“”यह वही जमीन है, जिसे पाने के लिए पिताजी, जिन्हें हम प्यार से दादा कहते थे और हमारी पट्टी के बड़के दादा, जो हमारे खास पाटीदार थे, दोनों ने कमिश्र्न्नरी तक मुकदमा लड़ा था। जिस दिन मुकदमे की तारीख पड़ती थी, उससे दो दिन पहले ये दोनों अल-सुबह चिड़ियॉं चहकने से पहले ही घर से भूजा और भेली लेकर निकल पड़ते थे और बीस कोस दूर पैदल चल कर नवाबगंज बाजार पहुँचते थे। थकान से चूर होकर रात में वहीं रुक जाते थे। उसके बाद फिर पैदल चल कर अगली रात कटरा में बिता कर कमिश्र्नरी पहुँचते थे और इसी तरह ही दोनों की वापसी भी होती थी।” कहकर बड़े भैया रोने लगे।
मैंने सहजता से उनकी आँखों की ओर देखा, उनके अन्तर्मन में छुपे असीम पैतृकता के भाव को महसूस कर उस जमीन के लिए स्वयं द्वारा बुलाये गये ग्राहक को वापस भेज दिया। इसके बाद ही भैया स्वयं को कुछ नियंत्रित और संयत कर पाये।
भैया ने हमारे घर की वह गरीबी देखी थी, जिसमें सवां, कोदो, ज्वार, बाजरा और मसूर के सिवा खाने के लिए कुछ भी नहीं होता था। खेत भी जो पाटीदारों से बंटवाने के बाद हिस्से में मिला था, वह भी इतना कम था कि कुछ और पैदा करने के लिए जगह ही नहीं बचती थी। कभी-कभी कई दिनों तक हमें तरकारी देखने को भी नहीं मिलती थी, खाने की बात तो दूर थी।
पता नहीं क्यों, जब कभी मुझे अपने बुजुर्गों के त्याग और तपस्या के संस्मरण सुनने के अवसर मिलते हैं, तो मेरा मन भावुक हो जाता है, आँखें भीग जाती हैं और मैं अपने को संसार के सबसे गरीब, उपेक्षित और सर्वहारावर्गी व्यक्ति से भी अधिक असहाय महसूस करने लगता हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ कि मैं अगर गरीब ही रहता तो कम से कम अपने दादा की तरह अपने बच्चों के लिए बहुत कुछ कर सकता था, जितना आज सर्वसाधन सम्पन्न होकर भी नहीं कर पा रहा हूं।
दादा ने क्या कुछ नहीं किया, हम तीनों भाइयों के लिए। गॉंव में सबसे आगे चारों ओर से आने-जाने के लिए रास्ते वाला घर। घर के सामने और बायें आठ बीघे का चा, उसके बगल और आगे कई फलों वाला बाग, कई सारे खेत। सभी बड़े बैंकों में खाते और ढेर सारा रुपया, चॉंदी, सोना और इन सबके साथ-साथ तीन ऐसे लड़के, जिनका पूरे इलाके में बराबरी करने वाला शायद अभी तक कोई नहीं।
सभी के लिए दादा चाहे जैसे रहे हों, मगर मेरे लिए तो उनसे प्यारा कोई नहीं रहा। मुझे याद है, दादा ने कभी मुझे पढ़ने के लिए नहीं कहा। मुझे यह भी याद है कि दादा ने मुझे कभी नहीं मारा। मुझे यह भी याद है कि दादा के जीवित रहते हुए कभी मैं उनसे अलग नहीं सोया। मुझे यह भी याद है कि दादा ने हमेशा मेरी पसंद का ही कपड़ा मुझे पहनाया। मुझे यह भी याद है कि अपनी मर्जी से शादी करने पर भी दादा ने मेरा विरोध नहीं किया। इतना सहयोगी तो एक अच्छा दोस्त भी नहीं हो सकता, लेकिन दादा मेरे लिए एक अच्छे दोस्त के समान थे। मैं तो यही कहूँगा कि दादा मेरे लिए दोस्त से बढ़कर ही थे, तभी तो मेरी बुराइयों पर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया, बल्कि मेरी गलतियों को हमेशा माफ करते रहे।
