विश्वास-मत की सच्चाईयॉं

विश्र्वास-मत हासिल करने की बात रही हो अथवा अविश्र्वास प्रस्ताव, संसदीय परंपरा यही रही है कि संपन्न हुई बहस का जवाब अंत में प्रधानमंत्री द्वारा दिया जाता है और उसके बाद मतदान होता है। लेकिन विश्वास मत पर आहूत किये गये 21-22 जुलाई के विशेष सत्र के दौरान विपक्ष ने उनको इस संवैधानिक अधिकार से वंचित कर दिया। प्रधानमंत्री को अपना भाषण पढ़े बिना ही सदन-पटल पर रख देना पड़ा। कारण कि समूचा विपक्ष एक कर्णभेदी नारा उछालने में मशगूल था। यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रधानमंत्री के इस भाषण के कुछ ही देर बाद विश्र्वास मत पर मतदान होना था, जिसका उपयोग कर विपक्ष बहुत आसानी से प्रधानमंत्री को उनके पद से हटा सकता था। खूबी यह कि विश्र्वास मत हासिल करने का प्रस्ताव भी विपक्ष का ही था जिसे प्रधानमंत्री ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया था। लेकिन उस अंतिम मुकाम तक पहुँचने का धैर्य न दिखाते हुए सदन में समूचा विपक्ष एक स्वर में नारे लगाता, नैतिकता के आधार पर प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांग रहा था। अब इसे नैतिकता कहें या अनैतिकता कि महज एकाध घंटे के बाद जिन लोगों की पहल पर प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को अपदस्थ करने की कार्यवाही होने वाली थी, उनका अधैर्य इस कदर फूट पड़ा कि वे उसके पहले ही उनसे इस्तीफे की मांग करने लगे। परिणाम स्वरूप प्रधानमंत्री, जो सदन के नेता होते हैं, किसी राजनीतिक दल मात्र के नहीं, अपना उत्तर माननीय सांसदों को संप्रेषित नहीं कर सके।

ऐसा हुआ भी तो एक नाटकीय घटनााम के चलते। भाजपा के तीन सांसद सदन में अकस्मात प्रकट हुए और एक बैग से निकाल कर ह़जार-ह़जार के नोटों की गड्डियॉं लहराने लगे। उनका आरोप था कि सरकार के प्रबंधकों ने यह धनराशि उन्हें संसद से अनुपस्थित रहने के लिए दी है। उन्होंने यह भी बताया कि प्रत्येक को एक-एक करोड़ रुपया अग्रिम दिया गया है और सौदा तीन करोड़ पर तय हुआ है। बाकी की राशि काम हो जाने के बाद। उन्होंने यह भी बताया कि इसकी पहल सपा के अमर सिंह और खेतीरमण सिंह तथा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के निजी सचिव अहमद पटेल की ओर से हुई है। एक टीवी चैनल ने यह भी दावा उछाल दिया कि उसने स्ंिटग ऑपरेशन किया है, जिससे यह सिद्घ होता है कि ़खरीद-फरोख्त हुई है। मगर उसने सीडी का प्रसारण न कर उसे लोकसभाध्यक्ष को सौंपने की बात कही और लोक सभाध्यक्ष ने संसद से वादा किया कि वे इसकी विधिवत जॉंच कर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे। उन्होंने यह भी निर्णय दिया कि इसके चलते विश्र्वास मत की प्रिाया को रोका नहीं जा सकता। अब इस विषय में क्या कहा जाय कि जिस सर्वदलीय बैठक में यह निर्णय हुआ, उसमें भाजपा भी अपने अन्य सहयोगी दलों के साथ उपस्थित थी। मगर सदन की कार्यवाही दुबारा शुरू होते ही भाजपा और राजग ने भीषण शोर-शराबा के साथ प्रधानमंत्री से नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र मांगना शुरू कर दिया। इसके चलते प्रधानमंत्री को अपना भाषण पढ़ पाना कठिन हो गया और उन्होंने दो-चार वाक्य पढ़ने के बाद दस्तावे़ज सदन को सौंप दिया।

