“राजनीति’ के उलझाव में महिला आरक्षण विधेयक

“लोकसभा चुनाव में महिलाएँ 181 सीटों पर काबिज’। चौंकिये मत, अगर 108 वें संविधान संशोधन के साथ 6 मई, 2008 को यूपीए द्वारा संसद में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों के आरक्षण के लिए राज्यसभा में पेश “महिला आरक्षण विधेयक’ पारित हो जाता है तो महिलायें इससे भी ज्यादा सीटों पर कब्जा करने में सफल हो सकती हैं। हालांकि इससे पहले भी यह विधेयक कई बार विभिन्न रूपों में लोकसभा में पेश हो चुका है, परन्तु कभी लोकसभा भंग होने और कभी इस पर आम राय कायम न हो सकने के कारण यह हमेशा अधर में ही लटकता रहा।

बीते समय में हम इस भुलावे में रहे कि देश की आर्थिक उन्नति के साथ-साथ महिलाओं की राजनीतिक उन्नति भी होती रहेगी, लेकिन यह गलत साबित हुआ। तब महिलाओं का राजनीतिक स्तर सुधारने के उद्देश्य से उठाये गये पहले कदम के रूप में सरकार ने नगरपालिका और पंचायत बिल 1992 का प्रावधान कर स्थानीय स्तर पर महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित कीं। इससे प्राथमिक स्तर पर राजनीति में महिलाओं की भागीदारी तो सुनिश्र्चित हो गई किन्तु इससे आगे संसद में कोई फर्क नहीं पड़ा। तब संसद में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए एक नये विधेयक की जरूरत महसूस की जाने लगी और 81 वें संविधान संशोधन के साथ 12 सितम्बर, 1996 को एच.डी. देवगौड़ा की संयुक्त मोर्चा सरकार ने इस विधेयक को पहली बार लोकसभा में पेश किया, लेकिन 11वीं लोकसभा भंग होने के साथ ही यह विधेयक भी ठंडे बस्ते में चला गया। 84 वें संविधान संशोधन के साथ 26 जून, 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की प्रतिनिधित्व वाली राष्टीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने इसे दोबारा पेश किया, लेकिन 12वीं लोकसभा भंग होने के कारण यह विधेयक दोबारा लटक गया। 22 नवम्बर, 1999 को यह विधेयक तीसरी बार 13 वीं लोकसभा में फिर से राजग सरकार द्वारा पेश किया गया, परन्तु इस बार भी इस पर आम राय कायम न हो पाने के कारण यह पारित न हो सका। लेकिन इस बार पिछले वाकयों से सबक लेते हुए यूपीए सरकार ने विधेयक राज्यसभा में पेश किया, कारण कि लोकसभा भंग होने या फिर कार्यकाल समाप्त होने की स्थिति में भी इस विधेयक का वजूद बना रहे।

आजादी के बाद से ही विशेषकर संसद में भागीदारी के लिहाज से महिलाओं की स्थिति कभी अच्छी नहीं रही। 1952 में अस्तित्व में आयी पहली लोकसभा में महिलाओं का प्रतिशत 4.4 था और उसके बाद से वर्तमान चौदहवीं लोकसभा तक, यानी बीते छप्पन वर्षों में भी संसद में महिलाओं की भागीदारी का प्रतिशत दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाया। जबकि इसी अवधि में महिलाओं ने साक्षरता, शिक्षा, नौकरी, पैतृक सम्पत्ति में बराबरी का हक पाने के साथ ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी अपनी योग्यता सिद्घ की।

लोकसभा में महिलाओं की मौजूदा भागीदारी विश्र्वभर की महिला सांसदों के प्रतिशत का आधा भी नहीं है। “इण्टर पार्लियामेंटी यूनियन’ (आई.पी.यू.) की 31 मई, 2008 की ताजा रिपोर्ट के अनुसार केवल निचली सभा के विश्र्व में कुल 37,177 सांसदों में से 18.4 प्रतिशत यानि 6,828 महिला सांसद हैं। इसके अतिरिक्त एशिया क्या विश्र्व में एक विशिष्ट स्थान रखने वाले तथाकथित रूप से तेजी से विकसित हो रहे भारत देश की अगर पड़ोसी देशों से तुलना करें, तो पायेंगे कि वहां की संसदों में महिलाओं की भागीदारी हमारे देश से कहीं ज्यादा है। विश्र्व भर के महिला सांसदों की भागीदारी वाले 188 देशों की आई.पी.यू. द्वारा जारी ताजा सूची में भारत को 106 वां स्थान मिला है, जबकि नेपाल 13वें, अफगानिस्तान 27वें, पाकिस्तान 44वें, चीन 51वें तथा मालदीव 93वें स्थान पर हैं।

