एन. गोपि तेलुगु के वरिष्ठ कवि हैं। प्रस्तुत पुस्तक में उनकी 50 कविताओं का अनुवाद हिन्दी के विज्ञ और वरिष्ठ अनुवादकों ने किया है। पुस्तक में संकलित कविताएँ बहुआयामी होने के बावजूद एक समन्वित, जिसे समग्र कहने में भी कोई हिचक नहीं हो सकती, दृष्टिकोण से बंधी हैं। यह दृष्टिकोण सकारात्मक है। यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि सकारात्मकता एक कालजयी साधना है। संभवतः भारतीय ऋषि-चेतना ने जिसे “तप’ कहा है, यह वही है। यह साधना समय-सापेक्ष होते हुए भी अपने अंतिम बिन्दु पर निरपेक्ष बन जाती है। लेकिन इसका गंतव्य पथ समय अथवा युग-बोध का अतिामण नहीं करता, वह अपना रास्ता इसके बीच से ही ले जाता है। समय की निरंतरता कवि के अनुभवों, विचारों और उसके मन की संवेदनशीलता को छूती तो बिन्दु बनकर है, लेकिन अऩुभूतियों में उतर आता है एक विराट सुविस्तृत आकाश। एक ऐसा आकाश- जिसमें कवि जीवन की समग्रता को समेटता है। समग्रता, जिसमें लघुता अनन्तता को स्पर्श कर जीवन्त हो उठती है।
ऐसा नहीं है कि सकारात्मकता की यह तप-साधना तमाम परिस्थितिजन्य नकारात्मकताओं की अवहेलना कर अपने को प्रतिष्ठित करती है। सच तो यह है कि वह ऐसा कर भी नहीं सकती है, क्योंकि आदमी की जिन्दगी उसकी वास्तविकताओं के मकड़जाल में उलझी है। अन्तर बस इतना है कि एन. गोपि की काव्य-चेतना का यथार्थ इन विसंगतियों और विरोधाभासों को स्वीकार नहीं करता। इनके प्रति कवि के मन में एक उद्दाम आाोश है, जो विसंगतियों के छद्म को सिर्फ उद्घाटित ही नहीं करता है अपितु उसके तंतुजाल को बड़े निर्मम भाव से तोड़-ताड़ कर बिखेर देना चाहता है। कवि यह जानता है कि “यथार्थ’ कहे जाने वाले इस आवरण को हटाये बिना वह उसे न देख सकता है और न छू सकता है जिसके लिए उसका अन्तर्मन संवेदित है, और जिसे वह सिर्फ अपनी कविता के शब्दों में ही नहीं देखना चाहता बल्कि शब्दों की अर्थवत्ता के पार उसकी अनुभूतियों से गुजरना भी चाहता है। इस दृष्टि से एन. गोपि की कविता सिर्फ शब्द नहीं देती, अर्थ नहीं देती और इनके जरिये वह संकेत भी नहीं देती। सही अर्थों में वह अपने पाठक की सहगामिनी बनती है और वहॉं ले जाती है जहॉं शब्द और शब्दार्थ तथा संकेतों के सारे चिह्न मिट जाते हैं। एन. गोपि की कविताएँ इसी “अव्यक्त’ में “व्यक्त’ होती हैं और इसी “अकथ्य’ में “कथ्य’ बनती हैं।
इस विशिष्टता के साथ एन. गोपि अपना वर्चस्व अपने समकालीनों में, न सिर्फ तेलुगु में स्थापित करते हैं, अपितु अपनी समग्रतावादी सकारात्मक काव्य-दृष्टि के चलते वे स्व़यं को समस्त भारतीय भाषाओं के समकालीन श्रेष्ठ कवियों में प्रतिष्ठित करते हैं। यह प्रतिष्ठा मात्र उनकी नहीं है, यह प्रतिष्ठा उन जड़ों की भी है जो अपनी मिट्टी की गहराइयों से संजीवनी प्राप्त करती हैं और उन्हें संस्कृति के धरातल पर प्रस्तुत करती हैं। सांस्कृतिक चेतना का यह मौलिक विन्यास उन्हें भी मौलिक बनाये रखता है और वे स्वयं को आयातित विचारों और वादों के प्रभाव से बचाने में सफल होते हैं। मौलिकता के इस धरातल पर शब्द भी उनके हैं, अर्थ भी उनका अपना है और शिल्प भी उनका है। यह “निजत्व’ अगर उनकी काव्य-चेतना का यथार्थ बना है तो उसका एकमात्र कारण यही है कि उन्होंने जो भी देखा है, अपनी आँखों से देखा है। संकलन की कविताएँ किसी विचारधारा के गर्भ से नहीं उपजी हैं। हॉं, यह और बात है कि विचार अपनी अनुभूतिजन्य संप्रेषणीयता के साथ उनकी कविता के केन्द्र में एक शिशु की भॉंति किलकारियॉं भरता अवश्य नजर आता है।
