भले ही चीन के विदेशमंत्री अब स्पष्टीकरण दे रहे हैं कि एनएसजी में उन्होंने भारत का विरोध नहीं किया था, लेकिन असलियत यही है कि चीन कोपभवन में था। पहले पर्दे के पीछे से, फिर सामने आकर चीन ने विरोध किया और आखिर में अमेरिकी राष्टपति के चीन के राष्टपति को टेलीफोन करने से वह नरम पड़ा। लेकिन वहॉं से वॉकआउट कर चीनी प्रतिनिधिमंडल ने अपनी नाखुशी स्पष्ट कर दी। वह देख रहे हैं कि भारत को पाकिस्तान के साथ उलझाए रखने की उसकी नीति के चिथड़े उड़ गए हैं। उल्टे दुनिया ने भारत को चीन के बराबर खड़ा कर दिया है। हम चीन के साथ टकराव नहीं चाहते। विदेशमंत्री ने कहा भी है कि दोनों पुरानी सभ्यताएं हैं, पर हम ऐसा एशिया भी नहीं चाहते जिसका हवलदार चीन हो। हम चीन की हरकतों को ऩजरंदा़ज भी नहीं कर सकते हैं। पाकिस्तान चीन की मदद के बिना परमाणु ताकत नहीं बन सकता। पाकिस्तान की परमाणु मदद, ग्वादर तथा म्यांमार में नौसेना के अड्डे, अरुणाचल प्रदेश पर दबाव तथा अब वादे के विपरीत वियना में रुकावट। जिस देश ने परमाणु प्रसार करते हुए पाकिस्तान जैसे अस्थिर देश को परमाणु ताकत बना दिया वही हमारे परमाणु स्तर को लेकर आपत्तियां दर्ज करवा रहा था। वे भूल गए कि संयुक्त राष्ट में उनकी हमने कितनी मदद की थी। दरअसल वह पहचान गए हैं यह करार भारत को ताकत देने के लिए किया जा रहा है। चीन सदैव यह प्रभाव देता रहा कि भारत उसकी कतार में नहीं है, इसलिए अब तकलीफ हो रही है। चीन को छोड़ कर भारत के अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी, ाांस जैसे देशों के साथ रिश्ते मजबूत होंगे। अच्छी बात है। “हमारे’ कामरेड कितना भी चाहें, हम क्यूबा जैसे तीसरी दुनिया के देशों की पंक्ति में नहीं रह सकते।
इस दुनिया में ताकत का ही महत्व है। सब देख रहे हैं कि केवल हमारे लिए एनएसजी ने अपवाद किया है। 34 वर्ष पहले जिस एनएसजी ने हमें परमाणु अछूत घोषित किया था उसी एनएसजी ने हमें एक सम्मान योग्य परमाणु ताकत स्वीकार कर लिया है। जिस ते़जी से भारत के लिए परमाणु नियम बदले गए वह सचमुच हैरान करने वाला है। पोखरण द्वितीय के बाद हमें बुरी तरह लताड़ा गया। गालियां निकालने में सबसे आगे अमेरिकी राष्टपति बिल क्ंिलटन थे। उन्हीं के उत्तराधिकारी जॉर्ज बुश ने भारत के लिए रास्ता खोल दिया है। भारत आज उन छह देशों में से एक है जिनके पास अपने परमाणु हथियार भी हैं और जो परमाणु कारोबार भी कर सकते हैं। यह जॉर्ज बुश के प्रयास के बिना सम्भव नहीं होता। बुश दुनिया में बहुत लोकप्रिय नहीं हैं लेकिन उन्होंने बहुत पहले भारत की बढ़ती ताकत को पहचान लिया था और मनमोहन सिंह की ही तरह अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाकर इस करार को सफल करवाया। अमेरिकी राष्टपति के पद की पूरी ताकत उन्होंने इसे िायान्वित करवाने में झोंक दी। इसका यह भी अर्थ है कि अमेरिका को भारत की बढ़ती ताकत पर एतरा़ज नहीं। वह समझ गए कि दुनिया में सत्ता का संतुलन कायम रखने के लिए “राइजिंग इंडिया’ की ़जरूरत है। परमाणु अप्रसार तथा नियंत्रण के लिए काम कर रही एक एसोसिएशन के निदेशक डैरेल किम्बले ने शिकायत की है कि प्रतिरोध कर रहे तीन देशों को “बुरी धमकियों, गलत सूचना तथा धौंस के साथ खामोश कर दिया गया।’ जो भी हो, उसी समय कोई शक नहीं रह गया कि कम समय के बावजूद 123 समझौते को अमेरिकी कांग्रेस की हरी झंडी मिल जाएगी। अमेरिकी राष्टपति जब कुछ चाहते हैं तो वह उसे प्राप्त कर लेते हैं। कितने दुःख की बात है कि जब यही जॉर्ज बुश भारत आए तो उन्हें कामरेडों ने संसद को संबोधित नहीं करने दिया। भारत के लिए बुश से अधिक मैत्रीपूर्ण अमेरिकी राष्टपति नहीं हुए।
चीन को तकलीफ हो रही है तो “हमारे’ कामरेडों का पेट-दर्द होना ला़िजमी है। जो हमारे परमाणु विस्फोटों का विरोध करते रहे उन्हें अब शिकायत है कि हम परमाणु विस्फोट नहीं कर सकेंगे! मक्कारी की भी हद होती है!
