भगवान विष्णु सर्वव्यापक परमात्मा हैं। वैदिक पुरुष-सूक्त में जिस परमात्म-तत्व का निरूपण किया गया है, वह विष्णु-तत्व ही है। ऋग्वेद श्रीहरि की महिमा का गुण-गान करते हुए कहता है – न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमन्तमाप। अर्थात “”हे विष्णु देव! कोई ऐसा प्राणी न तो उत्पन्न हुआ है और न होने वाला है, जिसने आपकी महिमा का अंत पाया हो।” वे निर्गुण भी हैं और सगुण भी। विचार-दृष्टि में जो परमेश्र्वर निराकार-निर्गुण है, भार-दृष्टि से वही साकार-सगुण बन जाता है। अव्यक्त ईश्र्वर भक्तों की भक्ति के वशीभूत होकर व्यक्त भी हो जाता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने के लिए भगवान् विष्णु अपने चारों हाथों में शंख, चा, गदा एवं पद्म धारण करते हैं। उनके सर्वाधिक लोकप्रिय “ध्यान’ में उन्हें क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या पर योग-निद्रालीन दर्शाया गया है। हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी में श्रीहरि की योग-निद्रा प्रारंभ होती है। इसी कारण इस तिथि को “श्रीहरि-शयनी एकादशी’ कहते हैं। वैष्णव मंदिरों में इस दिन श्रीहरि का शयनोत्सव अत्यंत श्रद्घा के साथ मनाया जाता है। भक्तजन उपवास रखते हुए रात्रि में भगवान के नाम का स्मरण करने के साथ जागरण करते हैं। आषाढ़-शुक्ल – एकादशी से शुरू हुई श्रीहरि की योग-निद्रा कार्तिक-शुक्ल-दशमी तक व्याप्त रहती है। भगवान विष्णु के चार मास के इस शयनकाल को “चातुर्मास’ कहा जाता है। प्रत्येक मांगलिक कार्य के शुभारंभ के समय पूजन करते समय भगवान विष्णु को साक्षी मानकर “संकल्प’ किया जाता है। चातुर्मास में श्रीहरि के योग-निद्रालीन होने से विवाह, मुण्डन, यज्ञोपवीत, शिलान्यास, नवगृह-प्रवेश आदि लगभग सभी शुभ – कार्य नहीं किये जाते हैं।
ऋषि-मुनियों ने चातुर्मास में सांसारिक कार्यों का निषेध करके इस काल को आध्यात्मिक साधना हेतु आरक्षित कर दिया है। साधु-महात्मा लोग इन दिनों एक ही स्थान पर रहकर भजन और तप करते हैं। सनातन-धर्मावलम्बियों के लिए “चातुर्मास’ का विशेष महत्व है। वे इसका सदुपयोग आध्यात्मिक ऊर्जा एवं पुण्य को अर्जित करने के लिए करते हैं। भगवान विष्णु के शयन करने पर चातुर्मास में किसी वस्तु को त्यागना अवश्य चाहिए। श्रावण में शाक, भाद्रपद में दही, आश्र्विन में दूध और कार्तिक में दाल, चना, मटर के त्याग का विधान शास्त्रों में निर्दिष्ट है। इसके अतिरिक्त आस्तिक जन किसी अन्य वस्तु का भी त्याग कर सकते हैं। जिस चीज को त्यागें उसका दान जरूर करें, तभी उसका पुण्यफल प्राप्त होगा। इस नियम का उद्देश्य व्यक्ति में आत्म-संयम एवं त्याग की भावना का विकास करना है। चातुर्मास में जिस किसी भी नियम का पालन आस्था के साथ किया जाता है, उसका अनंत फल प्राप्त होता है। जो लोग आर्थिक कष्ट से पीड़ित हों, वे चातुर्मास में लक्ष्मीपति श्रीहरि की आराधना करते हुए, केवल फलाहार करें। चातुर्मास में प्रतिदिन तारों को देखने के उपरांत मात्र एक बार भोजन करने वाला धनवान, रूपवान और माननीय होता है। जो एक दिन का अंतर देकर भोजन करते हुए चातुर्मास व्यतीत करता है, वह देहावसान के पश्र्चात् सद्गति पाता है। भगवान विष्णु के शयन करने पर निरंतर पांच दिन उपवास करके जो व्यक्ति छठे दिन भोजन करता है, उसे राजसूय, अश्र्वमेध जैसे महायज्ञों का संपूर्ण फल मिलता है। जो श्रद्घालु चातुर्मास में तीन रात उपवास करके चौथे दिन भोजन करते हुए चातुर्मास बिताता है, वह भव-बंधन से मुक्त होता है। जो भक्त श्रीहरि के शयनकाल में अयाचित अन्न का सेवन करता है, उसका अपने प्रियजनों से कभी वियोग नहीं होता। जो जितेन्द्रिय चातुर्मास में नमक छोड़ देते हैं, उनके सभी सत्कर्म सफल होते हैं। चातुर्मास में प्रतिदिन विष्णु-सूक्त के मंत्रों द्वारा तिल और चावल की आहुति देने से साधक रोग-मुक्त हो जाता है। श्रीहरि के समक्ष “पुरुष-सूक्त’ का पाठ करने से बुद्घि का विकास तथा विद्या की प्राप्ति होती है। जो अपने हाथ में फल लेकर मौन रहते हुए श्रीविग्रह की 108 बार परिामा करता है, वह निष्पाप हो जाता है। चातुर्मास में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय द्वारा जगद्गुरु श्रीहरि की अर्चना करने वाला विद्यार्थी महाविद्वान बन जाता है। चातुर्मास में भगवान के मंदिर में भजन-कीर्तन एवं नृत्य करने वाला वैष्ण श्रीहरि की अनुकम्पा का भागी अवश्य होता है।
सामान्य व्यक्ति चातुर्मास में सात्विक भोजन के साथ धर्माचरण करता है, तो भी उसे भगवान विष्णु की प्रसन्नता प्राप्त होती है। क्षीरसागर शायी जगदीश्र्वर की उपासना से भक्त के समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। चातुर्मास को जैन-धर्म के अनुयायी भी बहुत महत्व देते हैं। बस अंतर इतना है कि सनातन धर्म में आषाढ़ की शुक्ल एकादशी से कार्तिक की शुक्ल दशमी तक चातुर्मास माना जाता है, जबकि जैन-धर्म में आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी से कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक चातुर्मास की मान्यता है।
जैनी इन तिथियों को “चौमासी चौदस’ कहते हैं। चातुर्मास के दौरान “पुरुषोत्तम क्षेत्र’ में ओवास का अतिशय माहात्म्य स्कन्दपुराण में वर्णित है। श्रीजगन्नाथपुरी में समुद्र के पवित्र जल से स्नान करके पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण (जगन्नाथजी) का दर्शन करते हुए, चातुर्मास-व्रत का पालन मुक्ति का साधन माना गया है। जो आस्तिकजन चातुर्मास पर्यन्त “पुरुषोत्तम क्षेत्र’ में रह सकते हों, वे जीवन में कम से कम एक बार यह अनुष्ठान अवश्य संपन्न करें, किन्तु यदि ऐसा संभव न हो, तो चातुर्मास में भगवान जगन्नाथ का दर्शन करके मात्र एक रात उनकी पुरी में रहकर भी उनकी कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
– अपूर्वा गोस्वामी
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