- एक यह, कि ज्ञान और विज्ञान में बड़ा कौन है?
- दूसरा यह, कि सृष्टि और प्रकृति क्या कुछ अनुपयोगी भी रचती है?
उपर्युक्त दोनों प्रश्र्न्न अचानक एक दिन सरसरी तौर पर हुई एक छोटी-सी बातचीत ने जगा दिये। हुआ यह कि हमारे एक अरब मित्र अबुद का फोन आया। दुआ-सलाम के बाद दमे के इलाज के लिए दी जाने वाली मछली की दवाई का ज़िा निकालते हुए उन्होंने पूछा, अमां यार! क्या मछली खाई? हमने हुंकारी भर दी। अबुद को पता है कि हमें दमे की शिकायत है। कदाचित इसीलिए उसने खास तौर पर याद किया। हमारा जवाब सुनकर अबुद बोला, डॉक्टर्स कहते हैं सब बकवास है। मछली-वछली कुछ असर नहीं करती। इस सब में तो बस साइकॉलोजी प्ले करती है। हमने कहा, हॉं, हो सकता है ऐसा ही हो। बात को हमने यह कह कर आगे बढ़ाया कि सब ऊपर वाले की मर्ज़ी होती है। हमें ऐसा लगता है कि वह इतना रहम दिल है कि उसने जीवों को नुकसान पहुँचाने के लिए तो कुछ भी नहीं बनाया होगा। हमारे कहने का मतलब यह था कि परमात्मा के सृजन में आस्था हो तो पदार्थ में उपचारी गुण बढ़ जाते हैं। काम के समय भी हमेशा तस्वीह साथ रखने वाले नेक और धर्मभीरू अबुद ने हमारी बात की तस्दीक कर दी। फेथ-हीलिंग, दुआ-ताबीज, झाड़-फूंक, भस्म-राख वगैरह सब इसी चिंतन के नतीजे हैं। अबुद ने कहा, डॉक्टर भले ही कहते रहें कि कुछ नहीं होता, लेकिन लाखों लोग जब मछली की दवाई लेने अपने शहर में आते हैं तो एक मेला-सा लग जाता है। ऐसा लग रहा है कि जब से दवा देने की जगह बदली है, लोगों की आमद घट गई है? अबुद ने उन दिनों को याद किया, जब पुराने शहर में इतनी गहमागहमी रहती थी कि लोग-बाग झुंड बनाकर नज़ारा लेने के लिए सड़कों पर आ जाया करते थे। हमने उसे याद दिलाया कि मछली की दवाई की दिन-ब-दिन बढ़ती पापुलैरिटी ने विज्ञान-वेदिका वालों को इस कदर भड़का दिया कि वे उसके पीछे ही पड़ गये। इन्ग्रीडियन्ट्स का सवाल उठाया, पेटेन्ट का प्रश्र्न्न चिह्न लगाया, लैब टेस्ट और कानूनी, ग़ैर-कानूनी होने की दुहाई दी। यह साबित करने की न केवल कोशिश की कि पुश्तैनी आशीर्वाद से गौड़-परिवार को विरासत में मिली यह मछली-दवाई महज़ एक छल है, धंधा है, धोखा है, बल्कि सरकारी बंदोबस्त को भी बुरा-भला कहा। उनके प्रचार और प्रयत्नों का भी कुछ असर हुआ और आयुर्वेद चिकित्सकों द्वारा समानान्तर शाकाहारी औषधि वितरण का भी असर पड़ा। धीरे-धीरे अपने शहर में मछली की दवा खाने के लिए आने वालों की संख्या घटती गई। हर साल मीडिया यह टटोलने लगा कि लोग पहले की बनिस्बत कितने कम आए। फिशरीज़ डिपार्टमेन्ट द्वारा दवाई के लिए बेची गई मछलियों के बीजों का हिसाब मालूम किया जाने लगा। पहले के मु़काबले कितने किलो या कितने टन या मन दवा बनी, आदि सवाल उठाये गये। इसमें दवाई शब्द पर इतना तूफ़ान खड़ा किया गया कि आस्था और विश्र्वास वालों ने मछली की दवाई की जगह उसका नाम बदलकर मछली प्रसादम् कर दिया। ठीक ही किया, जिन्हें भरोसा है प्रसादम् के तौर पर लेते हैं। फिलहाल जब तक देश में प्रसादम् पेटेन्ट कानून से और उसमें क्या सामग्री पड़ी है, उसका ब्यौरा दर्ज करने की मजबूरी से आज़ाद है, तब तक प्रसादम् चलेगा। आइए, इस इतवारियत पर इसी बिन्दु से आगे बढ़ते हुए, ऊपर उठे सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश की जाए।
