पर्व युगों से चली आ रही सांस्कृतिक परंपराओं, प्रथाओं, मान्यताओं, विश्र्वासों, आदर्शों, नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक मूल्यों का वह प्रतिबिंब है, जो जन-जन के किसी एक वर्ग अथवा स्तर विशेष की झॉंकी प्रस्तुत नहीं करते, अपितु असंख्य जनता के अदम्य जीवन और जीवन के प्रति उत्साह का साक्षात् एवं अन्तःस्पर्शी आत्म-दर्शन कराते हैं। इसके अलावा मानव मन परिवर्तन चाहता है, क्योंकि एक-सी स्थिति जीवन को नीरस बना देती है। जीवन में उदासीनता मृत्यु है, तो निश्र्चेष्टता मरण है। त्योहार इसी उदासीनता और निश्र्चेष्टता को दूर करते हैं। त्योहार समतल एकरस बनते जीवन में ज्योति-स्तंभ प्रकाश-पुंज और अमृत-रस की धार हैं। मानव की दैनन्दिन दिशा मोड़ के भी साक्षी हैं।
मनुष्य जीते-जी आनन्द प्राप्ति के लिए भरसक प्रयत्न करता है। आनन्द के लिए पहला साधन है, उत्तम स्वादिष्ट भोजन, फिर सुंदर सुखद वस्त्र, इसके बाद बढ़िया सवारी और स्नेहमयी स्त्री या पुरुष व सेवक, सेविकाएँ आदि। इन सुखों को भोगकर भी किसी का जी नहीं भरता। सुख-भोग की इंद्रियॉं क्षीण हो जाती हैं, फिर भी भोग की लालसा ललक बनी रहती है।
एक समय ऐसा आता है कि मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। मृत शरीर न तो खा सकता है, न पी सकता है और न ही किसी सुख का अनुभव कर सकता है, लेकिन मनुष्य आधा सत्य में और आधा कल्पना में जीता है। जीवन में भी कल्पनाएँ और स्वप्न मनुष्य को काफी सुख देते हैं। लोगों ने कल्पना कर ली कि जिन सुख-साधनों की मनुष्य जीवन में आवश्यकता होती है, उसकी मृत्यु के बाद परलोक में भी होती होगी। वहॉं भी उनको भोजन, वस्त्र, स्त्री, सेवक चाहिए। इसीलिए समर्थ लोगों, राजाओं, सेनापतियों की मृत्यु पर उनके सुख के ये साज-सामान उनके साथ कब्र में गाड़ दिये जाते थे। चंगेज खॉं को दफनाते समय उसकी पत्नियॉं, बांदियॉं, सैनिक और घोड़े भी साथ दफना दिये गये थे। मिस्र के पिरामिडों में राजाओं के शवों के साथ यह सब रखा मिला है। हमारे देश में भी सती-प्रथा के पीछे यही प्रेरणा रही।
जिन लोगों के पास अपना पेट भरने का ही पूरा साधन नहीं है, उनकी बात छोड़िये। पर जिनके पास विपुल धन-सम्पत्ति होती थी, और उन्हें अपने माता-पिता, दादा-दादी की प्यारी स्मृतियॉं कचोटती थीं, उन्हें इच्छा होती थी कि किसी प्रकार परलोक में भी उनके खान-पान, वस्त्र आदि की सुविधा जुटाई जाए। प्रेम में बुद्घि जड़ हो जाती है। तर्क शास्त्र काम नहीं आता। जरा ध्यान से सोचा जाए तो स्पष्ट है कि मृतक खा-पी नहीं सकता, कोई सुख भोग नहीं सकता। वह सुख-दुःख से परे हो जाता है। पर सोचे कौन? धन है और प्रेम है तो कुछ किया ही जाना चाहिए।
चतुर लोगों का कहना है कि “किया जा सकता है। जैसे अग्नि-यज्ञ में डाली हुई आहुति देवताओं तक पहुँचाती है, तो वैसे ही अन्य चीजों को भी पितरों तक पहुँचाया जा सकता है।’
किसी ने कहा – ब्राह्मण को अग्नि के समान माना गया है। उसे भोजन से तृप्त कर दीजिए, परलोक में वह उनको मिल जाएगा, जिनके उद्देश्य से कराया गया है।
कुछ अधिक चतुर लोगों ने माना, सब जगह नहीं, गया-तीर्थ में जाकर मृतकों को पिंड देने से उनका तर्पण हो जाता है। नहीं तो वे बेचारे भूखे-प्यासे तड़पते रहते हैं।
