सर्वात्म-भाव और सदाचारः भागवतोक्त परम प्रेम में विलक्षण सिायता और सर्जनात्मकता होती है। सर्वत्र आत्म-भाव की स्थिति में पुरुष निषिय नहीं हो जाता, वह पुण्याचारी और पापाचारी, दोनों भी नहीं होता। ऐसा महापुरुष स्वभाव से ही सदाचारी होता है। वह विश्र्व की आत्मा हो जाता है। वैसे ही जैसे लोक-पुरुष अपनी देह की आत्मा होता है। विश्र्वात्मा महापुरुष स्वभावतः सदाचारी ही होता है। उसका कोप, काम, दंड, समस्त सिायता, लोकवत आचरण लोक-कल्याणार्थ ही होता है। वस्तुतः यह लोक-कल्याण भी उसकी दृष्टि में नहीं होता। उसकी दृष्टि में तो लोक की सत्ता ही नहीं है।
अतः तत्कल्याण भी नहीं कहा जा सकता। इसलिए यह आत्म-कल्याण भी नहीं है, क्योंकि आत्मा के लिए हानिकारक कोई तत्व नहीं है, जिसमें प्रतिकार स्वरूप आत्म-कल्याण किया जाए। तथापि “भागवत’ में लोकदृष्टि से “लोक-कल्याण’ पद का प्रयोग किया गया है। विश्र्वात्मा महापुरुष की अशेष िायाएं एवं सर्जनात्मकता बिना निमित्त के होती हैं, स्व-चैतन्य स्वरूप होती हैं, हानि-लाभ की इसमें कोई अपेक्षा नहीं होती। यह सब आत्म-विलास है, स्वरूप है, इस आत्म-विलास के लिए ही “भागवत’ में लोक-दृष्टि से ही लीलादि पदों का प्रयोग किया गया है। वस्तुतः विलासादि समस्त िायाएं भी उस महापुरुष की नहीं होतीं। जो कुछ भी उसमें लक्षित होता है, वह सब केवल वही महापुरुष है, जिसके रूप को परिछिन्न दृष्टि से देखने वाला लोक-पुरुष अपनी आत्मा की उपाधि के अनुसार नाना नाम-रूप प्रदान करता है।
स्वरूप की अभिव्यक्तिः वाणी से उस महापुरुष के स्वरूप का वस्तुतः वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि वाणी द्वैतविषय का ही वर्णन कर सकती है। यह वाणी द्वैतमयी भाषा में ही अद्वैत को स्पष्ट करने का प्रयास करती है। वाणी अंश का ही निरूपण करती है, सर्वांश का नहीं। अतः महापुरुष के स्वरूप के विषय में अनुभव को ही प्रमाण माना जाता है। वाणी की वही दशा होती है, जो नमक में जल की। सर्वात्म के विषय में लौकिक पुरुष को समझाया नहीं जा सकता, क्योंकि ब्रह्म में एक साथ ही विरुद्घ-भाव की प्रतीति होती है। वह भोग भी करता है किन्तु भोगी नहीं, कर्म करता है किन्तु कर्ता नहीं। तर्क-बुद्घि से यह सब विरोधाभास है, किन्तु आत्म-भाव में यह सब स्वरूप की अहैतुकी अभिव्यक्ति मानी जाती है। महात्मा के सारे िाया-कलाप आत्मा में आत्मा के लिए ही होते हैं, इसीलिए भगवान की सारी सृष्टि-िाया का वर्णन किया गया है। सर्वात्म भगवान के दर्शन करने वाले महात्मा को ही भागवत में “आत्माराम’ कहा गया है।
प्रेम और अद्वयानुभूतिः भागवत-दर्शन का रहस्यवाद, प्रेम और अद्घयानुभूति का सिद्घान्त लेकर चलता है। आत्म-दर्शन में ही प्रेम की पराकाष्ठा मानी गई है। वास्तव-प्रेम से ही भगवान का सही दर्शन होता है और बिना सही दर्शन के प्रेम हो ही नहीं सकता। यही “भागवत’ में प्रेमाद्वैत तत्व है। यह प्रेमाद्वैत तत्व सर्वत्र आत्मानुभूति रूप है। इस प्रेम और आत्म-ज्ञान में कोई अंतर नहीं है। लोक को लौकिक ढंग से भक्ति का स्वरूप समझाने के लिए ही “भागवत’ में प्रेम का उदाहरण, गोपी-अभिसार के रूप में प्रस्तुत किया गया है। लोक-भाषा में जो प्रेम है, वह अध्यात्म-शास्त्र में भक्ति ही है, इसीलिए “भागवत’ में अधिकांशतः भक्ति-पद का ही प्रयोग किया गया है। प्रेम-पद प्रयोग में भक्ति का ही पर्याय माना गया है। सहजा-भक्ति को ही “भागवत’ में प्रेम-पद प्रयोग से स्पष्ट किया गया है, फिर इस “प्रेम’ से उपासना की भी व्याख्या की गई है। इस प्रकार भागवतीय रहस्यवाद में प्रेम और पराभक्ति को एक ही माना गया है।
