलाज के अभाव में, बीमारी में तड़पता है तो वह मानवीय संवेदना के स्रोत के सूखने का विलाप भी कर रहा होता है। फिर भी सरकारें कभी आंकड़ों के खेल खेलती हैं और कभी गरीबी की परिभाषा बदलने के। अब गरीबी की परिभाषा निर्धारित करने के आधार बदले जा रहे हैं। गरीबी की रेखा के साथ-साथ अब शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ वातावरण और बच्चों-महिलाओं के हितों की दृष्टि के आधार पर गरीबी नापी जायेगी। निश्र्चित है, इससे “गरीबों’ की संख्या बढ़ेगी ही। स्वतंत्रता दिवस के संदेश में प्रधानमंत्री ने जिस समग्र और समन्वित विकास की बात कही थी, उसके लिए स्थिति की विकरालता और भयावहता को इन आधारों पर बेहतर ढंग से आंका जा सकता है। लेकिन सवाल सिर्फ आंकने का नहीं है, सवाल स्थिति को बदलने का है। छह दशक के विकास के बावजूद यदि देश की एक चौथाई आबादी की भूख मिटाने में हम असफल रहे हैं तो यह स्थायी नीति और नीयत दोनों पर प्रश्र्न्नचिह्न लगाने वाली स्थिति है।
सवाल यह है कि क्या परिभाषाएं बदलकर स्थिति को बदला जा सकता है? स्थिति को बदलने के लिए नीतियां बदलनी होंगी, नीयत साफ करनी होगी।
सभी राजनीतिक दल गरीबी मिटाने के पक्ष में हैं। सभी सरकारें इस दिशा में काम करने के दावे करती हैं। सत्तारूढ़ नेता 27.5 प्रतिशत से और भी अधिक आरक्षण बढ़ा कर इस आरक्षन यात्रा की सफलता पर अपनी पीठ ठोंकते हैं और सत्ताकामी नेता इसे अपर्याप्त बताकर “हमें मौका दो’ की मांग करते हैं। लेकिन हमारी स्थितियों का सच यह है कि देश के राजनीतिक नेतृत्व में बुनियादी ईमानदारी का अभाव है। चुनावों के समय ़जरूर हर नेता गरीबी को अभिशाप बताकर उसे मिटाने की कसमें खाता है, लेकिन उसके बाद अगले चुनाव जीतने के चक्करों में ही पड़ा रहता है। गरीब की बात सब करते हैं लेकिन गरीब के बारे में सोचते नहीं। सोचते भी हैं तो वरीयताओं में बहुत नीचे होता है गरीब और गरीबी का ाम।
आज हमारी राजनीति की प्राथमिकता में गरीबी एक मुद्दा तो है, आम आदमी के हितों की चिंता सब राजनीतिक दल करने का दावा करते हैं, लेकिन यह चिंता शब्दों से आगे नहीं बढ़ती। गरीबों की संख्या में दो प्रतिशत की कमी हमारी उपलब्धि नहीं है। सच तो यह है कि एक चौथाई आबादी का गरीब होना हमारी विफलता की कहानी है। सच यह भी है कि सत्ता की राजनीति में उपलब्धियों के बजाय उपलब्धियों का भ्रम पैदा करना अधिक कारगर लगने लगा है।
चुनाव से लेकर चुनाव तक की राजनीति के खेल में आम जनता के वास्तविक हितों की लगातार उपेक्षा हो रही है। इसी के चलते कभी धर्म के नाम पर वोट बटोरने की राजनीति होती है और कभी जाति के नाम पर। कभी भाषा के नाम पर जनता को आपस में लड़ाने की नापाक कोशिश होती है और कभी क्षेत्रीयता के नाम पर। सरकारें बनाने और सरकारें बिगाड़ने का खेल हमारे राजनेताओं के लिए देश बनाने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। इसीलिए कभी संसद में नोट उछाले जाते हैं, कभी अमेरिका के साथ होने वाला कोई समझौता रोटी-रो़जी से अधिक महत्वपूर्ण बन जाता है, कभी रामसेतु और अमरनाथ का मुद्दा हमारे लिए जीवन-मरण का सवाल बना दिया जाता है और कभी गरीबी की परिभाषा बदलकर हमें बरगलाने की कोशिश की जाती है।
सच्चाई यह है कि देश का नेतृत्व, चाहे वह सरकारी पक्ष का हो या विपक्ष का, देश की आवश्यकताओं से कहीं अधिक महत्व अपनी राजनीतिक आवश्यकता और गरीब जनता के हितों के बीच की दूरी समाप्त करने की है। कई-कई संदर्भों और कई-कई उदाहरणों से यह बात सामने आ चुकी है कि हमारा नेतृत्व, भले ही वह किसी भी रंग का हो, अपने स्वार्थों से उबर नहीं पा रहा। शायद अकबर इलाहाबादी ने सच ही लिखा था, दर्द लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ। जब नेताओं के इस आराम की परिभाषा बदलेगी, तब उनके दर्द का कुछ अर्थ बनेगा। गरीबी हटानी है तो गरीबी की सिर्फ परिभाषा बदलना पर्याप्त नहीं है, गरीबों की स्थिति बदलनी होगी, रो़जगार के नये स्रोत खोजने होंगे, जनता को रो़जगार के लायक बनाना होगा और नीतियों को इस तरह बदलना होगा कि रोटी और कपड़े का पर्याप्त उत्पादन ही नहीं हो, रोटी-कपड़ा ़जरूरतमंद के पास तक पहुँचे भी। बा़जार में गेहूं होने से पेट नहीं भरता, पेट तब भरेगा जब गरीब की जेब में गेहूं खरीदने का पैसा भी हो। यह चुनौती है हमारे सामर्थ्य के सामने। नेतृत्व इसे कब स्वीकारेगा?
– विश्वनाथ सचदेव
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