प्यारे माता-पिता, दादा-दादी भूखे-प्यासे तड़पते रहें, जबकि हम सब प्रकार का ऐश्र्वर्य भोग रहे हैं, यह कल्पना भी भावुक धनपतियों के लिए असह्य थी। वे हल चलाकर पैसा नहीं कमाते थे। पैसा आता था, और खूब आता था। खर्च करने में कोई हिचक नहीं थी। क्या सच है, क्या झूठ, इसकी परख किये बिना धनी लोगों ने मृतकों का श्राद्घ और तर्पण शुरू कर दिया। ब्राह्मणों को भोजन कराने से यह मान लिया गया कि दिवंगत मनुष्य की तृप्ति होती है। इस मान्यता में सच्चाई कुछ नहीं है। निश्र्चय ही दिवंगत पितरों को कोई तृप्ति नहीं होती है। हो ही नहीं सकती। जब यही पता नहीं कि वे कहॉं, किस रूप में, कैसे हैं, उनकी आवश्यकताएँ क्या हैं, तब तक तृप्ति का प्रश्र्न्न ही नहीं उठता। परन्तु श्राद्घ करने वालों को संतोष रहता है कि हम पितरों को तृप्त करने के लिए जो कर सकते थे, वह हमने कर दिया।
कालांतर में वर्ण-व्यवस्था भ्रष्ट हो गई। वर्ण, गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार न होकर जन्म से ही तय होने लगा। ब्राह्मण के घर जन्मा शिशु ब्राह्मण, भले ही उसकी बुद्घि कुंठित, स्वभाव झगड़ालू और लोभी हो। ऐसे ब्राह्मण भी सैकड़ों वर्षों तक श्राद्घ-भोजन करते रहे और लोग कराते रहे। जब श्राद्घ-भोजन की प्रथा चल पड़ी, तब गरीब लोग भी, सामर्थ्य हो या न हो, श्राद्घ-भोजन कराने लगे और ब्राह्मण बड़ी धौंस से भोजन करने लगे। कहावत बन गई कि “न्यौता बाह्मण शत्रु बराबर।’ ब्राह्मण-भोजन में इतना कुछ मांगता था कि खिलाने वाले को चुभता था।
ऋषि दयानंद ने श्राद्घ और तर्पण के इस पाखंड को देखा और कहा कि श्राद्घ तो मृतक का नहीं, जीवित का ही होता है। उन्होंने कहा कि जीवित माता-पिता और पूज्य व्यक्तियों का अन्न व वस्त्र आदि से सत्कार करना ही सच्चा श्राद्घ है, सच्चा तर्पण है। बूढ़े माता-पिता को जो लोग प्रेम से भोजन नहीं कराते, भोजन कराकर आनन्दित नहीं होते, वे मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं हैं। श्राद्घ-भोजन वास्तव में वही कहलाता है, जो श्रद्घा से कराया जाए, अर्थात जिसे कराने के लिए हम कानून या कर्त्तव्य के बंधनों से न बंधे हों। पर हमारे मन में श्रद्घा उपजी है, इसलिए हम करा रहे हैं। यह तय है कि भोजन हम इस प्रकार ब्राह्मण, छात्र या अपाहिज को कराएँगे तो वह हमारे किसी दिवंगत पितर को नहीं पहुँचेगा। पर हमें तृप्ति होगी कि हमने अपने प्रिय दिवंगत व्यक्ति को याद करके किसी भूखे का पेट भरा और वह भी गुणवान भूखे का।
संसार कठोर सत्य से ही नहीं, भावुकता और कल्पना से असत्य से भी चलता है। खालिस सत्य आग की तरह दमकता और जलता है, इसीलिए हम अपने सत्य शरीर को वस्त्रों से ढॉंप कर चलते हैं।
ब्राह्मण (गुण, कर्म, स्वभाव से ब्राह्मण) को श्राद्घ-भोजन कराने में कोई दोष नहीं है। उसके लिए पितृपक्ष या किसी मास विशेष की भी कोई अपेक्षा नहीं है, कभी भी कराया जा सकता है। जैसे माता-पिता की याद में कमरा या धर्मशाला बनवाते हैं, वैसे ही ब्राह्मण-भोजन भी कराया जा सकता है। उससे पितरों की तृप्ति नहीं होगी, स्वयं को होगी।
– सुदेश आर्या
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