बात शुरू करते हैं योग गुरु बाबा रामदेव के एक प्रश्र्न्न से। वह कहते हैं कि विज्ञान कहता है कि असंभव कुछ भी नहीं है। और वह सवाल करते हैं, तब क्या वजह है कि योग से रोगों के मिटने की बातों को वे नहीं मानते। ऐसा वैज्ञानिक दुराग्रह वस्तुतः उन्हीं क्षेत्रों में है, जहॉं उसका प्रयोग और अनुप्रयोग जन-सामान्य से जुड़ा हुआ है। बाबा रामदेव जी से हम यह कहना चाहेंगे कि योग और प्राणायाम को अवैज्ञानिक बताने वाली मेडिकल बिरादरी तो अपने ही ़कुनबे के फ़ैसलों पर सवालिया निशान लगा देती हैं। एक डॉक्टर अपने चिकित्सा विज्ञान के ज्ञान के आधार पर एक दवा देता है। और दूसरा डॉक्टर उसे बदल देता है। और शायद आप भी यह महसूस कर चुके होंगे कि हर चिकित्सा वैज्ञानिक के लिए रोगी महज़ एक प्रयोगशाला होता है लैब। ट्रायल और एरर के सिद्धांत पर प्रायः सारे डॉक्टर, चाहे जिस विधा के हों, काम करते हैं। यह दवाई नहीं काम कर रही है, तो शायद वह काम कर जाए, मरीज़ इस दवा पर रिस्पांड नहीं कर रहा है, तो दवा बदल दी जाए। शल्य-चिकित्सा में भी (जो बहुत उत्कृष्टता प्राप्त कर चुकी है) प्रयोग और परिवर्तन होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि असम्भव कुछ नहीं होता, मानने वाला विज्ञान भी खुद सम्भावनाओं की तलाश में जुटा रहता है। ऐसे में यह सवाल, हमारा ख्याल है कि सबको अपने आप से पूछना चाहिए कि कोई वैकल्पिक इलाज यदि सौ-डेढ़ सौ साल से बिना किसी बदलाव के जारी है, तो लोग उस पर विश्र्वास क्यों न करें? मछली-प्रसाद का विरोध करने वाले विज्ञानी-ज्ञानियों से क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए? इस पर आपका क्या जवाब होगा, हमें पता नहीं। लेकिन हमारे दोस्त अबुद ने इस सवाल का जो जवाब दिया वह यह है कि हर इन्सान अपने ही दायरों का ग़ुलाम होता है। और हमारा जवाब यह है कि विज्ञान वस्तुतः ज्ञान का उच्छिष्ट मात्र है। इसलिए वह ज्ञान से बड़ा तो कभी हो ही नहीं सकता।
अब आइए, दूसरे सवाल पर। अबुद मानता है कि अल्लाह की बनाई हुई हर चीज़ काम की है। चाहे वह दवाई के साथ खिलाई जाने वाली मछली हो, चाहे विश्र्वास के साथ पहना जाने वाला ताबीज और ज़बान पर रख ली जाने वाली चुटकी भर रा़ख या भभूत और हमारा मानना यह है कि प्रकृति ने यदि विष भी पैदा किया है तो वह भी प्राणि जगत के कल्याण के लिए ही है। नुकसान और फायदा तो उस पदार्थ के इस्तेमाल के तौर-तरी़के में होता है। मसलन, शहद और घी दोनों फायदेमंद हैं। लेकिन दोनों की समान मात्रा एक साथ मिलाकर लेने पर मिश्रण विष हो जाता है। इसलिए हमें यह मान लेना चाहिए कि डेढ़ सौ वर्षों से अपनी लकीर पर बिना ट्रैक बदले सफ़र कर रहा इलाज सवालिया निशानों के घेरे से परे है। फिर जो ज्ञान और पदार्थ मेला सजा दे, जो रंग जमा दे उसका स्वागत होना चाहिए और जो विज्ञान मेला उजाड़ दे, उसका विरोध।
– रवि श्रीवास्तव
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