संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून का कहना है, “आज ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु में बदलाव ने हमें विनाश के मुहाने पर ला खड़ा किया है।’ इसमें दो राय नहीं कि इसके लिए वास्तव में हम ही जिम्मेदार हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि इसके भयावह खतरे को हम गंभीरता से समझ नहीं पा रहे हैं। असलियत में यदि इस दशा में समय रहते शीघ्र ठोस प्रयास नहीं किए गए तो बहुत देर हो जाएगी। उस समय तक पर्यावरण संतुलन इतना गड़बड़ा जायेगा कि फिर उसको संभाल पाना किसी के बस में नहीं होगा। यह समूचे विश्र्व के पर्यावरण के लिए गंभीर चुनौती है और धरती के लिए भीषण खतरा।
आईपीसीसी के अध्यक्ष व पर्यावरणविद आरके पचौरी का भी कहना है, “जलवायु परिवर्तन मानव निर्मित समस्या है, इसलिए दुनियाभर में सामूहिक प्रयास किए जाने की ज़रूरत है। सभी सरकारें व जनता इन खतरों को पहचानें और पर्यावरण संरक्षण के लिए एकजुट होकर कदम बढ़ायें। तभी कुछ सार्थक नतीजों की आशा की जा सकती है।’ स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। अमेरिकी वैज्ञानिकों की संस्था नेशनल सेंटर फॉर ऑटमॉस फेरिक रिसर्च के ग्रेग हॉड और जार्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के पीटर बेवस्टर के अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन का असर न केवल धरती पर बल्कि हवा के रुख और समुद्र के तापमान पर भी हुआ है। इसके परिणामस्वरूप अटलांटिक महासागर में प्रतिवर्ष आने वाले समुद्री तूफानों की संख्या पिछले सौ सालों में दोगुनी हो गई है। 1990 के बाद आये तीन काल खंडों में समुद्री तूफानों और उष्ण कटिबंधीय आंधियों की संख्या में नाटकीय रूप से तेजी से बढ़ोत्तरी हुई और उसके बाद तो इसमें इजाफा होता ही चला गया है।
संयुक्त राष्ट्र सहित दुनिया के अधिकतर सरकारी गैर-सरकारी व निजी संस्थानों के हालिया अध्ययन एवं शोध इसकी पुष्टि करते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग का ही प्रभाव है कि आज महासागरों एवं सागरों में मौजूद बर्फीली चट्टानों (आईसबर्ग) का उन्मुक्त बहते रहना पर्यावरण संतुलन के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहा है। समुद्र में तैरते यह आइसबर्ग अपने आसपास मौजूद पानी से अधिकतम मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड का अवशोषण कर लेते हैं और ग्लोबल वार्मिंग से जब यह आइसबर्ग पिघलते हैं, तो इससे निकलने वाले खनिज पदार्थों को समुद्र में मौजूद जलीय वनस्पतियां अवशोषित कर लेती हैं। इसके बाद उत्सर्जन के दौरान कार्बन डाई ऑक्साइड समुद्र तल पर तैरने लगता है जो समुद्री जीवन के लिए बेहद हानिकारक है।
पर्यावरणविद अनुपम मिश्र कहते हैं कि धरती का तापमान बढ़ने से उत्तर और दक्षिणी ध्रुवों पर जमा बर्फ पिघलेगी जिससे समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा जो समूची दुनिया के लिए एक खतरनाक घटना होगी। मिश्र का कहना सही है। असलियत में तापमान वृद्धि के परिणाम स्वरूप प्रशांत महासागर में छोटे द्वीपीय देश तुलावु के अधिकांश हिस्से समुद्र के बढ़ते जल-स्तर के कारण डूब चुके हैं। बीते छह दशकों में बर्फ के ध्रुवीय क्षेत्रों में आई गिरावट ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है। हिमालयी पर्वतमाला में भी इसका प्रभाव दिखाई दे रहा है। वहां ग्लेशियरों का तेजी से सिकुड़ना, वृक्षरेखा का ऊपर की ओर बढ़ना, बीती सदी में गंगा के उद्गम स्थल गोमुख ग्लेशियर का तकरीबन 19 किमी से भी ज्यादा सिकुड़ना व उसकी सिकुड़न की बढ़ोत्तरी की गति 98 फुट प्रतिवर्ष की दर से बढ़ना इसी का नतीजा है। यदि यह इसी रफ्तार से पिघलते रहे तो सन् 2035 तक हिमालय व मध्य-पूर्व के समूचे ग्लेशियरों का अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि हमने वैश्र्विक तापमान बढ़ोत्तरी पर काबू नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब दुनिया के कई और छोटे देश ही नहीं, बड़े देशों के बारे में भी ऐसी ही खबरें सुनने को मिलेंगी और मानव सभ्यता पर मंडराते खतरे से निपटने में बहुत देर हो जायेगी। यह आपदा पृथ्वी की पूरी जलवायु और पर्यावरण को तहस-नहस कर देगी।
