परम शान्तिमूर्ति, महान योगिराज, जगद्गुरु आचार्य सम्राट
भारत-भूमि महान् ऋषि-मुनियों द्वारा की गयी आत्मसाधना, त्याग और तपस्या के तेज से दैदीप्यमान है। हर युग में किसी ऐसी भव्य आत्मा का जन्म होता है, जो अपनी आत्मा और महानता से समस्त विश्र्व को आलोकित कर देती है। समय-समय पर हमारे देश में महान संत अवतरित हुए और उन्होंने संत्रस्त एवं पीड़ित मानव-जाति को अपने उद्बोधन एवं आशीर्वाद प्रदान कर उनके कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। पं. पूज्य दादागुरु श्री धर्मविजयजी, गुरू श्री तीर्थ विजय जी के शिष्य एवं साधना के उच्च शिखर को प्राप्त करने वाले, भगवान महावीर के सिद्घान्तों के महान प्रचारक और अलौकिक योग प्रवृतियों के स्वामी श्री विजय शान्ति सूरीश्र्वरजी गुरु भगवंत 20वीं शताब्दी के श्रेष्ठ महात्मा हुए।
योगिराज श्री श्री विजय शान्ति सूरीश्र्वरजी का जन्म संवत् 1947 को सुदी पंचमी के शुभ दिन राजस्थान के सिरोही जिले के मणादर नामक गॉंव में हुआ था। उनके जन्म के समय देवताओं ने उत्सव मनाया था और दादागुरु की देहरी का चौथा नीम का वृक्ष अचानक अदृश्य हो गया था। उनके पिताश्री भीमतोलाजी एवं माताजी वसुदेवी ने उनका नाम सगतोजी रखा था।
गुरु भगवंत जंगल में गायें चराने जाते और वहॉं भी अनंत की गहराई में खो जाते थे। वे आठ वर्ष की उम्र से अपने सांसारिक चाचा श्री तीर्थ विजयश्री की सेवा में रहे।
सं. 1961 की वसंत पंचमी को उन्होंने सोलह वर्ष की उम्र में रामसीण गॉंव में काकाश्री से दीक्षा ग्रहण की और उनका नाम शांति विजयजी रखा गया।
दीक्षा के पश्र्चात् मुनि श्री शांति विजयजी मांडोली गये, जहॉं दादागुरु का देहरा (देरी) है। उस पवित्र स्थान के दर्शन करके पुनः रामसीण पधार कर सेठ नोपाजी डाह्याजी के एक मकान, जिसमें कोई नहीं रह सकता था, उस में तीन दिन तक ध्यान किया, जिससे वहॉं से भूत-प्रेत का निवास निकल गया।
कुछ समय पश्र्चात् गुरुदेव आत्म-साधनार्थ आबू गिरिराज की गुफाओं में, मार्कंड ऋषि के आश्रम में तथा सरस्वती देवी के मंदिर की गुफाओं में चले गये। जहॉं मार्कंड ऋषि, श्री रिद्घसेन दिवाकर, श्री अभयदेवसूरि, कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्यजी, पंडित कालिदास तथा अनेक महापुरुषों ने ध्यान किया था।
गुरुदेव ने “ॐ ह्रीं अहंत, का ध्यान मुख्य रूप से किया। अनेक बीजाक्षरों को सिद्घ करके स्वयं अंदर से बाहर आवे, ऐसे आत्मज्ञान का अनुभव किया। ध्यानस्थ दशा में दादा गुरु श्री धर्मविजय जी की अपूर्व कृपा आपको सहज में प्राप्त हो गयी।
सं. 1968 के आसपास गुरुदेव ने गुजरात तथा मालवा की ओर विचरण किया।
