रो़जगार पर संयुक्त राष्ट की खामोशी

संयुक्त राष्ट संघ द्वारा संयुक्त राष्ट विकास संस्था स्थापित की गयी है। संस्था का उद्देश्य गरीब देशों के लिए कार्य करना है। संस्था ने हाल में “सबके लिए लाभ : गरीबों के साथ व्यापार करने की नीति’ नाम से रपट प्रकाशित की है। रपट का मूल भाव यह है कि गरीबों के साथ व्यापार, गरीब और अमीर दोनों के लिए हितकारी है। यह सोच भ्रामक प्रतीत होती है। इतना अवश्य है कि विशेष प्रकार के उद्योगों से गरीब की आय बढ़ती है। किंतु गरीबी की मौलिक समस्या का इससे समाधान नहीं होता है। ऩजारा यह है कि गरीबों की स्थिति पूर्ववत् बनी हुई है और करोड़पतियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

मूल समस्या यह है कि उत्पादन में श्रम और पूंजी के बीच बदलाव हो सकता है। जैसे श्रम सस्ता हो तो उद्यमी सौ हथकरघे लगायेगा जबकि पूंजी सस्ती हो तो वह एक सुजलर लूम से उतना ही उत्पादन कर लेगा। आर्थिक विकास का सहज परिणाम होता है कि पूंजी सस्ती हो जाती है। जैसे भारत में पूर्व में ब्याज दर 18-20 प्रतिशत थी जो अब 10 से 13 प्रतिशत के बीच रहती है। पूंजी सस्ती होने से उद्यमी मशीनों का उपयोग अधिक और श्रम का कम करता है। फलस्वरूप संगठित क्षेत्र में रोजगार का ह्रास होता है। रोजगार के सिकुड़ते अवसरों के कारण श्रमिक को जीवनयापन के लिए अपना मूल्य कम करना पड़ता है। जैसे ब्याज दर 20 प्रतिशत से घटकर 13 प्रतिशत हो जाये तो श्रमिक को रोजगार बचाने के लिए अपनी मजदूरी 200 से घटाकर 130 रुपये करना होगा। यदि पूंजी सस्ती हो जायेगी और श्रम का मूल्य 200 रुपये पर टिका रहेगा तो उद्यमी पावरलूम से उत्पादन करेगा। यह बाजार का सहज सिद्घांत है।

इस विकट परिस्थिति से छुटकारा पाने का सीधा उपाय है कि पूंजी पर टैक्स अथवा प्रतिबंध लगा दिया जाये। मसलन, सरकार पावरलूम पर टैक्स लगा सकती है। कुछ समय पूर्व तक चिह्नित क्षेत्रों को छोटे उद्योगों के लिए आरक्षित किया गया था। टैक्स लगाने से पूंजी महंगी हो जाती है और तदनुसार श्रम का उपयोग लाभकारी हो जाता है। ़जाहिर है कि बाजार को जंगली घोड़ों की तरह खुला छोड़ दिया जाये तो वह श्रम को पददलित कर देगा क्योंकि आर्थिक विकास की प्रिाया में पूंजी स्वतः ही सस्ती हो जाती है। अतः सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वह बाजार पर प्रतिबंध लगाये ताकि पूंजी द्वारा श्रम पददलित न किया जा सके। इस बात को संयुक्त राष्ट संस्था ने दबी जुबान से स्वीकार किया है। रपट के प्रारंभ में संस्था के प्रमुख लिखते हैं, “सरकार को पुनर्वितरण करना होगा क्योंकि बाजार की गति स्वीकार्य नहीं है।’ इस उद्गार के बाद अपेक्षा की जाती है कि संस्था विकासशील देशों को बताएगी कि बाजार के जंगली घोड़े पर लगाम कैसे कसी जाए।

आश्र्चर्य है कि संस्था अपनी शेष रपट में ऐसा एक भी सुझाव नहीं देती है। बल्कि बाजार की चाल को पूर्णतया स्वीकारते हुए उसमें गरीब को फेंके गये रोटी के जो एकाध टुकड़े मिल जाते हैं उनको महिमामंडित करती है। जैसे पावरलूम में झाडू लगाने में उत्पन्न हो रहे रोजगारों को महान उपलब्धि बताया जाए। दक्षिण आीका की अमाज अबन्दु कंपनी ने पूर्वी केप क्षेत्र में पाइप के माध्यम से साफ पानी को गरीब कॉलोनियों में पहुँचाया। लोग प्री-पेड कार्ड से इस पानी को प्राप्त कर सकते थे। महिलाओं को अब नदी से पानी लाने के लिए घंटों मशक्कत नहीं करनी पड़ती है। यह प्रयास निश्र्चित रूप से सराहनीय है। परन्तु इससे आय तथा रोजगार की समस्या नहीं हल होती है। दक्षिण आीका में 25 प्रतिशत लोग बेरो़जगार हैं। मैं समझता हूँ कि बेरो़जगार महिलाओं के लिए प्री-पेड कार्ड खरीदना कठिन होगा। नदी तक पैदल जाने में उनके श्रम की बचत हुई, वह उनके लिए अनुपयोगी होगी क्योंकि बेरोजगारी पहले ही व्याप्त है। विकास संस्था को चाहिए था कि बाजार एवं पूंजी के आतंक से बढ़ रही बेरो़जगारी पर लगाम लगाने के लिए उपाय बताती, किन्तु यह प्रिाया बड़ी कंपनियों के लिए हितकारी नहीं साबित होती। फलस्वरूप संस्था रोजगार सृजन पर खामोश है और प्री-पेड पानी को महान उपलब्धि बता रही है।

