परम शान्तिमूर्ति, महान योगिराज, जगद्गुरु आचार्य सम्राट
वे भोजन एक समय ही करते थे। अंतिम अवस्था में कभी-कभी मौसंबी का रस लिया करते थे। बाहरी उपयोग में भी दवा का प्रयोग नहीं करते थे।
डॉक्टर बुखार देखते तो एक बगल में 120 डिग्री फैरेनह्नाइट पाते और थर्मामीटर टूट जाता और दूसरे बगल में सामान्य तापमान देखकर चकित हो जाते थे।
सं. 2000 का पर्युषण-पर्व पूरा होने के बाद गुरुदेव नाम मात्र के लिए अल्प-आहर लेते थे। किसी को दर्शन नहीं देते थे।
ता. 18-9-1943 को मुंबई की वीरचंद पानाचंद की पेढ़ी वाले सेठ फूलचंद माणेकचंद अपनी धर्मपत्नी लीला बहिन के साथ मुंबई से आये, क्योंकि उनके युवा पुत्र कांतिलाल का देहांत हो गया था। ता. 23-9-1943 की रात को साढ़े दस बजे गुरुदेव ने उन्हें बुलाया और आत्मशांति के लिये बोध-वचन दिया। वृद्घावस्था में जिसने अपना एक मात्र पुत्र खो दिया हो, ऐसे शोकाकुल व्यक्ति को भी वहॉं आते ही अपूर्व शांति और अंतर में ज्ञान के प्रकाश का अनुभव हुआ था।
“”आयुष्य में एक पल मात्र का भी फेरफार नहीं हो सकता। जब भगवान महावीर भी अपने आयुष्य में एक पल मात्र भी नहीं बढ़ा सके तो हम किस गिनती में?
उस समय गुरुदेव को बुखार था और श्र्वासोच्छवास तीव्र गति से चल रहा था। रात को ढाई बजे नाड़ी की गति मंद पड़ गयी। वि.सं. 2000, आसोज बदी 10, गुरुवार, ता. 23-24 सितम्बर 1943 की रात को 3 बजे चौवन (54) वर्ष की जीवन-यात्रा पूर्ण करके योगीराज ध्यानस्थ दशा में ही निर्वाण-पद को प्राप्त हुए।
सेठ हीराचंदजी गुलेच्छा को अहमदाबाद में शाम को चार बजे गुरुदेव की तस्वीर में से आवाज सुनाई दी, “”जा रहा हूँ।”
अहमदाबाद से भक्त लोग रात को बारह बजे अचलगढ़ पहुँच गये। गुरुदेव पद्मासन अवस्था में बैठे हुए थे, नेत्र आधे खुले हुए थे, परम ध्यानस्थ दशा का आभास होता था, चंदन की महक आ रही थी। गुरुदेव को देह छोड़े 21-22 घंटे हो गये थे, परंतु नेत्रों में अनुपम ज्योति थी। दर्शन करते हुए यह विश्र्वास नहीं होता था कि इस शरीर से प्राण निकल गये हैं।
गुरुदेव के देह को अर्ध पद्मासन अवस्था में पालकी में विराजमान करके अचलगढ़ से आसोज वदी 12 तारीख 25-9-43 को मांडोली की तरफ प्रस्थान किया गया। अधिकारी गणों एवं जनता ने सरकारी बैन्ड के साथ भव्य स्वागत किया। पालकी को टक में विराजमान करके गुरुदेव शांति विजय जी एनिमल हॉस्पिटल तक ले जाया गया। शाम को शांति आश्रम में सभी रुके। सेठ किशनचंदजी भी हैदराबाद से आ पहुँचे। सेठ साहब और रुक्मिणी बहन ने वहॉं भक्तिपूर्वक प्रार्थना की। सेठ साहब को गुरुदेव के जीवित होने का आभास हुआ। गुरुदेव ने सेठ साहब को प्रेरणा दी।
रात को अग्नि-संस्कार के लिये बोलियॉं शुरू हुईं। गुरुदेव ने शांता बहन को साक्षात् दर्शन दिये, जिससे वे प्रोत्साहित होकर बोली बोलने लगीं और 5,1000 रुपये पर उनको आदेश मिला।
सोमवार दि. 27-9-1943 को प्रातःकाल गुरुदेव की पालकी को पूर्ण चंदन की चिता में दादागुरु श्री धर्मविजयजी की समाधि के समीप रखा गया और वहीं अग्नि-संस्कार किया गया। तीन दिन तक चंदन वगैरह जलते रहे। सायंकाल जब महान भक्ति किंकरदास तथा सैकड़ों भक्त विरह-वेदना के भजन गा रहे थे और जो देरी से पहुँचने के कारण दर्शन नहीं होने से विलाप कर रहे थे, उन सबको चिता की ज्वाला के ऊपर गुरुदेव के अभय मुद्रा में दर्शन हुए और शांतिसुधा का पान होने से सब लोग मुग्ध हो गये।
अग्निसंस्कार के स्थान पर सेठ किशनचंदजी ने संगमरमर का भव्य-मंदिर निर्माण करवा कर भक्तों को अर्पण किया है।
स्विटजरलैण्ड निवासी श्री जॉर्ज साहब भी पालीताणा में उपस्थित थे। वे भी अग्नि-संस्कार के समय मांडोली पहुँच गये थे। जॉर्ज साहब को गुरुदेव ने तीसरे दिन ही साक्षात् दर्शन देकर कहा, “”जॉर्ज शांति ही सबसे बड़ा योग है।”
निर्वाण के पश्र्चात भी गुरुदेव समय-समय पर बहुत से भक्तों को प्रत्यक्ष और किसी को स्वप्न में दर्शन देते रहते हैं। अनेकों के कष्टों के स्मरण मात्र से ही निवारण कर देते हैं।
आज भी उनके भक्तों के संकट दूर होते हैं। अमेरिका, इंग्लैण्ड, ाान्स, जर्मनी, पुर्तगाल वगैरह देशों में उनके भक्तों को दर्शन देते हैं।
आंध्र-प्रदेश की राजधानी हैदराबाद के मारुतिनगर (चैतन्यपुरी में श्री वासुदेव पूज्य जैन मंदिर के सामने में भी) “श्री विजयशान्ति सूरिश्र्वरजी गुरु मंदिर’ के नाम से एक भव्य मंदिर टस्ट की देख-रेख में निर्माणाधीन है। टस्ट ने निश्र्चय किया है कि समस्त गुरु-भक्तों के सहयोग से बिना किसी जातीय-पंथ के भेदभाव से तथा प्राचीन व आधुनिक शिल्प शैली में एक भव्य मंदिर का निर्माण किया जाए/ इस कार्य हेतु भूमि-पूजन, खनन तथा शिलान्यास का कार्याम 19, 20, 21 एवं 24 जुलाई 2008 के बीच रखा गया है। भविष्य में गुरु मंदिर टस्ट के तत्वावधान में बिना किसी जातीय भेदभाव के जरूरतमंद भाई-बहनों के लिए विभिन्न शैक्षणिक एवं चिकित्सा संबंधी सेवा-कार्य भी संपन्न होंगे।
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