आपने गिरनार पहाड़ पर ध्यान किया। जूनागढ़ से गोधरा और मालवा की तरफ पधारे। मालवा से गुरुदेव ने मांडोली की तरफ विहार किया। मांडोली पहुँचने पर गुरु-शिष्य का मिलाप बहुत लंबे समय के बाद हुआ।
अपने गुरु के पास कुछ समय रहने के पश्र्चात् उग्र साधना द्वारा पूर्णता प्राप्त करने हेतु आबू की तरफ पधारे। सतत मौन तथा ध्यान के साथ ऐसी उग्र तपश्र्चर्या की जिसकी कल्पना करना भी कठिन है। आबू रोड के पास ऋषिकेश नामक स्थान है, जहॉं सर्पों का साम्राज्य है। वहां सर्प के बिलों पर बैठकर छः महीने तक ध्यान किया। उन दिनों आप एक ही बार उड़द के बाकुलों का आहार लेते थे।
एकाक्षरी नारियल सहज में प्राप्त होने से गुरुदेव ने उसे सिद्घ किया था और वह नारियल गुरुदेव के साथ बातें करता था।
सं. 1974 के चातुर्मास में आप जोधपुर राज्य के जशवंतपुरा गांव के पास सुन्दा पहाड़ पर विराजते थे। पहाड़ पर चामुंडा देवी के मंदिर में नवरात्रि के समय असंख्य पशुओं की बलि दी जाती थी। इस हिंसा को बंद कराने के लिये आपने कई महीनों तक मौन के साथ तप एवं ध्यान किया। अंत में माताजी ने पुजारी को हिंसा बंद करने का आदेश दिया।
गुरुदेव बामणवाड़ पधारे। वहॉं प्रवेश-द्वार की ऊँची ड्योढ़ी के ऊपर के कमरे की खिड़की के पास वे जब ध्यान में लीन थे, तब उपसर्ग होने से गुरुदेव खिड़की से पंद्रह फुट नीचे शिला पर गिर पड़े और सिर से खून की धारा बहने लगी। गुरुदेव ने विचलित हुए बिना कहा, “”कुछ नहीं, ॐ शांति।”
सं. 1975 से 1979 तक गुरुदेव ने मार्कंड ऋषि के आश्रम में सरस्वती मंदिर की गुफा एवं आसपास अघोर सरस्वती अरण्य में उग्र तप के साथ ध्यान किया।
पेंसिल भी कभी हाथ में नहीं ली या कोई धातु का स्पर्श भी नहीं किया। मात्र ध्यान के प्रभाव से ही आत्म साक्षात्कार होने से गुरुदेव को सब ज्ञान अनुभव में रूपांतरित हुआ। किसी भी भाषा का अभ्यास नहीं किया, फिर भी अंग्रेजी, जर्मन, इटालियन, पोर्तुगीज, ोन्च, संस्कृत, मराठी, गुजराती आदि सभी भाषाओं में बातचीत करते थे।
सरस्वती देवी धूपदानी में से प्रगट होकर गुरुदेव के साथ बातचीत करती और कभी मूर्ति के साथ ही आमने-सामने बातचीत चलती। गुरुदेव को विश्र्व की सब भाषाओं एवं धर्मग्रंथों का ज्ञान भी अपने आप प्राप्त हुआ था।
सं. 1977 में गुरुदेव शिवगंज पधारे। वहॉं धनरूप जी नामक ओसवाल के यहॉं भिक्षा-गोचरी लेने गये तो अपंग बालक पर आपकी दृष्टि पड़ी। उसके बारे में सुनकर गुरुदेव के रोम-रोम में करुणा का संचार हुआ। उन्होंने फरमाया, “”ॐ शांति, ठीक हो जायेगा।” वह बिल्कुल ठीक हो गया।
तीन-चार महीने बाद गुरुदेव पोमावा गॉंव पधारे। सं. 1980 में गुरुदेव आबू गिरिराज की गुफाओं में ध्यान करने चले गये। अधरदेवी के ऊपर का शिखर जिसे आजकल “शांति शिखर’ कहा जाता है, वहॉं भी वे सतत मौनपूर्वक दिन-रात सर्दी और जंगली पशुओं की परवाह किये बिना समाधिस्थ रहते थे। एक चातुर्मास आबू के आरणा नामक स्थान में व्यतीत किया।
