7 अगस्त के “मिलाप’ का संपादकीय- “सच्चाइयों का आईना’, पढ़कर मन विक्षुुब्ध हो उठा। शायद ही किसी देश के सर्वोच्च न्यायालय को ऐसी टिप्पणी करनी पड़ी हो कि इस देश को भगवान भी नहीं बचा सकता। जरा कल्पना कीजिए, हमारे उच्च न्यायालय के समर्थ न्यायाधीश महोदय के विवशता की, जिन्हें सरकार के निकम्मेपन व अकर्मण्यता पर झुंझलाकर ऐसी टिप्पणी करनी पड़ी। विभिन्न सरकारी आवासों पर अवैध कब्जा किये लोगों को दृष्टि में रखकर की गई यह टिप्पणी वस्तुतः एक छोटा-सा उदाहरण है सरकारी अकर्मण्यता व उदासीनता का, जो न्यायालय के फैसलों का सम्मान करते हुए उन्हें असली रूप देने में असमर्थ है। ऐसे में सरकार के लोभ पर झल्लाहट से उक्त टिप्पणी करना न्यायपालिका की बेचारगी एवम् विवशता को दर्शाता है। 62 वर्षों के स्वातंत्र्य जीवन में लोकतंत्र की यह चारित्रिक गिरावट हमारे जर्जर होते हुए, निर्जर, कृशकाय, ठिठुरते हुए गणतंत्र की तस्वीर पेश करती है। मैं नहीं जानता, अंधेर नगरी चौपट राजा जैसा मुहावरा हमारे देश पर कितना फिट बैठता है, पर संसद में बैठे जनप्रतिनिधियों की कांव-कांव का कोरस गायन तो स्पष्ट सुनाई दे रहा है। जो किसी भयावह दुस्वप्न-सा लगता है। ईश्र्वर सब भला करे, यही प्रार्थना है।
– भगवानदास जोपट (सिकन्दराबाद)
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