निष्कर्षः श्रीमद्भागवत में रहस्यवादी तत्वों का विकास उसके भक्ति-सिद्घान्त के समानान्तर ही हुआ है। यही कारण है, “शांडिल्य-भक्ति सूत्र’ और “नारद-भक्ति सूत्र’ के समान ही श्रीमद्भागवत को भी मूलतः एक रहस्यवादी ग्रन्थ के रूप में समाद्यृत किया जाता है। प्रोफेसर रानाडे ने “भागवत’ को भारत के प्राचीन रहस्यवादियों के वर्णन एवं भावोद्गारों का भंडार कहा है। इस ग्रन्थ में अनेक चरित्र रहस्यवादी साधक के रूप में ही चित्रित किए गए हैं। राजकुमार ध्रुव, भक्त प्रह्लाद आदि उच्च कोटि के रहस्यवादी साधक माने जाते हैं। ध्रुव अपनी विमाता से अपमानित होकर राज्य और संसार का परित्याग करता है। अपमान से संतप्त होकर वह वन-गमन करता है, जहां आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में उसे नारद जी मिलते हैं, जिनसे वह भागवत-धर्म का ज्ञान प्राप्त कर परम तत्व का साक्षात्कार करने में सफल होता है। भक्त प्रह्लाद का भगवत-धर्म, विपत्तियों के बीच भी अक्षुण्ण बना रहता है। आग्न से जलाए जाने पर, पहाड़ से गिराए जाने पर भी उसकी भक्ति-भावना अविचलित रहती है और वह सर्वात्म-दर्शन में सिद्घ होता है।
भगवद्-दर्शन होने पर उसने कुछ न मांगकर यही वर मांगा कि उसमें कभी कोई इच्छा उत्पन्न न हो, वह सर्वदा निष्काम बना रहे। उद्घव भगवान के मित्र हैं, जिनकी रहस्यवादी अनुभूतियां अत्यंत उच्च कोटि की हैं। कुब्जा पहले श्रीकृष्ण के प्रति वासनामय प्रेम से आकृष्ट होती हैं, परंतु श्रीकृष्ण उसकी वासना को नष्ट कर उसे परम प्रेम की पवित्रता प्रदान करते हैं।
अंततः वह भगवान को प्राप्त होती है। समुद्र में ग्राह द्वारा ग्रसित वह गजराज जिसने आर्त होकर भगवान को पुकारा, एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत करता है कि किस प्रकार मूक, ज्ञानहीन, जड़बुद्घि पशु की भी भक्ति से रक्षा होती है और भगवान उसके संकटकाल में आकर उस पर भी अनुग्रह करते हैं। निर्धन भक्त सुदामा जिसके पास दो मुट्ठी तंदुलों के अतिरिक्त कृष्णार्पण करने को कुछ नहीं था, भगवान से वर प्राप्त कर सुवर्ण नगरी का अधिपति बन गया, भी उत्तम कोटि का रहस्यवादी साधक है। अधम, पातकी अजामिल जो निम्नजाति की स्त्री के प्रति आसक्त था, मृत्यु के समय भगवान के नामोच्चार मात्र से सिद्घि लाभ करता है। रहस्यवाद की भूमिका ही प्रस्तुत करता है।
“भागवत’ में दत्तात्रेय भी उच्च कोटि के रहस्यवादी साधक हैं, जो अपने चौबीस गुरुओं से विभिन्न प्रकार के गुण ग्रहण करते हैं, जैसे पृथ्वी से क्षमा, सागर से गांभीर्य, वन से परोपकार तथा वायु से अनासक्ति आदि। इन विभिन्न गुणों का वे स्वयं अपने जीवन में समन्वय भी करते हैं। शुकदेव मुनि, जो “भागवत’ के दार्शनिक रहस्यवादी सिद्घान्तों के प्रवक्ता हैं, स्वयं एक उच्च कोटि के रहस्यवादी हैं, जो उस दर्शन को व्यवहृत भी करते हैं, जिसकी वे शिक्षा देते हैं। उनके रहस्यवादी उद्गारों से ही श्रीमद्भागवत की रचना हुई है। (समाप्त)
– डॉ. विजय कुमार शर्मा
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