हैरत की बात यह है कि वामदलों सहित प्रधानमंत्री ने राजग तथा बसपा और तीसरे मोर्चे की विश्र्वास मत हासिल करने की मॉंग को अपनी ओर से स्वीकृति दी थी। इसका एक अर्थ यह भी है कि उन्हें यह अधिकार भी सौंपा कि अगर उनका सदन में बहुमत सिद्घ नहीं होता है तो वे वैधानिक तरीके से उनकी सरकार को अपदस्थ कर सकते हैं। लेकिन इस प्रिाया के अंतिम बिन्दु तक पहुँचने के पहले ही उनसे इस्तीफा देने की मॉंग की जाने लगी। वह भी नैतिकता के आधार पर। इसका मतलब तो यही हो सकता है कि प्रधानमंत्री स्वीकार करें कि ़खरीद-फरोख्त की इस कार्यवाही में उनकी भी संलिप्तता है। इसका एक कोण यह भी है कि आरोपकर्त्ताओं ने खुद को न्यायाधीश भी मान लिया। अभी दावे के साथ और प्रामाणिक तौर पर कोई यह नहीं कह सकता कि घटना के पीछे का वास्तविक सत्य क्या है? इसका फैसला सिर्फ आरोप लगाने से नहीं हो सकता। इसकी प्रामाणिकता सिद्घ करने के लिए बस एक ही सबूत उपलब्ध है और वह है स्ंिटग ऑपरेशन की सीडी। उसके भीतर के तथ्यों का खुलासा करने से चैनल सीएनएन-आईबीएन ने इन्कार कर दिया है और लोकसभाध्यक्ष इसकी विधिवत जॉंच करने के बाद ही अपना अभिमत प्रकट करेंगे। ऐसी अवस्था में संभावना दोनों कोण पर बनी हुई है कि यह वास्तविक भी हो सकती है और प्रायोजित भी हो सकती है। अगर सारे परीक्षणों के बाद आरोप सही सिद्घ होते हैं तो प्रधानमंत्री से नैतिकता के आधार पर इस्तीफा मॉंगना किसी प्रकार नाजायज नहीं कहा जा सकता। उसके पहले अगर उनसे इस्तीफे की नैतिकता की दुहाई दे कर मॉंग की जाती है तो इसे राजनीतिक छिछोरापन ही कहा जा सकता है।

यह और बात है कि संसद में नोटों का बंडल लहरा-लहरा कर वोट खरीदने का आरोप लगाने वाले तीन सांसदों में से एक सांसद फुग्गा सिंह का खुद का इतिहास पहले से बिकाऊ सांसदों के इतिहास में शामिल है। उन पर पैसा लेकर संसद में सवाल पूछने का आरोप था, जिसके चलते उन्हें भाजपा ने पार्टी से निकाल भी दिया था। यह महोदय तब कुछ ह़जार रुपयों में बिक गये थे। हैरत होना स्वाभाविक है कि जो आदमी अपने को कुछ ह़जार के लिए बेच चुका हो, वह तीन करोड़ की पेशकश इतनी आसानी से कैसे ठुकरा सकता है। ईमानदारी और नैतिकता के बोध ने अगर उनका इस हद तक हृदय-परिवर्तन कर दिया है, तो इसे स्वागत योग्य स्वीकार किया जा सकता है। लेकिन असलियत का पर्दाफाश होना अभी बाकी है। अतएव सिर्फ आरोप के आधार पर किसी को चोर और किसी को साव तस्लीम कर लेना स्वयं अपने आप में एक बड़ी अनैतिकता होगी।

