दिन पर दिन बढ़ते वायु प्रदूषण, अस्त-व्यस्त होती जीवन-शैली और हद से गुजरते तनाव ने महानगरीय जीवन को सांस लेने के लिए बेहद कठिन बना दिया है। चौंकाने वाले आंकड़े बताते हैं कि हमारे सभी महानगर, चाहे वह हरी-भरी राजधानी दिल्ली हो या गंदगी और कचरे से उमड़ता कोलकाता, तेज रफ्तार ज़िंदगी का पर्याय बना मुंबई हो अथवा इंडियन सिलिकॉन वैली के तमगे से नवाजा गया बेंगलूर। हाल के कुछ सर्वेक्षण बताते हैं कि भारत के सभी महानगर सांस लेने के लिए मुश्किल जगह बनते जा रहे हैं। ऐसा कोई महानगर नहीं है, जहां 10 से 15 लाख लोग दमे से पीड़ित न हों। मुंबई में लगभग 40 लाख, दिल्ली में लगभग 20 लाख, कोलकाता में लगभग 37 लाख और बेंगलूर में तकरीबन 10 लाख लोग सांस की बीमारी से पीड़ित हैं।
दमे को लेकर एक देशव्यापी सर्वेक्षण सबसे पहले 1976 में हुआ था और उसके बाद 2006-07 में। लगभग 30 साल की अवधि का यह फासला हैरतंगेज आंकड़े का बायस बना है। क्योंकि इन 30 सालों में दमे के मरीजों में 300 फीसदी के लगभग का इजाफा हुआ है, जो कि दमा कैंसर या टीबी जैसा खतरनाक नहीं है, लेकिन यह लोगों का जीवन तो दूभर कर ही रहा है। बड़े पैमाने पर दमे के मरीज मौत का भी शिकार हो रहे हैं, भले ही वह सीधे दमे से न मर रहे हों, लेकिन दमा उनके दूसरे रोगों से मरने की एक बड़ी वजह बन रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि दमे के प्रकोप से कोई भी उम्र व समूह नहीं बचा। जिस तरह पिछले कुछ सालों में मधुमेह बच्चों के बीच भी बड़ी तेजी से फैला है, ठीक उसी तरह दमा ने भी बच्चों को अपना शिकार बनाया है। दिल्ली के एक अस्पताल बी.बी. पटेल चेस्ट द्वारा दिल्ली, कोलकाता, चंडीगढ़ और तिरुवअनंतपुरम में कराये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक 7 से 8 फीसदी बच्चे जिनकी उम्र 14 साल से कम है, दमे से पीड़ित हैं। जबकि 8 से 11 फीसदी वयस्क इसके जाल में फंस चुके हैं। लेकिन सबसे खतरनाक स्थिति उन मजदूरों की है, जो ऐसे उद्योगों में कार्यरत हैं, जहां धूल उड़ती है या जहां बड़े पैमाने पर प्रदूषण का माहौल है। ऐसी जगहों में काम करने वाले 15 फीसदी से ज्यादा मजदूर दमे का शिकार हैं और 8.5 फीसदी से ज्यादा बूढ़े इसकी चपेट में हैं।
दमे के संबंध में कई बातें महत्वपूर्ण हैं, जैसे अगर आप स्वस्थ हैं, घर-परिवार में दमे की कोई आनुवांशिक मौजूदगी नहीं है तो आपके दमे के जाल में फंसने के कम आसार हैं। लेकिन अगर किसी भी गंभीर रोग से पीड़ित हैं अथवा घर-परिवार में पहले से किसी को दमा रहा है तो फिर दमे का शिकार होने की आपके लिए आशंका काफी प्रबल हो जाती है। हालांकि दमा न तो छूत की बीमारी है और न ही इसका कोई इंफेक्शन होता है। दमे के लिए सबसे बड़ा खतरा है प्रदूषण। डाक्टरों ने एक नहीं, ऐसे कई मामलों में आजमाया है कि यदि किसी दमे के मरीज को ऐसी जगह भेज दिया जाए, जहां उसके मौजूदा निवास स्थल से काफी कम प्रदूषण हो, तो काफी बड़े पैमाने पर यह उम्मीद लगायी जा सकती है कि या तो उसका दमा बिल्कुल खत्म हो जायेगा या बीमारी बहुत मामूली रह जायेगी। मगर समस्या यह है कि हर दमे के बीमार को हिंदुस्तान जैसे देश में प्रदूषण-मुक्त जगह रहने के लिए भेज पाना संभव नहीं है और इंडिया हेल्थ रिपोर्ट के मुताबिक असंचारी रोगों में सबसे तेज रफ्तार से श्र्वांस के रोगी ही बढ़ रहे हैं लगभग 7 फीसदी सालाना। याद रखें, श्र्वांस रोग अकेला दमे का कारण नहीं होता यानी श्र्वांस के अलावा भी दमे की और कई वजहें हो सकती हैं। हर साल देश में 10 लाख से ज्यादा बच्चे विभिन्न श्र्वांस संबंधी रोगों से मर जाते हैं और दिल दहलाने वाले आंकड़े यह हैं कि दिल्ली, मुंबई, बेंगलूर और चंडीगढ़ जैसे अपेक्षाकृत कम प्रदूषित और इलाज की बुनियादी सुविधाओं से सुसज्जित शहरों में भी दमे से बड़े पैमाने पर बच्चे और वयस्क तथा बूढ़े मर रहे हैं।
