व्यक्ति अपने भाग्य का स्वयं निर्माता होता है। इस आधार पर वह स्वयं संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। व्यक्ति का कर्म ही उसके भाग्य का निर्माण करता है। शबरी के समर्पित कर्म ने उसे भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया था। वह दलित महिला थी, किंतु कर्मयोगी थी। शिवरीनारायण (छत्तीसगढ़) की पावन धरती उसका कर्मक्षेत्र था। मतंग ऋषि की वह शिष्या थी। उसके राम के प्रति समर्पण भाव की प्रशंसा युग-युग से होती रही है। महानदी का किनारा, जंगली जीवों के बीच में रहना, गुरु के प्रति समर्पित भावना, राम के आगमन की प्रतीक्षा में उसका जीवन प्रकाशित हो रहा था।
कर्म की बाती उसने प्रज्ज्वलित कर रखी थी। वह अपने राम के आगमन के रास्तों को प्रतिदिन साफ करती थी। गुरु की आज्ञा का पालन करना उसकी दिनचर्या बन गई थी। समर्पण, व्यक्ति को भौतिकता के घटाटोपों से अलग कर देता है। अर्जुन के कृष्ण के प्रति समर्पण भाव ने कर्त्तव्य के पथ पर उसे लगा दिया था। जब व्यक्ति में संसार के प्रति विरक्त भाव आ जाता है, तब अपने को परमपिता परमेश्र्वर का अंश समझने लगता है। यही भाव शबरी के भाव में दिखाई दे रहा था। वह राम के आगमन पर अपने झूठे बेरों से उनका स्वागत करती है। उसे लगता था कि खट्टे बेर कहीं उनके समर्पण भाव को तिरोहित तो नहीं कर देंगे। शबरी हर बेर को चखती है, फिर अपने राम को खिलाती है। राम उसके झूठे बेरों को प्रेमपूर्वक खाते हैं। भक्त अपने भगवान को पहले भोग लगाता है, फिर स्वयं खाता है परंतु यहां पर उल्टी प्रिाया दिखाई देती है। शबरी प्रथम स्वयं बेर के अंश को ग्रहण करती, फिर अपने राम को देती हैं। भगवान उसके समर्पण भाव को देखकर मुस्कुराते हैं। वे शबरी का राममय स्वरूप शबरी के अंदर देखते हैं। ऐसा लगता है कि शबरी का भौतिक शरीर बेरों को चख नहीं रहा है, यद्यपि उसका पंचभूतों का शरीर खाता हुआ दिखाई देता है। उपनिषद् में कहा गया है कि पूर्ण से निकल कर पूर्ण शेष रहता है। भगवान राम पूर्ण ब्रह्म के स्वरूप को शबरी के अंदर देखते हैं। उन्हें लगता है कि बेर के अंश वे स्वयं खा रहे हैं। अपने पूर्ण रूप को शबरी प्रथम भोग लगाती है। बाद में विरही राम को बचे हुए बेर के अंश देती है, जो सामान्य मानव के रूप में घूमते हुए राम को अपने पूर्ण अंश का परिचय कराती है तथा विरही राम को सीता की खोज की दिशा का मार्ग बताती है। सामान्यतः भक्त को भगवान रास्ता बताते हैं, परंतु यहां पर सब कुछ उल्टा हो रहा है, राम दुःखित हैं, शबरी अपने राम के प्रति समर्पित है।
शबरी की आत्मा भौतिक शरीर में रहती हुई ईश्र्वर में एकाकार हो गई है। राम के आगमन से उसके अंदर पूर्ण ब्रह्म व्रत का स्वरूप जाग्रत हो उठता है। भगवान राम, शबरी के शरीर में उसे देखते हैं अन्यथा एक भक्त स्वयं खाने के बाद भगवान को भोग नहीं लगाता है। भक्त अपनी जूठन अपने भगवान को नहीं खिलाता है। अतः उपनिषद् का ज्ञान कि पूर्ण से पूर्ण निकलकर पूर्ण शेष रहता है, यह सिद्घ होता है। शबरी के इस भाव एवं पूर्णता को देखकर कोई भी ज्ञानी भक्त, भाव-विभोर हुए बिना नहीं रह सकता है। अचानक वह कह उठता है। धन्य है शबरी तेरी भक्ति जो भगवान को मार्ग बताती है, जूठन खिलाती है। भगवान हमेशा अपने भक्तों का दुःख दूर करते हैं, जबकि शबरी अपने शरीर के अंदर पूर्ण ब्रह्म का दर्शन करती है तथा वह भाव-विभोर होकर अपने को भूल जाती है। अतः वह पहले स्वयं अपने अंदर के ब्रह्म को भोग लगाती है। अद्भुत पूर्णता का भाव उसके अंदर जाग्रत हो उठता है तथा वह शबरी के अंतःस्थल में प्रकट होता है। यही देखकर राम के चेहरे पर मुस्कान दिखाई देती है। नवधा भक्ति उसकी पूर्णता के भाव में साकार हो उठती है, जो राम के रूप में प्रकट होकर शबरी के आत्मस्वरूप में जाग्रत हो पूर्ण से निकल कर पूर्ण शेष बचता है, की सत्यता को पुष्टि करती है। शबरी धन्य हो जाती है, उसके साथ वहां की माटी भी धन्य होती है। उस माटी के कणों में शबरी के संस्कार आज भी दिखाई देते हैं।
– डॉ. प्रह्लाद राय अग्रवाल
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