विषम राष्टीय स्थिति और दिग्भ्रमित मीडिया

वैसे तो पूरी दुनिया में लेकिन विशेष रूप से भारत में मीडिया पूरे समाज का पौष्टिक मानसिक आहार बन गया है। हमारी सूचनाओं, सोच-समझ, विश्लेषण इत्यादि सब कुछ के निर्धारण में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह बौद्घिक खुराक अभूतपूर्व विश्र्वविद्यालय की तरह काम करती है। इसके पहले इतिहास में ऐसा कोई विश्र्वविद्यालय नहीं था। करीब-करीब 80 प्रतिशत भारतीय इससे प्रभावित होते हैं। प्रभावित होने का अर्थ यह कि अच्छे-बुरे दोनों तरह के प्रभावों से उनका दिमाग बनता है।

वैसे कहने को यह कहा जा सकता है कि भले ही प्रभाव पड़ता हो लेकिन व्यक्ति अपने से सम्बंधित तमाम निर्णय स्वयं करता है। यह बात ऊपर से देखने पर तो ठीक लगती है लेकिन कोई थोड़ा बारीकी से देखे तो साफ नजर आएगा कि इस या उस मीडिया से उसका निर्णय प्रभावित होता है। सच यह है कि हम 24 घंटे मीडिया की महाधारा में जाने-अनजाने प्रवाहमान होते रहते हैं। सुबह के अखबार से लेकर रात को सोने के समय तक टेलीविजन के समाचारों और फीचरों को देखते रहते हैं। कदाचित सोने के समय भी अवचेतन मन में मीडिया का प्रभाव अवश्य होता है। हम जो कपड़े पहनते हैं, हम जो खाते हैं, हम जो लिखते-पढ़ते हैं, हम जो पर्यटन स्थलों पर जाते हैं, हम जो कार खरीदते हैं, हम जो रिश्ते-नाते बनाते हैं, अर्थात हम जो कुछ भी करते हैं या जानबूझ कर नहीं करते हैं, उसमें मीडिया की सोच से प्रभावित होते हैं।

मीडिया के समाचारों, फीचर, लेखों, शीर्षकों, चित्रों, हजारों तरह की जानकारियों जैसे सभी आयाम हमारे दिमाग पर असर डालते हैं। आपका बच्चा आईआईटी में पढ़ेगा या आईआईएम में, साइंस पढ़ेगा या कॉमर्स, प्राथमिक शालाओं में बहुविज्ञापित स्कूल का चयन अक्सर हम मीडिया की सूचनाओं के आधार पर सामूहिक मन-मिजाज के अनुकूल ही करते हैं। कौन-सा राजनैतिक दल अच्छा है, कौन-सा बुरा है, कौन-सा दल किस समुदाय के पक्ष में है या खिलाफ है, यह सब धारणाएं मीडिया बनाता है। मतदान के समाजशास्त्रियों का मानना है कि लोग किस पार्टी को वोट देंगे, इसका वातावरण भी मीडिया ही बनाता है। मैं मानता हूं कि पांच से आठ प्रतिशत तक मतदान मीडिया निर्मित धारणाओं के आधार पर होता है। बाकी जातियों, उम्मीदवारों, पार्टियों और ऐसे अन्य तत्वों के आधार पर आम मतदाता फैसला करता है।

मीडिया इतना प्रभावशाली क्यों है ? आज दैनिक पत्रों, साप्ताहिकों से लेकर बाकी सब प्रकाशनों की संख्या करीब बीस करोड़ है। यह सब अचानक नहीं हो गया। पांचवें और छठे दशक तक पिछड़ी जातियों की साक्षरता का प्रतिशत बढ़ा। साधन-सम्पन्न लोग, जो अखबार खरीद सकते थे, वह मीडिया के घनिष्ठ सम्पर्क में आए। दैनिक की प्रसार संख्या में प्रारम्भिक विस्फोट हुआ। सत्तर और अस्सी के दशक में साक्षर अनुसूचित जाति और जनजाति की आबादी में भारी बढ़ोत्तरी हुई। वह भी अखबार पढ़ने लगे। और इस तरह अखबारों की प्रसार संख्या चौंकाने वाली गति से बढ़ती गई। कभी दो पेज और चार पेज के अखबार निकला करते थे। लोग उन्हें ही बड़े चाव से पढ़ा करते थे। धीरे-धीरे आर्थिक विकास के कारण विज्ञापनों की संख्या बढ़ी और अखबारी पन्नों की भी। आज हिन्दी और क्षेत्रीय अखबारों की पृष्ठ संख्या 12 से लेकर 24 तक हो गई है और अंग्रेजी अखबारों की तो 80 से 120 पृष्ठों तक की।