असली अफसोस और दुःख तो ये है कि भारतीय जनता पार्टी को इस करार को लेकर इतनी तकलीफ हुई है। जो पार्टी राष्टवाद का दम भरती है, वह न चाहते हुए आज देश के विरोधियों के हितों की मददगार कैसे बन गई? करार के विरोध में भाजपा चीन के साथ कैसे खड़ी हो गई? जिस वक्त इतनी संवेदनशील वार्ता चल रही थी, रो़जाना अपनी सरकार को गाली निकालना गैर ़िजम्मेदारी की इंतहां नहीं तो क्या है? सभी प्रमुख वैज्ञानिक इसे समर्थन दे रहे हैं, पर भाजपा के नेता चीख रहे थे कि देश को बेच डाला। प्रकाश करात, ए.बी. बर्धन, डी. राजा जैसे लोगों की सोहबत में भाजपा के नेता खुद को असहज नहीं महसूस कर रहे? पार्टी अपने समर्थकों से पूछे तो पता चलेगा कि लोग किस तरह धिक्कार रहे हैं। विदेशी मामलों पर सदैव राष्टीय समन्वय रहा है। भाजपा ने इसे तोड़ डाला। ऐसा करके देश की उन्होंने क्या सेवा की? इसी करार को लेकर अमेरिका की विरोधी डेमोोटिक पार्टी ने बुश प्रशासन को खुला सहयोग दिया लेकिन जिस भाजपा ने अमेरिका के साथ बेहतर रिश्तों की नींव रखी थी वह विलाप कर रही थी। भारत एक महाशक्ति बन रहा है। भारत की इस जय-यात्रा का नेतृत्व मनमोहन सिंह कर रहे हैं। भाजपा भी साथ चल सकती थी लेकिन पार्टी ने ज्योति बसु की भाषा में “ऐतिहासिक भूल’ कर डाली।
शिकायत है कि हम और परीक्षण नहीं कर पाएंगे। पर परीक्षण पर स्वैच्छिक पाबंदी खुद वाजपेयी सरकार ने लगाई थी क्योंकि इसकी अब ़जरूरत नहीं है। अगर कल को चीन या पाकिस्तान ऐसा करते हैं तो कौन हमें परीक्षण करने से रोक सकता है, यह बात अब्दुल कलाम ने भी कही है। कोई हमें पोखरण एक या दो करने से रोक सका? हॉं, उसकी कीमत हमें चुकानी पड़ी। भविष्य में अगर कोई प्रधानमंत्री परीक्षण करना चाहे तो उसे इसके परिणामों का ध्यान रखना होगा। और यह भी नहीं कि हम सब कुछ अमेरिका के भरोसे छोड़ रहे हैं। रूस और ाांस जिसकी 70 प्रतिशत ऊर्जा की ़जरूरतें परमाणु ऊर्जा से पूरी हो रही हैं, से भी हम अनुबंध कर रहे हैं। भाजपा के संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, जसवंत सिंह खामोश हैं और राष्टहित से जुड़े इस अत्यंत ना़जुक मामले पर पार्टी की प्रतििाया व्यक्त करने की जिम्मेवारी पार्टी के यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे लोगों पर छोड़ दी गई।
यह सही है कि इस समझौते से अमेरिका को भी बहुत फायदा होगा। अरबों डालर के परमाणु रिएक्टर खरीदने के मामले में उसे प्राथमिकता दी जायेगी, जिसकी शिकायत यशवंत सिन्हा कर चुके हैं। अंतर्राष्टीय रिश्तों में कुछ मुफ्त नहीं मिलता, पर याद रखने की बात है कि अमेरिका नहीं चाहता तो यह सम्भव न होता। रूस की इतनी हिम्मत या ताकत नहीं है। निःसंदेह इस समझौते से दुनिया बदलेगी। 21वीं सदी का सत्ता का जो संतुलन पॉंच बड़ी ताकतों पर आधारित था उसे अब छठी भुजा मिल रही है। हम परमाणु क्लब के सदस्य बन रहे हैं। यह हकीकत है कि अगर भारत एक उभरती ताकत न होता तो हमें यह करार न मिलता। हमारे अपूर्ण लोकतंत्र के बावजूद हमारी ताकत को मान्यता मिल गई है। भाजपा, जो खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे जैसा बर्ताव कर रही है, अब भी भूल सुधार कर सकती है। नहीं तो वह प्रकाश करात के साथ खड़े हो ऊँची आवा़ज में कहना शुरू कर दे कि हमारी सरकार आयेगी तो हम यह अनुबंध तोड़ डालेंगे।
इसे निर्णायक ऐतिहासिक क्षण या ाांति जो भी कहें, साफ है कि एनएसजी से छूट प्राप्त करना और अंततः अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की मंजूरी प्राप्त करना भारत की बहुत बड़ी छलांग है। इससे 1974 के बाद से भारत का परमाणु अलगाव खत्म हुआ है, परमाणु कारोबार का रास्ता खुल गया। सीटीबीटी या एनपीटी पर हस्ताक्षर किए बिना हमें परमाणु ताकत स्वीकार कर लिया गया। जैसा प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने संसद में वादा किया था, भारत ने एक भी रियायत नहीं दी। यह डॉ. मनमोहन सिंह की बहुत बड़ी जीत है। उन्होंने अपनी सरकार को दांव पर लगाकर इसे हासिल कर लिया। ऐसा जुआ सफल हुआ जहॉं पत्ते दूसरों के हाथ में थे! प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और उनकी टीम को बधाई! तीन साल में उन्होंने वह कर दिया जिसकी कुछ वर्ष पहले तक कल्पना ही नहीं थी। यह भी सुखद संयोग है कि देश की अर्थव्यवस्था को भी मनमोहन सिंह ने आ़जाद किया था, विदेश नीति को भी अतीत के बंधनों से उन्होंने मुक्त कर दिया। काश! देश की आंतरिक समस्याओं के बारे में भी वह इसी तरह दृढ़ता दिखाएं। फिलहाल तो जश्र्न्न मनाने का समय है।
– चन्द्रमोहन
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