सं. 1982-83 का चातुर्मास सिरोही में किया। सं. 1984 की जेठ सुदी 7 को चामुंडेरी गांव में प्रतिष्ठा एवं अंजनशलाका करवायी। उस समय मंदिर को लगभग दो लाख रुपयों की अकल्पनीय रकम प्राप्त हुई। आसपास के गॉंवों में उनके प्रभाव से शांति स्थापित हुई।
सं. 1984 में सिराही गॉंव के ऋषभदेव मंदिर में ध्वजादंड-समारोह के समय आपके ओघा से उसे स्पर्श कराते ही वह ऊपर उठ गया और महोत्सव आपकी निश्रा में संपन्न हुआ।
सं. 1985 के फाल्गुन सदी 8 को आपके गुरु श्री तीर्थ विजयजी का देहोत्सर्ग हुआ।
सं. 1985 (सन् 1928) का चातुर्मास गुरुदेव ने पुनः आबूरोड एवं माउन्ट आबू के बीच आरणा नामक स्थान में किया। आसोज मास में आपको पूर्ण ज्ञान प्रगट होने पर देवताओं ने उत्सव मनाया।
सं. 1988 (सन् 1931) की गुरुपूर्णिमा का गुरुपूजा महोत्सव माउन्ट आबू में जोधपुर महाराज सुमेर सिंह जी की राजकुमारी (जयपुर की महारानी) की तरफ से धूमधाम पूर्वक मनाया गया।
सं. 1989 की ग्रीष्म ऋतु बामणवाड़जी तीर्थ में व्यतीत करके गुरुदेव चातुर्मास में देलवाड़ा पधारे। दशहरे के त्योहार में चारों तरफ देवी मंदिरों में धर्म के नाम पर हो रही जीव-हिंसा को रोकने के गुरुदेव के आदेश से अनेक राजाओं ने अपने राज्यों में जीव-हिंसा बंद करवा दी।
राजा-महाराजा तथा प्रतिष्ठित गृहस्थी के समक्ष जनता ने गुरुदेव को “अनंत जीव प्रतिपाल योगेन्द्र चूड़ामणि राजराजेश्र्वर’ की उपाधि से विभूषित करके आपका सम्मान किया।
दुजाणा निवासी एक गृहस्थ ने बामणवाड़जी की पंचतीर्थों के दर्शनार्थ एक संघ निकाला। उसमें पॉंच हजार यात्री थे। मिगसर सुदी 2, सं. 1990 को वीरवाड़ा गांव में एक वृक्ष के नीचे ध्यान में विराजित गुरुदेव शांतिविजय जी को “जगद्गुरु सूरिसम्राट’ का पद अर्पण किया गया तथा अनेक राजा-महाराजाओं और ए.जी.जी. ने ब्रिटिश सरकार की तरफ से आपका बहुमान किया।
उदयपुर स्टेट में केसरियाजी नाम का श्र्वेताम्बर जैनों का एक महान् तीर्थ है। जैनों द्वारा नियुक्त पुजारी नौकर, पंडा के नाम से जाने जाते थे। पंडा लोग ही सेठ बनकर हुकुमत करने लगे थे।
बिना किसी वैर-भाव की वृत्ति से भरी सभा में उन्होंने पवित्र केसरियाजी तीर्थ की रक्षा के लिये उद्घोषणा की कि यदि केसरियाजी तीर्थ के विषय में मेवाड़ स्टेट की तरफ से जैनों और पंडाओं के बीच शांतिपूर्ण तरीके से निर्णय नहीं किया गया तो मैं सं. 1990 के फाल्गुन सुद 13 को मेवाड़ की भूमि पर जाकर आमरण उपवास शुरू करूंगा। (ामशः)
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