नब्बे और उसके बाद के दशक में टेलीविजन ाांति हुई। उसकी टेक्नोलॉजी में चमत्कारिक विकास हुआ। टेलीविजन अपेक्षया सस्ता बिकने लगा। श्र्वेत-श्याम टेलीविजन की बात तो बहुत पहले की है। अब तो बेहतर से बेहतर रंगीन टेलीविजन भी आम घरों में उपलब्ध है। आज हर तीन घरों में से दो में रंगीन टेलीविजन है। प्राथमिक दौर में सिर्फ दूरदर्शन देखने की सुविधा थी। आप विश्र्वास करें, आज आबादी का एक बहुत बड़ा प्रतिशत है जो तीन सौ चैनल तक देख सकता है। खेल-कूद, कारोबार, मनोरंजन, संगीत जैसे कम से कम एक दर्जन विषयों पर अलग-अलग चैनल हैं और बढ़ते ही जा रहे हैं। 2012 तक इनकी संख्या बढ़कर पांच सौ से ज्यादा चैनल की हो जाएगी।

आज टेलीविजन के माध्यम से इतना उपलब्ध है जितना कोई देख नहीं सकता। करीब-करीब हर विधा के लिए अलग-अलग चैनल उपलब्ध हैं। और सबसे बड़ी बात ये कि आज मनोरजंन और मीडिया बहुत बड़े उद्योग हो गए हैं। पचास और साठ के दशक में जो हिन्दी या क्षेत्रीय अखबार स्थापित हुए थे, वह आज बढ़कर पांच सौ करोड़ रुपये तक के उद्योग बन गए हैं। सौ-डेढ़ सौ करोड़ वाले मीडिया घरानों की तो बात ही छोड़ दीजिए। अंग्रेजी और हिन्दी के कुछ घराने अब हजार करोड़ के राजस्व की सीमा पार कर गए हैं। कुछ मीडिया घराने तो दो-तीन हजार से लेकर पांच हजार करोड़ तक की सीमा में आ गए हैं और उसको पार भी कर रहे हैं।

जिस तेजी से मीडिया और मनोरंजन का यह सेक्टर बढ़ा है इसकी कल्पना इससे ही कर सकते हैं कि पिछले एक साल में करीब-करीब एक दर्जन नए चैनल आए। सन् 2002 के बाद जब यह सेक्टर विदेशी पूंजी निवेश के लिए खुला तब एक तरफ विदेशी पूंजी के आमंत्रण की होड़ लग गई। दूसरी तरफ अधिग्रहण और विलय के माध्यम से उद्योग घराने बड़ा से बड़ा आकार ग्रहण करने की होड़ में लग गए। अब बड़े-बड़े घरानों से अखबार निकलते हैं हिन्दी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में। टेलीविजन चैनल चलते हैं। एक घराने से एक-दो नहीं, दर्जनों।

रेडियो के माध्यम से दूसरी ाांति आ गई है। पहली ाांति साठ के दशक में हुई थी। जिसे हम टंाजिस्टर ाांति कह सकते हैं। आज तीन सौ से ज्यादा निजी क्षेत्र के रेडियो स्टेशन हैं। सिर्फ अखबार, टेलीविजन, रेडियो ही नहीं, इंटरनेट के आने से ऑन-लाइन कम्पनियों की बाढ़ आ गई हैं। और अब तो कई बड़े उद्योगपति सेलफोन का इस्तेमाल समाचार भेजने के उद्योग के रूप में करने लगे हैं। इस सम्बंध में टेक्नोलॉजी छलांग पर छलांग लगाता जा रहा है और यह उद्योग अधिकाधिक उद्योगपतियों को आकृष्ट कर रहा है। सन् 2012 तक यह सब उद्योग मिलकर डेढ़ सौ करोड़ रुपये तक के हो जाएंगे। इसमें सालाना करीब बीस हजार करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा भी लग रही है। और इसकी गति में घटोत्तरी नहीं हो रही है।

क्या कारण है इसका ? असल में मीडिया एक बहुत बड़ी सत्ता हो गई है। यह राजनैतिक सत्ता का भी आधार बन रहा है। अनेक राजनैतिक दलों ने अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में समाचार पत्र, टेलीविजन कम्पनी और प्रचार के अन्य माध्यमों का अपना ढांचा खड़ा किया है। इसमें मार्क्सवादी पार्टी से लेकर राष्टवादी कांग्रेस पार्टी तक शामिल है। तमिलनाडु की दोनों पार्टियों के अपने-अपने समाचार चैनल हैं। कमोबेश यही बात अनेक राज्यों के लिए भी कही जा सकती है। या तो सीधे पार्टियों के माध्यम से या प्रछन्न समर्थन के माध्यम से । जब आर्थिक सत्ता और राजनैतिक सत्ता से लेकर बाजार के विभिन्न अधिकरणों पर काबिज होने का यह माध्यम बन गया हो, तो इस महत्ता के पीछे पूंजी लगाने वाले दौड़ें तो क्या आश्र्चर्य।

आखिरकार एक टेलीविजन चैनल को स्थापित करने में केवल साठ-सत्तर करोड़ रुपये ही तो लगते हैं और इतना पैसा तो आज व्यापारियो,ं उद्योगपतियों, भवन निर्माताओं के अलावा कई राजनेताओं के पास भी है। उनके लिए ये चैनल आम के आम और गुठलियों के दाम हैं। यहीं पर एक अन्य बात समझ लेने लायक है। मीडिया और मनोरंजन के इस सेक्टर के उद्योगपतियों की बाजार, राजनीति और अर्थव्यवस्था पर ऐसी धाक है कि लोग तेजी से इस दिशा में छलांग लगा रहे हैं। इसमें विदेशी पूंजी निवेश बढ़ता जा रहा है। देशी पूंजी भी बढ़ती जा रही है।

