लिखे ईसा, पढ़े मूसा

एक गॉंव में एक मजदूर रहता था। एक बार उसे अपने गॉंव में मजदूरी नहीं मिली तो वह दूसरे गॉंव में मजदूरी करने लगा। उस गॉंव में मजदूरी करते-करते उसे बहुत दिन बीत गए। उसने सोचा – मैं तो यहॉं ठीक हूँ लेकिन मेरी घरवाली और बच्चे वहॉं परेशान होंगे। अब मुझे अपने घरवालों को पत्र लिख देना चाहिए। पर पत्र लिखूँ तो कैसे लिखूँ? पढ़ा-लिखा तो हूँ नहीं।

एक रोज वह गॉंव के एक पढ़े-लिखे आदमी के पास गया। वह उससे बोला, “”मुंशी जी, मैंने सुना है कि गॉंव के सभी लोगों के आप ही पत्र लिखते हैं।”

मुंशी बोला, “”तुमने ठीक ही सुना है। सारे गॉंव के लोग मुझसे ही पत्र लिखवाते हैं।”

मजदूर ने कहा, “”एक पत्र मेरे लिए भी लिख दीजिए।”

मुंशी, “”मेरे पॉंव में दर्द है। मैं तुम्हारी चिट्ठी नहीं लिख सकता।”

मजदूर, “”मुंशी जी, चिट्ठी तो हाथ से लिखी जाती है?”

मुंशी, “”हॉं, तुम ठीक कह रहे हो।”

मजदूर, “”तो फिर?”

मुंशी, “”तो फिर क्या? मैं चिट्ठी लिखता हूँ तो मुझे ही वहॉं जाकर चिट्ठी पढ़नी भी पड़ती है। मेरा लिखा और कोई नहीं पढ़ सकता।”

इस पर मजदूर बोला, “”खुद ही लिखें और खुद ही जाकर पढ़ें। ओहो! यह तो वही बात हुई कि लिखे ईसा, पढ़े मूसा।” तभी से यह कहावत प्रचलित हो गई।

– संजय शर्मा “वत्स’

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