प्रधानमंत्री को भाषण पढ़ने से भले रोक दिया गया हो लेकिन विपक्ष की सारी ताकतें इकट्ठा होकर भी उन्हें विश्र्वास मत हासिल करने से नहीं रोक सकीं। मीडिया हफ्तों तक एक-एक वोट की गणना करता रहा और बताता रहा कि लड़ाई बिल्कुल बराबरी की है। लेकिन परिणाम ने सबको चौंका दिया। मनमोहन सरकार की जीत 19 वोटों के भारी मार्जिन से सामने आई। जिस पक्ष ने अनैतिक खरीद-फरोख्त का आरोप सबसे आगे बढ़ कर उछाला, सबसे अधिक उसी पक्ष के सांसदों ने सरकार के पक्ष में ाॉस-वोटिंग की। इसके अलावा अनुपस्थित रह कर परोक्षतः अपना समर्थन सरकार को देने वालों में भी अधिकतम इसी खेमे के लोग रहे। यह हैरत की बात नहीं तो क्या है कि अगर तेदेपा के दो सांसदों को अलग कर दिया जाय तो इस गतिविधि में शामिल सभी लोग राजग खेमे के हैं। उसमें भी सबसे ज्यादा भाजपायी शामिल हैं। भाजपा सहित राजग में शामिल शिवसेना, अकाली दल, जद (यू) और बीजद के सांसदों ने मनमोहन सरकार को बनाये रखने में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद की है। अगर भाजपा और राजग के इस आरोप को स्वीकार भी लिया जाय कि सांसदों को भारी रकम देकर खरीदा गया, तो फिर एक सवाल यह भी उठना लाजमी है कि क्या इन दलों के सांसदों की निष्ठायें इतनी कमजोर हैं कि उन्हें पैसे के तराजू पर तौला जा सकता है।

भाजपा अक्सर अपनी इस विशेषता पर इतराती फिरती है कि चाल, चेहरा और चरित्र के मामले में वह सबसे अलग है। लेकिन संसद में पैसा लेकर सवाल पूछने का मामला रहा हो अथवा कबूतरबाजी का, हमेशा इस मामले में उसके सांसदों ने अपने को सबसे अगली कतार में रखा है। अब इस विश्र्वास मत पर भी, ़खुद उसके आरोपों के साये में, बिक जाने वाले सर्वाधिक लोग उसके ही हैं। वह ़खरीदार को तो नैतिकता की कसौटी पर कसते हुए अऩैतिक सिद्घ करती है लेकिन ़खुद को बेचने वाले को वह निर्दोष, दूध का धुला और निरीह सिद्घ कर रही है। जबकि नैतिकता की तराजू पर तौला जाय तो जितना बड़ा गुनहगार खरीदने वाला सिद्घ होगा उससे छोटा गुनहगार अपनी निष्ठा और ईमान बेचने वाला भी कदापि नहीं होगा। भाजपा अपने राजग के साथियों के साथ 2009 की चुनावी जंग जीतने की तैयारी में जुटी है, क्या इस मुकाम पर उसे यह आत्म-मंथन करने की ़जरूरत नहीं है कि जिन निष्ठाओं के साथ वह समर भूमि में उतरने जा रही है, वे निष्ठायें ठोस हैं या खोखली हैं?

सरकारी प्रबंधकों पर सांसदों की खरीद-फरोख्त के लगाये जाने वाले आरोप सही भी हो सकते हैं और गलत भी हो सकते हैं, लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि निष्ठायें देशहित में नहीं बदली गई हैं। इस तरह निष्ठाओं की अदला-बदली हमारे लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करती है। लेकिन विसंगति यह है कि मौजूदा दौर की दलीय राजनीति ने या तो पार्टी सिद्घांतों के प्रति निष्ठावान लोगों को बाहर कर दिया है अथवा उन्हें महत्वहीन बना दिया गया है। हर कहीं मतलबपरस्त और अवसरवादी लोगों की जमात इकट्ठा है, जो पैसे-रुपये पर भले न बिके, लेकिन अपने निजी फायदे के चलते निष्ठा को ताक पर रख देने से परहेज भी नहीं करती। हॉं, जहॉं निष्ठा आज भी जीवित है उसे कोई भी दाम देकर नहीं खरीदा जा सकता। यह सोचने की बात है कि जहॉं पक्ष-विपक्ष के बहुतेरे दलों ने इस विश्र्वास मत के दौरान अपनी निष्ठायें बदलीं, वहीं वामपंथी दलों के एक भी सिपाही को कोई विचलित नहीं कर सका।

 

– रामजी सिंह “उदयन’

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