सवाल यह खड़ा होता है कि आज जब मीडिया सामूहिक दिमाग को नियंत्रित करता है तो मीडिया को कौन नियंत्रित करता है? स्वाभाविक है कि इसे वह नियंत्रित करते हैं जिनकी पूंजी होती है। संपादक और वरिष्ठ पत्रकारों तक की हैसियत नियंत्रित-कर्ताओं में नगण्य है। उसके मालिक ही नियंत्रित करते हैं। अगर विदेशी पूंजी ज्यादा लगी हुई है तो इसका नियंत्रण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विदेशी पूंजी लगाने वाले लोग करते हैं। आज का मीडिया परिदृश्य अगर देखेंगे तो कुछ लोग सिर पकड़ कर बैठ जाएंगे। कुछ अखबारों में सउदी पैसा लगा है। कुछ में जेहादी पैसा लगा है, कुछ में विभिन्न ईसाई चर्चों का पैसा लगा है। स्वाभाविक है कि भारत के राष्टीय हित की बात जब आती है तो ये चैनल और अखबार पूरी तरह राष्टीय हित की बात नहीं सोचते। कुछ तो पूंजी के ऐसे गुलाम हैं कि देशहित के विरोध में खबर देते हैं। देशहित विरोधी अभिमत तैयार करते हैं। जाने-अनजाने देश का मनोबल तोड़ने में मीडिया के एक भाग का बड़ा हाथ होता है।

अभी हाल के दिल्ली में हुए आतंकवादी विस्फोटों के सिलसिले में जब आतंकवादी ठिकानों पर छापा डाला गया तो दो आतंकवादी भाग गए, एक पकड़ा गया और दो मार गिराए गए। बाकायदा दिल्ली पुलिस के साथ मुठभेड़ हुई। इस समझ के लिए किसी का रणनीति विशेषज्ञ होना जरूरी नहीं है कि जो पुलिस पर गोलीबारी कर रहे थे वह पूरी तरह तैयार और हथियारों से लैस थे, आतंकवाद में प्रशिक्षित थे और उन्होंने दिल्ली पुलिस से जमकर लोहा लिया। इसमें मोहन चन्द शर्मा नामक पुलिस इंस्पेक्टर की शहादत भी हो गई। इसमें मीडिया के न्यस्त स्वार्थ के कुछ लोगों ने आतंकवादियों के पक्ष में और दिल्ली पुलिस के विरोध में भयानक अभियान छेड़ दिया।

मीडिया के कुछ लोग और घराने, जो पुलिस का मनोबल गिरा रहे थे और आतंकवादियों को संरक्षण दे रहे थे, वह देशहित का काम नहीं कर रहे थे। वह देश के साथ घात कर रहे थे। जनता को भ्रमित कर रहे थे। पुलिस प्रशासन के लिए तरह-तरह की शंकाएं खड़ी कर रहे थे।

आतंकवाद से त्रस्त दूसरे बड़े लोकतंत्र भी दुनिया में हैं। वहां भी स्वतंत्र प्रेस देशहित में अपने व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए स्वनिर्मित आचार संहिता का पालन करते हैं। भारत में ऐसी स्वनिर्मित आचार संहिता नहीं है। कोई नहीं चाहता कि प्रेस की स्वतंत्रता में तनिक भी बाधा पड़े। लेकिन भारत की विषम स्थिति यह है कि यहां कोई स्वनिर्मित आचार संहिता लागू नहीं है। मीडिया का एक बहुत बड़ा भाग विदेशी पूंजी लगाने वाले नियंत्रकों के हाथ में आ गया है अथवा दूसरे कारणों से भारत विरोधियों के शिकंजे में फंस गया है।

मीडिया के उपभोक्ताओं में अपने अखबार और चैनल की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता पागल घोड़े की तरह दौड़ रही है। इसमें कई बार इतना महिला विरोध, समाज विरोध और राष्ट विरोध हो जाता है जो किसी भी तरह क्षम्य नहीं कहा जा सकता। एक पक्ष को दबाना और दूसरे पक्ष की हौसला अफजाई करने की आम शिकायत है। यह सब भारतीय समाज और इसके लोकतंत्र की जड़ें खोदने का काम है। और सभी, सरकार से लेकर उद्योग घराने तक, पार्टियों से लेकर छोटे-बड़े संगठनों तक मीडिया के मोहताज हैं। इसकी तरफ याचना भरी नजरों से देखते रहते हैं। आज मीडिया के अत्याचारों के खिलाफ न अपील की जा सकती है न दलील दी जा सकती है। जब कोई विरोध करता है तो एक बुलबुला बनता है और तत्काल विलीन हो जाता है।

 

– दीनानाथ मिश्र

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