एक बार श्रीनारद जी के मन में यह दर्प हुआ कि मेरे समान इस त्रिलोकी में कोई संगीतज्ञ नहीं है। इसी बीच एक दिन उन्होंने रास्ते में कुछ दिव्य स्त्री-पुरुषों को देखा, जो घायल पड़े थे और उनके विविध अंग कटे हुए थे। नारद के द्वारा इस स्थिति का कारण पूछने पर उन दिव्य देव-देवियों ने आर्त स्वर में निवेदन किया, “”हम सभी राग-रागिनियॉं हैं। पहले हम अंग-प्रत्यंग से पूर्ण थे, पर आजकल नारद नाम का एक संगीतानभिज्ञ व्यक्ति दिन-रात राग-रागिनियों का अलाप करता चलता है, जिससे हम लोगों का अंग-भंग हो गया है। आप यदि विष्णुलोक जा रहे हों, तो कृपया हमारी दुरावस्था का भगवान विष्णु से निवेदन करें और उनसे प्रार्थना करें कि हम लोगों को इस कष्ट से शीघ्र ही मुक्त करें।”
नारद जी ने जब अपनी संगीतानभिज्ञता की बात सुनी, तो वे बड़े दुःखी हो गये। वे भगवद्घाम को पहुँचे तो प्रभु ने उनका उदास मुखमंडल देखकर उनकी खिन्नता और उदासी का कारण पूछा। नारद जी ने सारी बात बता दी। भगवान बोले, “”मैं भी इस कला का मर्मज्ञ कहॉं हूँ? यह तो भगवान शंकर के वश की बात है। अतएव उनके कष्ट दूर करने के लिए शंकर जी से प्रार्थना करनी चाहिए।”
जब नारद जी ने महादेव जी से सारी बातें कहीं, तब भगवान भोलेनाथ ने उत्तर दिया, “”मैं ठीक ढंग से राग-रागिनियों का अलाप करूँ तो निस्संदेह वे सभी अंगों से पूर्ण हो जायेंगी, पर मेरे संगीत का श्रोता कोई उत्तम अधिकारी मिलना चाहिए।”
अब नारद जी को और भी क्लेश हुआ कि “”मैं संगीत सुनने का अधिकारी भी नहीं हूँ?” जो हो, उन्होंने भगवान शंकर से ही उत्तम संगीत-श्रोता चुनने की प्रार्थना की। उन्होंने भगवान नारायण का नाम निर्देश किया। प्रभु ने भी यह प्रस्ताव मान लिया। संगीत-समारोह आरंभ हुआ। सभी देव, गंधर्व तथा राग-रागिनियॉं वहॉं उपस्थित हुए। महादेव जी के राग अलापते ही उनके अंग पूरे हो गये। नारद जी साधु-हृदय, परम महात्मा तो हैं ही। अहंकार दूर हो ही चुका था, अब राग-रागिनियों को पूर्णांग देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए।
– आर.पी. रतन
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