कांगों में सेलटेल कंपनी ने 20 लाख गरीब लोगों को मोबाइल फोन उपलब्ध कराये। सहयोगी सेलप्ले कंपनी ने छोटे ऋण दिये। विकास संस्था ने कहा है कि लोगों को यह नकद मिलने से आर्थिक विकास होगा। बात कुछ कम जमी। अपने देश में तमाम स्वयं सहायता समूह बनाये गये हैं परन्तु गरीबी कम हुई हो, ऐसा नहीं दिखता। कारण यह है कि गरीब द्वारा उत्पादित माल की मांग नहीं है। मसलन, किसी गरीब ने ऋण लेकर भैंस खरीदी। परन्तु आधुनिक डेयरी द्वारा दूध की सप्लाई कम मूल्य पर की जा रही हो तो उसे दूध सस्ता बेचना पड़ता है और घाटा लगता है। जिस प्रकार सूरत के पावरलूम के सस्ते कपड़ों ने पूरे देश के जुलाहों की जीविका हर ली, उसी प्रकार दूसरी फैक्टरियों ने दूध, गलीचे, बिस्कुट आदि की। ऐसे में ऋण लेने वाला ऋण के बोझ से दबता जाता है। विकास संस्था गरीब द्वारा उत्पादित माल की मांग बढ़ाने की बात नहीं करती है क्योंकि ऐसा करने के लिए बड़ी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाना पड़ेगा। गरीब को ऋण के दलदल में धकेलने को विकास बताया जा रहा है।

केन्या में वेलनेस नाम से सस्ती दवाओं की दुकानों की श्रृंखला खोली गयी है। निश्र्चित रूप से यह सुखदायी है। परंतु सस्ती बस, सस्ती पेंसिल-कापी, सस्ते विद्यालय, सस्ता मिट्टी का तेल, सस्ता कपड़ा इन तमाम वस्तुओं से गरीब का उद्घार होता नहीं देखा गया है। कारण यह कि इन वस्तुओं के सस्ता होने के साथ-साथ उसके श्रम का मूल्य भी सस्ता हो जाता है। अंत में गरीब की पुरानी दुर्दशा बनी रहती है। सस्ती दवा, सस्ते मिट्टी के तेल का महत्व है किन्तु यह फायर फायटिंग सरीखे हैं। मूल ़जरूरत श्रम की मांग बढ़ाने की है जिस पर विकास संस्था चुप है।

गिनी में बहुराष्टीय कंपनी ााफ्ट फूड्स ने किसानों को उन्नत किस्म के काजू उत्पन्न करने में मदद की है। मेरी दृष्टि से ऐसा विकास भ्रामक होता है। उदाहरणतः अमेरिकी कंपनी वालमार्ट द्वारा चीन में खिलौनों, कपड़ों, फर्नीचर आदि का भारी मात्रा में उत्पादन कराया जा रहा है। परंतु इस उत्पादन का चीन के लोगों पर प्रभाव को लेकर संदेह बना हुआ है। गलम्बर्ट ब्लॉग पर एक टिप्पणीकार ने लिखा- “वालमार्ट दो रोजगार उत्पन्न करने में तीन का भक्षण करता है। नेशनल लेबल कमेटी के अनुसार वालमार्ट चीन में वेतन में गिरावट ला रहा है। चीन में न्यूनतम वेतन 31 सेंट प्रति घंटे से घटकर 13 सेंट प्रति घंटा रह गया है।’ ााफ्ट कंपनी द्वारा गिनी में काजू का उत्पादन इससे भिन्न नहीं होगा।

संयुक्त राष्ट जैसी संस्थाओं को समझना चाहिए कि बाजार में पूंजी के मूल्य गिरने के साथ-साथ श्रम के मूल्य में गिरावट आना अनिवार्य है। श्रमिक की आय में गिरावट के बावजूद दक्षिण आीक में प्री-पेड पानी, कांगो में ऋण, केन्या में सस्ती दवा एवं गिनी में काजू का उत्पादन सार्थक है। परंतु इनकी सार्थकता अति सीमित है, जैसे भूख से मर रहे व्यक्ति के लिए साफ-सुथरे फुटपाथ की सार्थकता सीमित है। हमें संयुक्त राष्ट के गरीबी उन्मूलन के इन भ्रामक मंत्रों से बचना चाहिए और पूंजी पर अंकुश लगा कर श्रम को मौलिक राहत देनी चाहिए। रोजगार सृजन की पारदर्शी नीति बनानी चाहिए।

– डॉ. भरत झुनझुनवाला

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