जब मैं शहर से स्कूल की छुट्टी होने पर घर आता तो दादा अपना सारा काम छोड़कर मेरे साथ दिन भर रहते। मुझे अपनी थाली में खाना खिलाते और सारी रात बातें किया करते। दादा से मेरा रिश्ता आदर्श पिता और बेटे का ही नहीं बल्कि दुनिया के सारे रिश्तों का रिश्ता था, जिसे मैं उनके न रहने पर ही जान पाया।
दादा की यादों से मेरे भावुक मन को थोड़ी राहत जरूर मिल गयी थी, किन्तु उनसे संबंधित अन्य अज्ञात प्रसंगों की शेष जानकारी पाने के लिए मैं अब भी बेचैन था। इसी बेचैनी के कारण मैंने बड़े भैया से अपनी दूसरी जमीन के बारे में जानना चाहा, तो उन्होंने अगले दिन बताने का बहाना करके टाल दिया। मैं सोचने लगा कि क्या इस जमीन की कहानी और ज्यादा भयावह है या कि आज भैया ज्यादा रोये हैं, इसलिए मन को थोड़ा आराम देने के लिए कल पर टाल गये हैं। यही सोचकर मैं रात भर नहीं सो सका।
सुबह उठा, तो भैया के इर्द-गिर्द लगा रहा कि शायद उन्हें कल की बात याद आ जाये और उसके बारे में वह खुद ही बता दें, किन्तु सुबह से शाम हो गयी और रात भी होने को आयी तब भी उन्होंने नहीं बताया तो मैंने हिम्मत करके उनसे फिर पूछा। अब की बार का जवाब सुनकर मेरा कलेजा मुँह को आ गया। इस बार उन्होंने बताया कि इस बाग वाली जमीन को छोटी बुआ की शादी में एक पाटीदार के हाथ चौदह सौ रुपये पर गिरवी रखना पड़ा था, तब जाकर दादा इज्जत से बुआ को अपने घर से विदा कर पाये थे।
“”क्या तब बाबा, जिन्हें सब दादू कहते थे, वह जिन्दा नहीं थे?” मैंने आश्र्चर्यचकित होकर बड़े भैया से पूछा। “”हॉं, बुआ की शादी में देने के लिए रखे जेवर और पैसे दादू की फॉलिज की बीमारी मेंे खर्च हो चुके थे। बुआ की शादी की तारीख दादू तय कर चुके थे और शादी होने के बाईस दिन पहले ही वे चल बसे थे, इसलिए इस शादी का बोझ दादा को उतारना था। उनके लिए अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने हेतु यह जरूरी भी था। जब दादू गुजरे, तब दादा की उम्र कुल पन्द्रह साल की थी। उन दिनों हमारे घर में गरीबी का कड़ा इम्तिहान चल रहा था। दादी भी बीमार रहती थीं। उनका भी अब-तब लगा था। पैसा तो कहीं से आता नहीं था और एक-एक कर घर के सारे कीमती सामान भी औने-पौने दामों पर बिकते जा रहे थे। केवल बाग वाली जमीन ही बच पायी थी, जिसके भरोसे दादा जिन्दा थे और पाटीदार भी इसी जमीन पर दांत गड़ाये थे कि यह कब बिके और वह कब खरीदें।