देश के औसत सभी महानगरों में 10 से 15 लाख लोग दमा की चपेट में हैं। इनमें हर उम्र और वर्ग-समूह की भागीदारी है। साथ ही यह बात भी जानने की है कि छोटे शहरों तथा गांवों में भी यह रोग कोई कम तेजी से नहीं बढ़ रहा। बस फर्क सिर्फ इतना है कि इन जगहों के संबंध में आंकड़े रखने वालों के पास आंकड़े नहीं हैं। सबसे ज्यादा दमे के शिकार प्रदूषण वाले उद्योगों में काम करने वाले श्रमिक हैं। इससे यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि प्रदूषण इसके लिए बड़ी तादाद में जिम्मेदार है। लेकिन जो लोग इन उद्योगों में काम नहीं कर रहे होते हैं, वह भी कोई दमे से बचे हों, ऐसा नहीं है। वास्तव में शहरों की हवा जितनी तेजी से जहरीली हो रही है, उतनी ही तेजी से शहरों में सांस लेना मुश्किल होता जा रहा है। सांसें थमती जा रही हैं। फेमिली हेल्थ सर्वे 1998-99 के मुताबिक देश की प्रति एक लाख आबादी में लगभग 2500 लोग दमे से पीड़ित थे और अनुमान है कि अब यह आंकड़ा 3000 के ऊपर पहुंच चुका है।
सिर्फ भारत में ही नहीं, ग्लोबल वार्मिंग और बढ़ते प्रदूषण के कारण दुनिया के तमाम दूसरे देशों में भी दमा तेजी से पैर पसार रहा है। हालांकि यह भी एक सच्चाई है कि जिन देशों में हरियाली का स्तर अच्छा है, प्रदूषण कम है और धूल ज्यादा नहीं उड़ती, उन देशों में दमे के मरीज कम हैं। यही वजह है कि कई एनआरआई जब भारत आते हैं तो उन्हें दमे की शिकायत महसूस होने लगती है और जब अमेरिका या यूरोप चले जाते हैं तो उनकी यह समस्या लगभग खत्म-सी हो जाती है। दमा वास्तव में सांस की बीमारी है। अलग-अलग कारणों से जब सांस की नली में सिकुड़न आ जाती है और सांस की नली की झिल्ली सूज जाती है तो मरीज को सांस छोड़ने में कठिनाई होने लगती है। यही दमा है। इस बीमारी के मुख्यतः तीन लक्षण हैं- पहला, सूखी खांसी। दूसरा, सांस लेते और छोड़ते समय मुंह से सीटी की तरह आवाज निकलना और तीसरा मौके-बेमौके सांस का फूलना। जब यह बीमारी अपने चरम पर पहुंच जाती है तो फेफड़ों को भी संक्रमित कर देती है।
निश्र्चित रूप से इस बीमारी के लिए आधुनिक जीवन-शैली ही जिम्मेदार है। क्योंकि अगर महज प्रदूषण और कुपोषण इस समस्या की वजह होते तो ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में बड़े पैमाने पर दमा के मरीज न होते। क्योंकि इन दोनों देशों में न तो इस कदर प्रदूषण की समस्या है और न ही किसी तरह के कुपोषण की समस्या है। डॉक्टरों के मुताबिक, बाजार में तेजी से लोकप्रिय हो रहे जंकफूड, तनावभरी दिनचर्या, घरों में फैशनेबल पर्दे, वॉल टू वॉल कारपेट और गलीचे, हर साल कराया जाने वाला पेंट, कीड़े-मकोड़ों से निजात दिलाने वाले पेस्टीसाइड्स और किसी खास तरह की एलर्जी। ये तमाम वजहें हैं दमे के जड़ पकड़ने और खतरनाक बनने के। जाड़े के दिनों में जब धुंध छा जाती है, गाड़ियों से निकला धुआं वातावरण में ऊपर नहीं जा पाता, तो भी दमे के लिए अनुकूल परिस्थितियां बन जाती हैं। दमे के मरीजों की परेशानी बढ़ जाती है। करेले में नीम वाली स्थिति तब होती