भारतीय भाषाओं की समकालीन कविता का जो यथार्थ उभर कर सामने आ रहा है, वह एक विचित्र किस्म की अस्पष्टता के धुंधले आवर्त्त से घिरा दिखाई देता है। कविताओं में कविता कम दिखाई देती है, क्योंकि कवि सारी ताकत कविता में स्वयं को प्रक्षेपित करने में लगा देता है। यही कारण है कि कविता की समीक्षा भी कविता केन्द्रित न होकर कवि-केन्द्रित हो रही है। साथ ही कवि अपने को परंपरा से विच्छिन्न करने की कशमकश में न स्वयं को बचा पा रहा है और न कविता को। अभिव्यक्ति के नाम पर जो कविताओं में संप्रेषित हो रहा है, वह कवि के रुग्ण-मन की कुंठाएँ हैं। अवसाद, संत्रास और कुंठाएँ ही उसे युगधर्म समझ में आ रही हैं जिसे वह समकालीन सच के नाम पर अपने पाठकों को परोस रहा है। इस दृष्टि के कवि तो बीमार हैं ही, उनकी कविताएँ उनसे भी ज्यादा बीमार हैं। कवि एन.गोपि इस लिहाज से अपने अन्य समकालीनों से बहुत अलग दिखाई देते हैं। उनमें जीवन के प्रति एक सृजनशीलता का अदम्य उत्साह है। वे सामाजिक भी हैं, सांस्कृतिक भी हैं और बौद्घिक भी हैं, लेकिन सबसे प्रबल पक्ष है- उनका सकारात्मक होना। संभवतः इसी कारण से नये प्रतीकों और बिम्बों की रचना करती हुई भी उनकी कविता कहीं से अबूझ और पेचीदा नहीं लगती। उनका अन्तर्मन वर्णित विषय के प्रति साफ-सुथरा बिम्ब उकेरता है क्योंकि वहॉं बड़ी स्पष्टता है। ऐसा नहीं है कि सामाजिक धरातल पर पसरी हुई नकारात्मकताएँ अपनी विद्रूपताओं के साथ उनकी चेतना को पीड़ित नहीं करतीं, लेकिन एन. गोपि उनकी विसंगतियों को युगधर्म नहीं स्वीकार करते। वे बड़े निर्मम भाव से उनका एक कुशल सर्जन की तरह चीर-फाड़ करते हैं। इस प्रयास में पीड़ा तो होती है लेकिन इस पीड़ा के गर्भ से सामाजिक संरचना का भविष्य पैदा होता है।
इतिहास का रथ भविष्य के पथ पर लगातार आगे बढ़ता जायेगा और उनकी कविताएँ हर रास्ते पर मील के पत्थर की तरह संकेतक बनी खड़ी मिलेंगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले कई दशकों से वे तेलुगु के स्थापित कवि हैं। उनकी कविताओं का अऩुवाद हिन्दी के अलावा भी कई भारतीय भाषाओं में हो चुका है। वे प्रतिष्ठापरक साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तेलुगु कविता की आधुनिक धारा के लिए वे एक परंपरा बन चुके हैं। उनकी पीछे छूटती लकीरों पर अनगिनत काव्य-चरण आगे बढ़ रहे हैं। यह परंपरा भारतीय भाषाओं को अभिनव आत्म-चेतना का उपहार दे सके- इसके लिए ़जरूरी है कि उन्हें सभी भारतीय भाषाओं के पाठकों से परिचित कराया जाय। प्रस्तुत हैं उनके वर्तमान काव्य-संग्रह से कुछ काव्यांश-
(1) नाव के नीचे
पानी क्या सोच रहा है
क्या नाव जानती है
पानी का हृदय चीरने पर ही
नाव को मिलती है मंजिल।
(2) सो रहे
शिशुओं के उच्छ्वास-निस्वासों में
धीरे-धीरे निनादित
कोमल गीति।
परिमल-सी परिव्याप्त अलौकिक स्थिति।
(3) रहस्यमय भूगर्भ का कोलाहल है- आँसू
आँसुओं की तहों में
कभी-कभी मुस्कान भी मिलते हैं,
इसलिए मैं इन्द्रधनुष में मुँह धोता हूँ।
(4) जंगल के ओढ़े हुए रास्ते पर
अँधेरा ही अँधेरा है
अँधेरे और किरण की आपस में
दोस्ती कितनी है?
– रामजी सिंह “उदयन’
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