रंजिश ही सही दिल को दुःखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
कुछ तो मेरे पिन्दारे मुहब्बत का भरम रख
तू भी कभी मुझ को मनाने के लिए आ
किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफ़ा है तो जमाने के लिए आ
किसी भी तरह, कोई भी सूरत हो, अपने महबूब को बुलाने की ़िजद पर अड़ा यह शायर हमसे बिछड़ गया। सारी दुनिया जिसे अहमद फ़रा़ज के नाम से जानती है, जिसने प्यार किया, ब़गावत की और उस एहसास को जस का तस बांटकर चल बसा। गु़जरी आधी सदी में सारी उर्दू-हिन्दी दुनिया में, बल्कि जिस जबान में भी शायरी को पढ़ा, सुना और समझा जाता है, फरा़ज को पसंद किया गया। उनका गु़जर जाना, उनके चाहने वालों के लिए दुःखद पल रहा।
लोग फ़रा़ज साहब की रूमानी ग़जलों के दीवाने हैं। यह शायर जिन हालातों से गुजरा है, उन्हीं को शायरी के रस में घोल कर अपने चाहने वालों तक पहुंचाया और लोग वाह-वाह कर उठे। शायद इसीलिए उन्होंने कहा-
मैं दुःखते हुए दिलों का ईसा
और जिस्म लहू-लुहान मेरा
कुछ रौशनी शहर को मिली
जलता है जले मकान मेरा
फ़रा़ज साहब की ग़जलेें मैंने ज्यादातर रेडियो से मेहंदी हसन, ़गुलाम अली और जगजीत सिंह की आवा़ज में सुन रखीं थीं। उन्हें पहली बार देखने और सुनने का मौ़का हैदराबाद में कुतुबशाही गुम्बदों में मिला, जब वे एक मुशायरे में भाग लेने के लिए यहॉं आये थे। वरिष्ठ और मेहमान शायर होने के नाते उनका नम्बर सबसे आखिर में था और लोग ह़जारों की संख्या में उन्हें सुनने के लिए दम साधे बैठे हुए थे। वे देर तक सुनाते रहे। कई ग़जलें फर्माइश से सुनीं गयीं और इसी बीच उन्होंने जब अपनी सबसे लंबी ग़जल सुनाई, तो समां बंध गया था। उनका सुनाने का अंदा़ज और मुकर्रर की आवा़ज, जैसे कुतुबशाही गुम्बदें गूंज उठीं थी। उस मुशायरे की नोटबुक खोल कर पढ़ता हूँ तो उनका चेहरा आँखों में घूम जाता है। वो एक-एक शेर सुंदरता और प्रेम का बखान था। कल्पना और वास्तविकता के बीच एक नये संसार का निर्माण फ़रा़ज ही कर सकते हैं।
प्रिय को बुरे हालात से हमदर्दी है, तो अपने आपको बर्बाद करके देखें, उसको शायरी पसंद है तो चलो, अपना हुनर आ़जमा के देखें।
रूप कुछ ऐसा है कि रात में चांद उसको तकता रहता है
और तारे आसमान से नीचे उतरकर देखते हैं।
उसकी आँखें जिसे हिरन आ-आ कर देखते हैं, उन आँखों की कालिमा को सुरमा बेचने वाले आह भरकर देखते हैं।
शरीर की तराश कुछ ऐसी है कि फूल अपने वस्त्र कतर के देखते हैं।
सुना है लोग उसे आँख भर कर देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ देर ठहर कर देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं
सुना हैं दिन में उसे तितलियॉं सताती हैं
सुना है रात को जुगनु ठहर कर देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इल़्जाम धर कर देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको जमाने ठहर कर देखते हैं