है, जब हम दमे के प्रारंभिक लक्षणों की अनदेखी कर देते हैं और वह धीरे-धीरे हमें अपनी खतरनाक गिरफ्त में लेने लगता है। दमे के एक विशेषज्ञ डॉक्टर के मुताबिक देश में बड़े पैमाने पर इसलिए भी दमे के मरीज बढ़ रहे हैं, क्योंकि हमारे यहां एलर्जी की जांच के स्तरीय केन्द्र नहीं हैं। कुछ और विशेषज्ञ इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं, एलर्जी के 60 फीसदी मामले सही इलाज न मिल पाने के कारण दमे में तब्दील हो जाते हैं और 80 फीसदी दमे के मरीजों में एलर्जी की शिकायत पायी जाती है। दमे के इस कदर तेजी से पैर पसारने के पीछे तेजी से आने वाला बदलाव भी बड़ा कारण है।
घर, परिवार, कार्यस्थल या वह जगह जहां पर आप दिन या रात का एक बड़ा वक्त गुजारते हैं, उन जगहों में मौजूद विभिन्न चीजें भी दमा के लिए सेंसेटाइज़र का काम करती हैं। मसलन, आप जहां रहते हैं, वहां गलीचों और आधुनिक पर्दों की भरमार है, जिनमें धूल भरी रहती है, तो यह जगह दमे के फलने-फूलने के लिए अनुकूल है। इसलिए विशेषज्ञों का सुझाव है कि दमे के मरीज ऐसी जगहों और चीजों से बचने की कोशिश करें, मसलन, जहां बहुत ज्यादा कारपेट या गलीचों का इस्तेमाल होता हो, पर्दों में धूल जमी रहती हो, रसोई-घर जहां अक्सर खाना बनता रहता है और छौंक लगती रहती है। छौंक किसी भी दमे के मरीज को परेशान करती है। पालतू जानवरों के शरीर में पाये जाने वाले कई किस्म के जीवाणु, घर की दीवारों व खिड़कियों में इस्तेमाल होने वाला पेंट, मच्छर भगाने वाला लिक्विड, डीजल का धुआं और सल्फर डाइऑक्साइड दमे को बढ़ाने वाली चीजें व स्थितियां हैं। इसलिए दमे के मरीज को इन जगहों और चीजों से बचना चाहिए।
दमे का इस तरह खतरनाक होता दलदल वास्तव में इस बात का भी सबूत है कि हमारे यहां दमे को लेकर स्तरीय समझ और जानकारियों का अभाव है। दरअसल, कई बीमारियां ऐसी हैं, जिनके लक्षण दमे से मिलते-जुलते हैं। जैसे- ब्रोंकाइटिस, एसेनोफीलिया और दिल का दमा। अगर ब्रोंकाइटिस की पहचान शुरू में नहीं की गयी और इसका इलाज नहीं किया गया तो यह आगे चलकर दमे में परिवर्तित हो जाती है। छोटे बच्चों में पसरते दमे का असली कारण यही है कि उन्हें सांस लेने में हल्की-सी परेशानी की शुरुआत होती है, लेकिन जल्द ही यह हल्की-सी परेशानी दमे का आधार बन जाती है। दिल के दमे में भी सांस के दमे की ही तरह दौरा पड़ता है और अगर इसके प्रारंभिक लक्षणों की अनदेखी की गयी तो किसी दिन दिल की धड़कनें इस दौरे के दौरान रुक सकती हैं। इसलिए दमा न हो, इसके लिए इन दूसरी बीमारियों के प्रारंभिक लक्षणों पर नजर रखनी चाहिए। हालांकि एसेनोफीलिया इतना खतरनाक नहीं है मगर हकीकत यह है कि इसके लक्षण भी दमे की तरह के ही होते हैं। इसलिए जरूरी है कि किसी भी वजह से सांस लेने में जरा-सी परेशानी महसूस हो और यह परेशानी रह-रहकर थोड़े-थोड़े दिनों में महसूस हो, तो तुरंत जांच करानी चाहिए कि कहीं यह दमे की शुरुआत तो नहीं है।
…ताकि दमे से रहें दूर
– रास्ते पर चलते समय नाक पर रूमाल रख लें। खासकर ऐसी जगहों से जहां बहुत गंदगी हो और धूल-मिट्टी या धुआं उड़ रहा हो।
– अगर ऐसी जगह काम करना पड़ता है या वहां से गुजरना पड़ता है, जहां प्रदूषण काफी ज्यादा है तो ऐसी जगह पर रहते समय चेहरे पर हल्का गीला कपड़ा बांधें। यह कपड़ा प्रदूषण को मुंह व नाक के रास्ते शरीर के अंदर प्रवेश करने से रोकता है।
-दुपहिया चलाते समय अपने आपको हेलमेट से ढककर रखें।
