वामपंथी झुंझलाहट

हालॉंकि वामपंथी दलों ने सरकार से अपने समर्थन वापसी की औपचारिक घोषणा अभी नहीं की है और न ही समाजवादी पार्टी ने समर्थन देने की प्रत्यक्ष घोषणा की है, फिर भी जो संकेत मिल रहे हैं उनसे यही साबित होता है कि सदन में बहुमत साबित करने में अब सरकार को कोई दिक्कत नहीं होगी। इतना ही नहीं, अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी महत्वाकांक्षी परमाणु डील को भी समय रहते पूरा कर-करा सकते हैं। इस दृष्टि से कांग्रेसनीत संप्रग सरकार का बल्ले-बल्ले होना और वामपंथियों का हद दरजे हतोत्साहित होना स्वाभाविक है। अब वे अपना ऩजला जितना कांग्रेस पर उतार रहे हैं, किसी हालत में उससे कम उनकी झुंझलाहट समाजवादी पार्टी और उसके नेता मुलायम सिंह यादव के प्रति नहीं है। “आउटलुक’ पत्रिका को दिये गये अपने एक साक्षात्कार में माकपा महासचिव प्रकाश करात ने कहा है कि उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं थी कि मुलायम सिंह यादव इस तरह पाला बदलेंगे कि यूएनपीए का व़जूद खतरे में पड़ जाएगा। उन्होंने संसद में विश्र्वास हासिल करने के दौरान सरकार के खिलाफ मतदान करने और एक अभियान के तहत इस मुद्दे को जनता के समक्ष ले जाने का भी ऐलान किया है। उनका यह भी कहना है कि देश की अखंडता और देशवासियों की आजीविका से खिलवाड़ करने के लिए वामपंथी दल आगामी चुनाव में लोगों से कांग्रेस को हराने की अपील भी करेंगे। करात ने बड़े निराशापूर्ण लहजे में कहा है कि उनकी पार्टी विदेश नीति के मुद्दे पर कभी संप्रग सरकार से अलग होने की उम्मीद नहीं करती थी।

“आउटलुक’ के इस साक्षात्कार में करात जो भाषा बोल रहे हैं वह एक हारे हुए जुआरी की भाषा है। एक ऐसे जुआरी की भाषा जो लगातार जीतता आया हो, लेकिन उसका आखिरी दॉंव उसके खिलाफ हो जाय और वह सब कुछ हार जाय। इसमें कोई दो राय नहीं कि उन्होंने संप्रग सरकार को दिये गये समर्थन की बिना पर उसे अब तक अपने इशारों का गुलाम बनाये रखा है। उन्होंने सरकार को गिरने से ़जरूर बचाये रखा। अगर इसको समर्थन माना जाय तो यह समर्थन है, वर्ना संप्रग का अब तक का कार्यकाल समर्थन की औपचारिकता निभाने वाले इन वामपंथी दलों के विरोध को ही समर्पित रहा है। ऐसे मौके और मुद्दे इस दौरान बहुत कम आये हैं जब वे संप्रग सरकार के साथ समर्थन की कतार में खड़े दिखायी दिये हैं। अधिकांश मौकों पर उन्होंने अपना सिाय विरोध ही दर्ज कराया है। यह विरोध संसद से सड़क तक समान भाव से देखने को मिला है। जिस धमकी के सहारे उन्होंने एटमी करार का रास्ता रोका था, उस धमकी की आजमाइश वे कई बार कर चुके हैं। अन्तर सिर्फ इतना है कि पहले की धमकियों पर सरकार अपने एजेंडे को वापस लेकर बैकफुट पर आ जाती थी, मगर इस बार उसने धमकी की काट सपा के समर्थन के तौर पर तलाश ली है। अब वह अपनी सरकार बचाने की भी स्थिति में है और करार को अमलीजामा भी पहना सकती है। करात का यह कहना कि वे वैदेशिक मामले पर संप्रग से अलग होने की नहीं सोच सकते थे, एक नया भ्रम फैलाने की कोशिश है। उनसे यह पूछा जा सकता है कि वैदेशिक पूंजी के निवेश, किसानों और मजदूरों की दयनीय स्थिति, बढ़ती महंगाई जैसे मुद्दों पर उन्होंने विरोध दर्ज ़जरूर कराया मगर समर्थन वापस लेने की धमकी कभी नहीं दी, फिर क्या कारण है कि अमेरिका के साथ हुए असैन्य परमाणु समझौते पर उन्होंने समर्थन वापसी को अंतिम लक्ष्य बना लिया। उत्तर एकमात्र यही है कि वे यह समझौता किसी दूसरे देश से होना तो कुबूल करते थे लेकिन अमेरिका के नाम से ही उन्हें एलर्जी है। अब अगर संप्रग और उनका तला़कनामा आ़िखर इस वैदेशिक मुद्दे पर नहीं होता तो और किस मुद्दे पर होता?

रह गई बात सपा नेता मुलायम सिंह यादव की, तो वामपंथी इस वास्तविकता से अनभिज्ञ हरग़िज नहीं होंगे कि प्रांतीय अथवा राष्टीय राजनीति में जितनी ़जरूरत उन्हें मुलायम सिंह की है, उतनी मुलायम को उनकी नहीं है। वामपंथियों ने अपना वर्चस्व बनाये रखने की गऱज से ही ़गैर-कांग्रेसी और ़गैर-भाजपायी की अवधारणा तीसरे मोर्चे के तौर पर पेश की है। उन्हें राष्टीय राजनीति में बने रहने के लिए इस सीढ़ी की ़जरूरत भी है क्योंकि उन्हें यह ब़खूबी पता है कि लाख कोशिशों के बाव़जूद देश के तीन प्रांतों को छोड़कर किसी चौथे प्रांत में, वे बिना किसी सहारे के पॉंव नहीं पसार सकते। मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की राजनीति को प्राथमिक मानते हैं और उसमें कांग्रेस तो कुछ हद तक उनकी मददगार हो सकती है, वामपंथी एकदम नहीं हो सकते। अगर अपनी राजनीति का गुणनफल निकालकर मुलायम ने अपनी राह अलग कर ली है तो इस पर आश्र्चर्य नहीं प्रकट किया जा सकता। अब जब वामपंथी दल अपना दॉंव हार गये हैं तो उन्हें यह बात ़जरूर समझ में आ जानी चाहिए कि राजनीति में विकल्प कभी भी एकदम समाप्त नहीं होते। चार साल से ऊपर उन्होंने कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को अपनी मरजी का गुलाम बनाये रखा और हर मौके पर सरकार को उनकी धौंसपट्टी सहनी पड़ी, लेकिन आ़िखरकार एक मौका उसके हाथ आ ही गया कि उसने वामपंथियों को उनकी औकात पर खड़ा कर दिया। आने वाला चुनाव संप्रग अथवा राजग में से किसको चुनेगा, यह तो कहना कठिन है, लेकिन यह निश्र्चित तौर पर कहा जा सकता है कि वामपंथी अपनी वर्तमान भूमिका में शायद ही कभी आ सकें।

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