लोकतंत्र की लंगोट

किसी देश के किसी प्रांत की किसी राजधानी में एक विधानसभा थी। विधानसभा वैधानिक कार्यों के लिए थी मगर प्रजातंत्र का आनंद था। सभी तरह के कार्य आसानी से और बिना रोक-टोक के सम्पन्न होते रहते थे। ऐसे ही एक दिन विधानसभा की बैठक के दौरान एक माननीय सदस्य ने एक सुरक्षा कर्मचारी की पैंट उतार कर हवा में उछाल दी। पैंट उछली मानो लोकतंत्र की टोपी उछली, मगर केवल उछली नहीं, पैंट उछल कर आसन की टेबल पर गिरी, मानो प्रजातंत्र की भैंस पानी में पड़ गयी।

मैं इस सम्पूर्ण घटनााम का दूरदर्शी गवाह था। दूरदर्शन के सभी चैनल इस पराामी घटनााम को बार-बार दिखा रहे थे। मैं और मेरे जैसे लाखों-करोड़ों जनमानसों के सिर शर्म से झुके जा रहे थे। समझ में नहीं आ रहा था कि लोकतंत्र की लंगोट खोल कर ये जनप्रतिनिधि क्या दिखाना चाहते हैं।

मैं जन्मजात मूर्ख इस सम्पूर्ण घटनााम पर चर्चा के लिए उतावला था। एक जनप्रतिनिधि जो अभी-अभी लाउन्ज में आये थे, से पूछ बैठा, “प्रभु! ये क्या हो रहा है। सभा में लोकतंत्र को नंगा करने के प्रयास क्यों हो रहे हैं?’

“तुम नहीं समझोगे, जो स्वयं नंगा नहीं होना चाहते वो लोकतंत्र को नंगा कर देते हैं।’

“आलोचकों का काम आलोचना करना है। हमारा काम सरकार बचाना या सरकार बनाना है। बचाने और बनाने के इस चाव्यूह में अभिमन्यु मर सकते हैं, लोकतंत्र नंगा हो सकता है। और ज्यादा आवश्यकता हुई तो सभी सत्ता के लालायित प्रतिनिधि शक्ति का नंगा नाच दिखा सकते हैं, समझे!’ ये कह कर वे वापस भवन के अन्दर चले गये। मैं फिर सोचने लगा, आजादी के इतने सालों में लोकतंत्र की अर्थी निकालना चाहते हैं क्या? तभी देखा कि एक मंत्री जी आ रहे हैं। मैंने उनसे भी पूछा, “ये लोकतंत्र की लंगोट क्यों दिखाई जा रही है?’

“तुम फिर आ गये? मार्शल! इसे बाहर निकालो।’

मैं अपमानित होकर भागा। इसी बीच मुझे एक गाने के बोल सुनाई दिये, “चप्पा-चप्पा चांदी चले…।’ मैंने गाने वालों से कहा, “सही पंक्ति इस प्रकार है, “चप्पा चप्पा चरखा चले।’ लेकिन वो बोल पड़ा, “तुम बुद्घिजीवी मूर्ख ही रहोगे। देखते नहीं, हमने चरखे के स्थान पर चांदी रख दी है और सभी सत्ताधारी चरखे के बजाय चांदी काटने में व्यस्त हैं। चरखा कातने में क्या रखा है। सुबह से शाम तक चरखा कातो, एक भी चादर नहीं बनती, लेकिन यदि चांदी काटो तो कार, कामिनी, कोठी, कंचन सब आ जाता है। अतः तुम भी गाओ-

“चप्पा चप्पा चांदी चले…।’ यह कह कर वे चांदी काटने एक बड़े मंत्री के कक्ष में घुस गये।

लेकिन लोकतंत्र की लंगोट, लुंगी या पैंट पड़ी-पड़ी सिसक रही है। इस देश में लोकतंत्र की साड़ी भी कराह रही है। आजादी के पचास वर्षों में गांधी जी की लंगोट से चल कर हम लोकतंत्र की लंगोट तक पहुँच गये हैं। चरखे से चांदी तक का सफर हमने तय कर लिया है। क्या लोकतंत्र का यही हश्र होना था? संविधान का यही सत्य है? शायद नहीं, क्योंकि लोकतंत्र का सम्पूर्ण नहीं है यह, यह तो केवल अर्धसत्य है और अर्धसत्य में यथार्थ नहीं होता, लोकतंत्र का सम्पूर्ण सत्य तो जनता के पास है, वह लोकतंत्र को नंगा नहीं देख सकती है। वह लोकतंत्र को वस्त्र पहनायेगी, वापस उसे उच्च स्थान पर आसीन करेगी। लोकतंत्र का पूर्ण सत्य लोक में सुरक्षित है, था और रहेगा। लोकतंत्र की लंगोट खोलने वालों, सावधान!

 

– यशवन्त कोठारी

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