किसी भी भारतीय राजनीतिक दल की इसमें दिलचस्पी नहीं है कि संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़े या नहीं, उनका स्वार्थ तो केवल अपना वोट बैंक बढ़ाने में है। इसी कारण यह विधेयक आज तक लटका हुआ है। संसद में महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए, इस पर किसी पार्टी का खुले तौर पर तो कोई विरोध नहीं है, लेकिन सभी पार्टियां इस मुद्दे को भुनाकर अपना राजनीतिक हित साधने में लगी हुई हैं। कई पार्टियां हो सकता है यह सोचकर इस विधेयक की पुरजोर वकालत कर रही हैं कि इसको पारित करवाने से शायद उनके नम्बर बढ़ जायें। कुछ पार्टियां इस विधेयक में अपने हित साधक रद्दो-बदल करवाने पर अड़ी हुई हैं जिनमें प्रमुख हैं – राष्टीय जनता दल (राजद) और इसके पीछे-पीछे हैं समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा)। जहॉं एक ओर राजद की मांग है कि ओबीसी महिलाओं के लिए कोटे में कोटा होना चाहिए वहीं सपा का कहना है कि हम आरक्षण विरोधी नहीं हैं, हमारी मांग है कि दलित मुस्लिम महिलाओं को भी आरक्षण मिले। जबकि बसपा इस पक्ष में है कि अनुसूचित जाति व जनजाति के आरक्षण को नहीं छेड़ना चाहिए, प्रस्तावित एक तिहाई आरक्षण अलग से होना चाहिए। कोई भी राजनीतिक दल महिलाओं की राजनीति में भागीदारी को लेकर ईमानदार होता तो आज तक इन दलों ने एक तिहाई या फिर जिसकी जो या जितनी मांग है, उसके अनुसार महिलाओं को अपनी पार्टी से टिकट क्यों नहीं दिये? क्या कानून बनने के बाद ही वे ऐसा करेंगे? ये दल महिलाओं या फिर वर्ग विशेष की महिलाओं के लिए अपने राजनीतिक स्वार्थ हेतु मांग कुछ भी कर लें, किन्तु असलियत यही है कि सभी दल महिलाओं को टिकट देने के मामले में फिसड्डी ही हैं। गत लोकसभा चुनाव में कुछ प्रमुख दलों द्वारा महिलाओं को दिये गये टिकटों पर नजर डालें तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। कांग्रेस ने अपनी पार्टी द्वारा दिये गये कुल टिकटों में से 10.8 प्रतिशत, भाजपा ने 8.2, बसपा ने 4.6, सपा ने 10.1, राजद ने 2.4, जनता दल यू ने 4.1, सीपीआई ने 5.9 तथा सीपीएम ने 11.6 प्रतिशत टिकट महिलाओं को दिये। कमोबेश यही हाल विधानसभाओं का भी है।

सवाल यह उठता है कि एक तिहाई आरक्षण का आधार क्या है और एक तिहाई आरक्षण ही क्यों? अगर जनसंख्या को आधार बनाना है तो यह आरक्षण स्त्री-पुरुष अनुपात के हिसाब से होना चाहिए। साथ ही यह आरक्षण केवल लोकसभा और विधानसभाओं में ही क्यों? इसके साथ ही इसका प्रावधान राज्यसभा और विधान परिषदों में भी होना चाहिए। कुछ लोगों का मानना है कि जबकि स्त्री-पुरुष दोनों को बराबर संवैधानिक अधिकार दिये गये हैं, तो यह आरक्षण किसलिये? क्या यह महिलाओं को कमजोर करने के साथ ही देश और समाज को बांटना नहीं हुआ। कभी जाति और धर्म के नाम पर, कभी राजनीति के नाम पर और अब महिला और पुरुष के नाम पर। इससे महिला और पुरुष के बीच की खाई पटने के बजाय कहीं और बढ़ तो नहीं जायेगी, हम लैंगिक टकराव की ओर तो नहीं बढ़ रहे। महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने या फिर महिलाओं से जुड़े मुद्दों को संसद में उठाने के लिए ऐसे ठोस प्रावधान होने चाहिए कि अगर सांसद पुरुष हैं तो वह भी महिलाओं से जुड़े मुद्दों को पूरी गम्भीरता से लें। अगर संसद में महिलाओं के लिए महिला प्रतिनिधि, पुरुषों के लिए पुरुष प्रतिनिधि और सभी जाति-धर्म और वर्गों के लिए अपने-अपने प्रतिनिधि की मांग होने लगी तो यह सिलसिला बहुत लम्बा हो जायेगा। और यह किसी समस्या का समाधान न होकर खुद ही एक समस्या बन जायेगी।

जो दल आज एक तिहाई आरक्षण या फिर ओबीसी, एस.सी., एस.टी. और दलित मुस्लिम महिलाओं के आरक्षण की वकालत कर रहे हैं, अगर वे सचमुच चाहते हैं कि संसद में इन महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़े तो स्वयं उनको पहल करनी चाहिए। अगर उनका मानना है कि ऐसा होना चाहिए तो कानून बने या न बने, हर हाल में उन्हें अपनी मांग के अनुसार महिलाओं को अपनी पार्टी से टिकट देना ही चाहिए। इसके अतिरिक्त समय की मांग के अनुसार संविधान में संशोधन और प्रावधान होने चाहिए न कि राजनीतिक हित के लिए। और ये प्रावधान तभी तक होने चाहिए जब तक वास्तव में उसकी आवश्यकता है। केवल राजनीतिक हित साधने के लिए बार-बार इनकी समयावधि नहीं बढ़ाते रहना चाहिए। यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि संसद की स्थायी समिति के पास संशोधन के लिए लम्बित इस विधेयक का क्या हश्र होता है, परन्तु इतना तो तय है कि महिलायें संसद में अपने आप आयें या आरक्षण द्वारा, इस बात से किसी को इंकार नहीं कि संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ना ही चाहिए।

 

– राजीव श्रीवास्तव

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