पांच-दस नहीं, बल्कि पूरे 22 शेर इस ़खूबसूरत ़ग़जल की माला में उन्होंने पिरोये थे। इस ग़जल को लोग सुनते रहे थे और खो से गये थे, उस प्रिय की कल्पनाओं में। अपनी शायरी से फरा़ज ने सम्मान भी उतना ही पाया और दुःख भी उतने ही झेले। उनकी रूमानी ग़जलों ने जहॉं उनके लाखों मुरीद बनाए, वहीं उनके बा़गी तेवरों के कारण उन्हें लंबे समय तक काली कोठरी में बंद पड़े रहकर पाकिस्तान की मिलिटरी सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा। कई साल तक देश से बाहर रहना पड़ा। आ़जादी के जश्न पर लिखी गयी उनकी ऩज्म में उनके बा़गी तेवर भला पाकिस्तानी सरकार कैसे बर्दाश्त करती।
अब किसका जश्न मनाते हो, उस देश का जो त़कसीम हुआ
अब किसके गीत सुनाते हो, उस तन-मन का जो दो नीम हुआ
उस ़ख्वाब का जो रे़जा-रे़जा उन आँखों की त़कदीर हुआ
उस नाम का जो टुकड़ा-टुकड़ा गलियों में बेतौ़कीर हुआ
उस परचम का जिसकी हुरमत बा़जारों में नीलाम हुई
उस मिट्टी का जिसकी हुरमत मनसूब उदू के नाम हुई
जनता को ़जुल्म के नाम पर जितने भी जख्म दिये जा सकते थे, उन सबका उल्लेख उन्होंने अपनी इस ऩज्म में किया और खुल कर किया। उन्हें इसका डर नहीं रहा कि इससे उनके खिलाफ कुछ भी किया जा सकता है। जेल में काटे उस दौर का उल्लेख करते हुए के कहा था कि कई दिन तक उन्हें खाना देने वाले के सिर्फ हाथ ही देख पाये। जुल्म के एक लंबे सिलसिले को उन्होंने सहा, लेकिन जुल्म के आगे सिर नहीं झुकाया। हालांकि वे पाकिस्तान के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किये गये और साहित्य से जुडी दो बड़ी संस्थाओं के अध्यक्ष रहे, लेकिन वहॉं की फौ़जी सरकार ने उनकी आवा़ज दबाने के लिए अत्याचार भी कम नहीं किये।
कहते हैं ख्वाब तो रोशनी है, नवा है, हवा है
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
जुल्म के दो़ज़ख से फुंकते नहीं
रोशनी और नवा और हवा के ़कलम
म़कतलों में पहुंच कर भी झुकते नहीं
अहमद फ़रा़ज का जन्म 14 जनवरी, 1931 को पश्तुन इला़के के कोहाट में हुआ। उनकी शायरी का प्रारंभ एक दिलचस्प घटना से हुआ, जब घर में सब बच्चों के लिए पिता ने ईद पर कपड़े खरीदे तो फरा़ज को वह पसंद नहीं आये और उन्होंने विरोध जताने के लिए कुछ यूँ कहा था-
लाये हैं सबके लिए कपड़े सेल से
लाये हैं हमारे लिए कंबल जेल से
फारसी और उर्दू में उच्च शिक्षा के बाद वे पेशावर में प्राध्यापक बन गये। अपने दौर के विख्यात शायर फ़ै़ज अहमद फ़ै़ज एवं अली सरदार जाफरी से प्रभावित रहे। उनके बारे में कहा जाता है कि वे अपने कॉलेज के दौर से ही शेर कहने के लिए काफी मशहूर थे। अपनी शायरी में उन्होंने आम लोगों के दुःख-दर्द, हॅंसी-खुशी, राग-विराग को ही अभिव्यक्त किया।
अपनी शायरी के बारे में उन्होंने कहा था, “”जिस शायरी को मैंने अपने ज़ज्बात के इ़ज्हार का वसीला बनाया था, उसमें मेरे पढ़ने वाले को अपनी कहानी ऩजर आयी। यही वजह है कि दुनिया की जहॉं-जहॉं भी इन्सानी बस्तियॉं हैं, वहॉं मेरी शायरी पढ़ी जाती है।’ ़ग़जलें सुनाता, हंसाता, गुदगुदाता, रुलाता, खामोश करता वह श़ख्स फिर वापिस ना आने के लिए हमेशा के लिए चला गया।
किसी और देश की ओर को सुना है “फरा़ज’ चला गया
सभी दुःख समेट के शहर के सभी क़र्ज उतार के शहर का…।
– एफ. एम. सलीम
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