-अगर जरा भी दमे के लक्षण दिख रहे हों, तो भीड़ भरे बाजारों, प्रदूषण वाले कार्यस्थलों और धूल उड़ती गलियों में जाने से बचें।
-बाजार के खाने से परहेज करें और धुएँ से भी ज्यादा से ज्यादा बचाव करें।
– जाड़ों में जब धुंध छाती है और कोहरा गिरता है तो ऐसे समय में सुबह की सैर से बचें।
– डीज़ल का धुआं दमा के मरीजों को काफी परेशान करता है। इसलिए उस जगह जाने से खास परहेज रखें, जहां डीज़ल का धुआं उड़ता हो।
– अगर रसोई में काम करना पड़ता हो तो उस समय ऐसी मसालदानी का इस्तेमाल करना चाहिए, जिसके मसाले वाले डिब्बे बंद हों।
– ध्यान रखिए, रात में दमे की समस्या बढ़ जाती है। कफ, छींकना और आंख से पानी का आना शुरू हो जाता है। नाक बंद हो जाती है तथा गले को बार-बार साफ करने की जरूरत महसूस होती है और सांस लेने में तकलीफ का पता चलता है। ऐसे लक्षणों से तुरंत सावधान हो जाएं और डॉक्टर के पास जाएं।
दमे को लेकर फैली भ्रांति और इलाज के विकल्प
हालांकि दमा न उस तरह खतरनाक और न ही उस तरह कुख्यात है, जैसे टीबी और कैंसर हैं, फिर भी देश में बड़े पैमाने पर ऐसे लोग हैं, जिन्हें दमा को लेकर वास्तविक जानकारियां नहीं हैं। मसलन, कई लोग समझते हैं यह छूत की बीमारी है, पर ऐसा नहीं है। यह छूत की बीमारी कतई नहीं है। एक धारणा यह भी है कि दमे से पीड़ित मरीज सामान्य कामकाज और व्यायाम नहीं कर पाता। यह भी पूरी तरह सही नहीं है। दमे से पीड़ित मरीज पूरी तरह सामान्य लोगों की तरह ही अपनी मर्जी का काम कर सकता है, लेकिन सभी तरह के व्यायाम करने में शायद थोड़ी समस्या आयेगी। वह भी एक-दो व्यायामों में। इसलिए दमे से पीड़ित हैं तो व्यायाम के पहले इंस्ट्रक्टर से दिशा-निर्देश ले लें। पर इस बात के लिए तो किसी से दरयाफ्त करने की जरूरत नहीं है कि दमा का मरीज होने के कारण आप सामान्य कामकाज नहीं कर सकते। किसी भी तरह के कामकाज में दमे का होना बाधक नहीं है। कई लोगों को यह आशंका रहती है कि इनहेलर नशे की तरह होता है अगर एक बार उसका इस्तेमाल शुरू कर दिया तो उसकी आदत पड़ जाती है। जबकि हकीकत यह नहीं है। इनहेलर की लत नहीं पड़ती, यह आप पर है कि आप उसका इस्तेमाल करें या न करें। एक बात यह भी जान लें, कुछ लोगों को यह भ्रांति होती है कि इनहेलर दमे की बीमारी से बचाव का आखिरी उपाय है। यह गलत बात है। इनहेलर दमे से बचाव का बुनियादी उपाय है।
कई लोगों को भ्रम रहता है कि इनहेलर बड़े तेज होते हैं। जबकि हकीकत यह होती है कि इनहेलर में दवा की मात्रा कम होती है और यह भी जानने के लिए जरूरी बात है कि इनहेलर में इस्तेमाल होने वाले स्टेरायड सुरक्षित होते हैं। इनका कोई भी साइड इफेक्ट यानी दुष्प्रभाव नहीं होता। जहां तक दमे से छुटकारा पाने में योग की भूमिका है, तो डॉक्टर भी मानते हैं कि दमे से छुटकारा पाने में षटकर्म, आसन और प्राणायाम की प्रभावी भूमिका होती है। लेकिन इसे किसी जानकार की देखरेख में ही करें। योग में दमे से बचाव के लिए कुंजल क्रिया, गोमुखासन, सुप्त वज्ज्ासन और सूर्यभेदी प्राणायाम अच्छा असर करते हैं। लेकिन योग की प्रथम सीढ़ी षटकर्मों से शुरू होती है। ये 6 कर्म हैं- धौति, वस्ति, नेति, नोलि, त्राटक और कपालभाती। धौति कर्म के अंतर्गत नियमित कुंजल क्रिया तथा बाकी के नियमित रूप से किए जाने वाले आसन न सिर्फ दमे को जड़ से मिटा सकते हैं, अपितु स्वस्थ आदमी को दमे से बचाते हैं।
– निनाद गौतम
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