गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहचान भारतीय राजनीति में अपनी खासियत अलग रखती है। उनके बयानों की तल्खियॉं अभी तक अपने विरोधियों को तिलमिलाती भी रही हैं और बहस का मुद्दा भी बनती रही हैं। लेकिन अहमदाबाद के सीरियल बम ब्लास्ट और सूरत में पुलिस द्वारा 20 से अधिक बमों की बरामदगी के बाद नरेन्द्र मोदी का जो बयान आया है, उसमें शाइस्त़गी भी है और राजनीतिक दूरदर्शिता तथा समझदारी भी है। जबकि उन्हीं की पार्टी के कई वरिष्ठ नेता इस राष्टीय त्रासदी को भी राजनीतिक रंग देने से परहेज नहीं कर रहे हैं। इन वरिष्ठों और कनिष्ठों की लाइन से अलग हट कर मोदी ने जो वक्तव्य प्रसारित किया है, वह सचमुच पुराने नरेन्द्र मोदी के भीतर एक सर्वथा नये नरेन्द्र मोदी के अवतरित होने का संकेत देता है। नरेन्द्र मोदी का यह नया अवतार जिम्मेदार होने के साथ ही शालीन भी है और उसे मौके की नजाकत की पहचान के साथ ही आतंकवाद को उसके असली रूप में पहचानने की दृष्टि भी है।
नरेन्द्र मोदी ने इन घटनाओं को राष्टीय संदर्भ में देखा है और अपनी ही पार्टी के उन कई लोगों के इस सवाल को नेपथ्य में डाल दिया है कि आतंकवादी घटनायें सिर्फ भाजपा शासित राज्यों में ही क्यों हो रही हैं। पार्टी की एक वरिष्ठ नेत्री सुषमा स्वराज ने तो गोल-मटोल ढंग से एक बयान प्रसारित कर इसके पीछे कांग्रेस को भी सवालों के घेरे में लपेट दिया। लेकिन मोदी ने बड़ी संतुलित भाषा में इसे “दुश्मन’ द्वारा भारत के खिलाफ अघोषित युद्घ की प्रिाया का ही एक प्रयास बताया। उन्होंने इसके मुकाबले के लिए राष्टीय एकजुटता और एक राष्टीय नीति की आवश्यकता पर भी बल दिया। अलावा इसके उन्होंने आतंकवादी घटनाओं के राजनीतिकरण की खुली निन्दा भी की। उनके अनुसार सूरत और अहमदाबाद की घटनाओं को पिछले दिनों देश में घटित अन्य नगरों की घटनाओं से अलग हट कर नहीं देखा जा सकता। इसे उनकी राजनीतिक सूझबूझ का नतीजा ही समझना चाहिए कि उन्होंने नागरिक स्तर पर उन लोगों को सम्मानित तथा पुरस्कृत किया जिन्होंने अहमदाबाद और सूरत में उन कारों, जिनमें विस्फोटक पदार्थ लदे थे, की बरामदगी करवा कर बहुत बड़े हादसे को टाला। उन्होंने संभवतः पहली बार आतंकवाद से लड़ने के लिए जन सहभागिता को जरूरी समझा और नागरिकों का आठान इसका मुकाबला करने के लिए किया। अहमदाबाद और सूरत की घटनाओं को िायान्वित करने वालों का सुराग मुहैया कराने वाले को 51 लाख की भारी-भरकम धनराशि बतौर इनाम घोषित कर उन्होंने एक नागरिक उत्प्रेरणा की इस संदर्भ में नई पहल भी की है।
आतंकवाद की त्रासदी एक राष्टीय त्रासदी है। नरेन्द्र मोदी ने इसे उसी वास्तविक रूप में व्याख्यायित भी किया है। उन्होंने समग्रता के साथ इसके खिलाफ एक राष्टीय शक्ति और संकल्प विकसित करने की आवश्यकता पर बल दिया है। उनकी इस दृष्टि की सराहना की जानी चाहिए। सराहना इस बात के लिए भी की जानी चाहिए कि उन्होंने अपनी हिन्दुत्ववादी हार्ड लाइनर की अब तक की निर्मित छवि से बाहर आकर यह बात कही है। उन्होंने समग्रता में जिस राष्टीय शक्ति को खड़ा करने की बात की है, उसमें किसी सांप्रदायिक, क्षेत्रीय और जातीय विभाजन के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने इस सच्चाई को भी रेखांकित किया है कि जिस दिन भारत समग्रता में अपनी इस खोई शक्ति को पा लेगा, उस दिन भारत प्रत्यक्ष युद्घ में और छद्म-युद्घ में भी अपने दुश्मन को धूल चटा देगा। काश! मोदी का संकल्प उस राजनीति का भी संकल्प बन पाता जो इन त्रासद और अमानवीय घटनाओं को भी राजनीतिक हानि-लाभ का विषय बना देती है।
रामसेतु मुद्दे पर नई पहल
ऐसा लगता है कि कांग्रेसनीत संप्रग सरकार आने वाले चुनाव में रामसेतु का मुद्दा जीवित रखने के पक्ष में नहीं है। इस बाबत उसने जो गलतियॉं कीं और भाजपा सहित अन्य हिन्दू संगठनों ने जिस तरह उसे मुद्दे के तौर पर उछालकर धर्मप्राण हिन्दू जनता के मन में विक्षोभ पैदा किया, उसने सरकार को अपना कदम पीछे खींचने पर बाध्य किया है। हालॉंकि अभी भी अपने सहयोगी दल द्रमुक के दबाव में वह वर्तमान परियोजना के प्रारूप से अपना पीछा नहीं छुड़ा पा रही है, लेकिन इतनी प्रतिबद्घता उसने जरूर दर्शायी है कि अगर इसका कोई समुचित विकल्प मिलता है तो वह इसे छोड़ भी सकती है। सेतुसमुद्रम परियोजना के विरोध में दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए माननीय न्यायालय ने सरकार से पूछा भी है कि इस परियोजना का यदि कोई विकल्प है तो सरकार उसका पता लगाये। संभवतः न्यायालय को संतुष्ट करने और इस मुद्दे को कम से कम चुनाव तक कोल्ड स्टोरेज के हवाले करने के लिए ही उसने प्रसिद्घ पर्यावरणविद और नोबेल पुरस्कार ग्रहीता आर.के. पचौरी की अध्यक्षता में एक छः सदस्यीय समिति का गठन कर दिया है। वैसे उच्चतम न्यायालय ने भी इससे संबंधित सभी याचिकाओं पर अपनी सुनवाई पूरी कर ली है, लेकिन वह इस समिति द्वारा प्रस्तुत निष्कर्षों का अध्ययन करने के बाद ही अपना फैसला सुनाने के पक्ष में है। सरकार के सामने मजबूरी यह है कि अगर वह रामसेतु के पक्ष में राय प्रकट करती है तो उसकी प्रमुख सहयोगी द्रमुक उससे पल्ला झाड़ लेगी और अगर रामसेतु के विपक्ष में जाती है तो उसके खिलाफ भाजपा को एक बहुत बड़ा भावनात्मक मुद्दा मिल जाएगा। इसलिए उसने हॉं – ना के बीच का रास्ता निकालकर फिलहाल इसे टाल देना ही उचित समझा है।
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