सितम्बर आते ही मुझे हिन्दी की चिन्ता सताने लगती है। बेचारी राष्ट-भाषा होते हुए भी पिछड़ी हुई है। हर कोई आंग्ल-भाषा में गिटर-पिटर करना चाहता है। इस बेचारी से बिना दहेज लाई दुल्हन-सा व्यवहार किया जाता है और अंग्रेजी को शादी में खूब दहेज लाई दुल्हन की तरह सिर-आँखों पर बिठाया जाता है। इसका अन्दा़जा इसी से लगाया जा सकता है कि हर कोई अपने बच्चे को “कॉन्वेंट’ में पढ़ाना चाहता है, चाहे इसके लिए उधार मॉंग कर ही अपने बच्चे की फीस क्यों न जमा करवानी पड़े। “कॉन्वेंट’ चलाने वाले भी खूब चांदी कूट रहे हैं। लोगों की मानसिकता को भांपते हुए “डोनेशन’ और दूसरे फंडों के नाम पर उनकी जेब काट रहे हैं और लोग भी अपनी जेब कटवाने के पश्र्चात् अपने आपको गर्वित अनुभव करते हैं। जो जेब कटवाने की हालत में नहीं होते, वे अपने आपको पिछड़ा हुआ मानते हैं और सरकारी विद्यालय में अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए अपने आपको कोसते रहते हैं।
सरकारी कार्यालयों में भी हिन्दी की कुछ ऐसी ही दुर्दशा है। संविधान में इसे पटरानी का द़र्जा दिए जाने के बावजूद इससे दासी-सा व्यवहार किया जाता है। सरकार स्वयंं अंग्रेजी में फरमान जारी करती है कि सरकारी कामकाज को राष्ट-भाषा यानी हिन्दी में किया जाये। हर वर्ष हिन्दी में काम करने की प्रतिशतता निश्र्चित करती है, अनेक प्रोत्साहन योजनाएँ लागू करती है। आंकड़ों और प्रोत्साहनों से लगता है कि हिन्दी काफी प्रगति पर है, लेकिन अगर वास्तविकता पर जाया जाये तो कोई दूसरी तस्वीर ही सामने आती है। दूसरे क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी जम कर आंकड़ों से खिलवाड़ किया जाता है। आँकड़ों से खिलवाड़ करना हमारा राष्टीय धर्म है।
सरकारी नौकरी में होते हुए मैं स्वयं भी ऐसी ही मानसिकता का शिकार रहा हूँ। सितम्बर आने से पूर्व ही हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए अपने आपको तैयार करने लगता हूँ। सितम्बर आते ही बड़े अधिकारियों के आदेश भी जारी होते हैं कि हिन्दी को मात्र कागजों में ही पटरानी न रहने दें, बल्कि वास्तविक आदर भी प्रदान करें। इस उपलक्ष्य में इस मास में कार्यालयों में बैठकों का आयोजन भी बड़े सुनियोजित ढंग से होता है। हर स्तर पर बैठकें बुलाई जाती हैं, हिन्दी में काम करने के आदेश जारी होते हैं और कार्यालयों की दीवारों पर हिन्दी में स्लोगन चिपकाये जाते हैं। अभी कुछ ही दिनों पहले की बात है जब हिन्दी को समृद्घ करने के लिए बुलाई गई एक बैठक का शुभारम्भ कोल्ड-डिंक से हुआ और समापन काजू और पेस्टी के साथ चाय-पान से हुआ। तीन दिनों तक भाषण-प्रतियोगिता, सुलेख-प्रतियोगिता और कवि-गोष्ठी आदि जैसी परम्परागत आइटमें पेश की गईं। इन सब के प्रारम्भ में एक विशिष्ट अतिथि का भाषण और समापन पर अच्छा जलपान इन कार्यामों की विशेषता रही। पुरस्कार वितरण-समारोह तो और भी दिल-लुभावना रहा। हिन्दी में अच्छा काम करने का पुरस्कार उन कर्मचारियों को मिला जो काम तो अंग्रेजी में करते रहे लेकिन उनके आंकड़े हिन्दी के खाते में डालते रहे। पुरस्कार पाने की चमक उनके चेहरों की शोभा बढ़ा रही थी और वास्तव में हिन्दी में काम करने वालों की हालत पिटे हुए जुआरी की तरह अपनी गाथा कह रही थी।
सितम्बर में आयोजित हिन्दी पखवाड़े का कुल मिलाकर हमें यह लाभ रहता है कि एक वर्ष तक हिन्दी को बढ़ावा देने की चिन्ता से मुक्ति मिल जाती है। आगामी सितम्बर तक मुँह में काजू-बर्फी की मिठास बनी रहती है।
– राजेंद्र निशेश
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