इसे विडम्बना कहें या दुर्भाग्य कि विकसित देश ही सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने के दोषी हैं और वही पर्यावरण संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठाने के सवाल पर सबसे ज्यादा आनाकानी करते हैं। क्योटो संधि पर अमेरिका का हस्ताक्षर करने से इन्कार कर देना इसका सबसे बड़ा सबूत है। अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा 47 देशों में कराये गए सर्वेक्षण में ग्लोबल वार्मिंग के लिए 34 देशों ने एक सुर में अमेरिका को ही जिम्मेवार ठहराया है। आंकड़े गवाह हैं कि केवल वर्ष 2004 में दुनिया में 27 अरब टन कार्बन डाई आक्साइड गैस के उत्सर्जन में अमेरिका का योगदान 5.9 अरब टन, चीन का 4.7, रूस का 1.7, जापान 1.3 और भारत का 1.1 अरब टन था।
भले कार्बन डाई आक्साइड गैस के उत्सर्जन में भारत का योगदान 1.1 अरब टन ही क्यों न हो, लेकिन यह सच है कि ग्लोबल वार्मिंग का असर तो हम पर भी पड़ेगा। यह बात दीगर है कि वह हमारी जमीन से उठी हो या फिर अमेरिका या चीन से। इसलिए अब ज़रूरत इस बात की है कि भारतीय नेतृत्व अपना यह तर्क बदले कि पहले पश्र्चिमी देश अपना उत्सर्जन कम करें, फिर हम करेंगे। बेहतर होगा कि हम अपनी ओर से ऐसी पहल करें जो विकसित देशों के लिए भी अनुकरणीय हो। यह सच है कि तापमान बढ़ोत्तरी का मुख्य कारण ग्रीनहाउस गैसें हैं जिसकी अमेरिकी पर्यावरण एजेन्सी भी पुष्टि करती है। हालात की भयावहता की ओर इशारा करते हुए “क्रिश्र्चिन एड’ संस्था की रिपोर्ट कहती है कि मौसम के बदलाव के कारण आने वाले दिनों में आजीविका के संसाधनों यानी पानी की कमी और फसलों की बर्बादी के चलते दुनिया के अनेक भागों में स्थानीय स्तर पर जंग छिड़ने से सन् 2050 तक एक अरब निर्धन लोग अपना घर-बार छोड़ शरणार्थी के रूप में रहने को मजबूर होंगे। यूएन की अंतर सरकारी पैनल की रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 3.2 अरब लोग पानी की तंगी से, 60 करोड़ लोग भोजन और तटीय इलाकों के 60 लाख लोग बाढ़ की समस्या से जूझेंगे। कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक स्टीफन मोर्स के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव मलेरिया, फ्लू आदि बीमारियों के वितरण और संचरण में प्रभाव लाने वाला साबित होगा और ये पूरे साल फैलेंगी। पहाड़ों पर ठंड के बावजूद मलेरिया फैलेगा।
अणुव्रत अनुशास्ता और जैन श्र्वेताम्बर तेरापंथ के आचार्य महाप्रज्ञ का कहना है, “यथार्थ में उपभोगवाद और सुविधावाद ने पर्यावरण की समस्या को और जटिल बना दिया है। इस मनोवृत्ति पर नियंत्रण परमावश्यक है। आज व्यक्ति, समाज और पदार्थ के चारों ओर अर्थ और पदार्थ परिामा कर रहे हैं। इसलिए आज मानव जाति के अस्तित्व की रक्षा और इस भूमंडल को संभाव्य खतरों से बचाने के लिए ज़रूरी है कि हम सभी संयम प्रधान जीवन शैली का अनुसरण और संकल्प करें।’
मौजूदा खतरे के लिए पश्र्चिमी या विकसित शक्तिशाली राष्ट्रों के साथ-साथ हम भी उतने ही दोषी हैं जितने अमेरिका, चीन, रूस और जापान। “भारत विश्र्व में सबसे कम प्रदूषण करने वाला देश है और भारत की हिस्सेदारी विश्र्व कार्बन प्रदूषण में मात्र चार फीसदी ही है,’ कहने मात्र से हमारी जिम्मेवारी कम तो नहीं हो जाती। जबकि सीएफसी रसायनों का प्रयोग देश में आजादी से 20 साल पहले ही शुरू हो गया था और फिर 1950 के बाद इसमें आयी तेजी में भी भारत का योगदान कम नहीं है। यह हमें ध्यान में रखना होगा। फिर भी हमारी सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र “सेज’ और अर्थव्यवस्था की बेलगाम तेज रफ्तार पर निसार है। उसे न विश्र्व बैंक की चिंता है, न संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी पैनल की और न सुप्रीम कोर्ट की, जिसने पर्यावरण सुधारने और उसके प्रति आम लोगों को जागरूक बनाने के बाबत कई बार निर्देश दिए हैं। पर्यावरणविद आरके पचौरी का कहना बिल्कुल सही है कि यदि हमें पर्यावरण सुधारना है, वायुमंडल को प्रदूषण से बचाना है तो हमें संयम बरतना होगा। वह संयम भोग की मर्यादा का हो, नीति के पालन का होना चाहिए, तृष्णा पर अंकुश का होना चाहिए, प्राकृतिक संसाधन यथा मिट्टी, जल, खनिज, वनस्पति आदि के उपयोग में होना चाहिए, तभी विश्र्व में शांति और स्थायित्व संभव है अन्यथा नहीं।
– ज्ञानेन्द्र रावत
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