जब बुआ की शादी को तीन दिन शेष रह गये तो मुखिया बाबा ने दादा से पूछा कि तुमने कुछ इन्तजाम किया भी की नहीं? उनकी बात सुनकर दादा रोने लगे थे, कोई जवाब नहीं दे सके थे। मुखिया बाबा ने दादा को चौदह सौ रुपये उस जमीन को दो साल के लिए अपने पास रेहन रखने के बदले में सादे कागज पर अंगूठा लगवा कर दिये थे और कागज अपने पास रख लिये थे। तब जाकर किसी तरह बुआ की शादी कर पाये थे, दादा। इस जमीन को गिरवी रखने की बात दादा और मुखिया बाबा के अलावा किसी को भी पता नहीं थी। डेढ़ महीने बाद जब दादी उस रेहन वाली जमीन में लगी गेहूं की फसल काटने गयीं, तो मुखिया ने दादी को रोक कर कहा, “”तुम इस खेत में क्या करने आयी हो, यह खेत अब हमारा है। इसे तुम्हारा लड़का गिरवी रख चुका है।” इतना सुनते ही दादी अचेत होकर उसी खेत में गिर पड़ीं और उसी समय उन्होंने दम तोड़ दिया।
अब दादा के सामने कंगाली में आटा गीला जैसी स्थिति मुँह बाये खड़ी थी। किसी तरह नाते-रिश्तेदारों की मदद से दादी का िाया-कर्म कर दादा फुर्सत पा सके थे। पन्द्रह साल की ही उम्र में दादा के सामने इतनी बड़ी-बड़ी चुनौतियॉं आ चुकी थीं और दादा लोहे की तरह तप चुके थे। अब उनके सिर पर अपनी दो बहनों की शादी और एक छोटे भाई के भरण-पोषण के दायित्व का बोझ भी चुनौती बनकर सामने खड़ा था। दादा अभी तक अविवाहित थे। अतः उन्होंने लाहौर, कराची, मुम्बई, लुधियाना आदि जगहों में पैसे कमाने का प्रयास किया, मगर उनकी दाल कहीं नहीं गली तो चार महीने बाद अपने वतन आ गये और तीन कोस पर स्थित बाजार में एक बनिये के यहॉं गल्ले की दुकान पर नौकरी करने लगे। सुबह सात बजे बिना कुछ खाये-पीये ही निकल जाते और दोपहर में एक बजे जब ताबड़तोड़ मेहनत करने के बाद उन्हें एक खुराक खाना मिलता तो उसमें से चाचा, जिन्हें हम बप्पा कहते थे, को भी खिलाते, क्योंकि उस समय बप्पा वर्नाकुलर की पढ़ाई कर रहे थे।
इसी आधे पेट भोजन और चार आने रोज की मजदूरी पर दादा ने अपनी दोनों बहनों की शादी की। अब घर में दादा और बप्पा के अलावा कोई नहीं बचा था, जो खाना-पानी दे सके और घर की रखवाली कर सके। एक-दो खास रिश्तेदारों के जोर-दबाव से दादा की शादी भी हो गयी।
दादा की शादी के बाद धीरे-धीरे हमारे घर के दरवाजे से हमेशा दूर रहने वाली मॉं लक्ष्मी का आगमन होने लगा। अम्मा पॉंच भाई और पॉंच बहनों में सबसे छोटी थीं। इसीलिए दुलारी भी थीं। अम्मा के आने के बाद एक मामा और उनके लड़के, जिन्हें हम मामा वाले भैया कहते थे, हमारे घर में रहकर खेती-बाड़ी सम्हालने लगेे। उन दिनों हमारे पास बैल भी नहीं थे, इसलिए बैल भी मामा अपने साथ लाते और जी तोड़ मेहनत करके रिश्तेदारी का फर्ज निभाते थे। अब दादा कुछ निश्र्चिन्त हो गये थे और गॉंव के पास की नदी के घाट का ठेका जो हमेशा दादू के ही नाम रहता था, को पुनः अपने नाम लेने के लिए लगातार कोशिश करने लगे थे। इस बार ईश्र्वर ने उनकी प्रार्थना सुन ली थी और वह ठेका पाकर बहुत खुश हुए थे। ठेका मिलने के तीन माह बाद मैं पैदा हुआ। इसके बाद तो दादा ने कितना पैसा कमाया, कितनी इज्जत कमायी और कितने बड़े-बड़े काम कर डाले तुम जानते ही हो।” इतना कहकर भैया सो गये और मेरी भी आँख लग गयी।
– डॉ. अशोक पाण्डेय “गुलशन’
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