भारत के साथ-साथ विदेशों में उत्तरी मंगोलिया से दक्षिण में बाली द्वीप और जापान से अमेरिका तक गणेश-पूजन भिन्न-भिन्न नाम व पद्घति के साथ आदिकाल से प्रचलित है।
चीन, तुर्किस्तान, तिब्बत, नेपाल, जापान, बर्मा, स्याम, हिन्दचीन, जावा, बाली, बोर्नियां आदि देशों में गणेश-पूजा और उपासना के साथ ही विभिन्न प्रकार की गणेश प्रतिमाएं भी मिलती हैं।
नेपाल में बौद्घ धर्म के साथ-साथ ही उक्त देशों में गणेश-पूजा का प्रचार-प्रसार मिलता है। हिन्दचीन में गणेश जी को “केनेस’ कहते हैं। चीन में गणेश को “विनायक’ और “कगितेन’ आदि नामों से जाना जाता है। तिब्बत में मठ के अधीक्षक के रूप में तथा नेपाल में “हेरम्ब’ और “विनायक’ के नाम से गणपति पूजन प्रचलित है। यूनानवासी गणेश-पूजन “ओरेनस’ के नाम से करते हैं। ईरानी पारसियों में “अतुर मज्दा’ के नाम से गणेश-पूजन प्रचलित है। चीनी और जापानी बौद्घ त्रिमूर्ति गणेश की उपासना “फो’ के नाम से करते हैं। मिस्र देश में एकदंत को एकटोन के नाम से जाना जाता है। नेपाल में सूर्य विनायक के नाम से गणेश-पूजा की जाती है।
अमेरिका में लंबोदर की मूर्तियों की आकृति भारतीय गणेश जैसी ही है। चीन में “कुंग-हिस-एन’ की गुफा में विनायक की मूर्तियां हैं, जिस पर चीनी भाषा में “यह हाथियों के अमानुष राजा की मूर्ति है’ लिखा है, जिसे वे नृत्य गणपति के नाम से भी पुकारते हैं। नेपाल में जनकपुर, फुलहर, भाटगांव और गोरखा के गणेश स्थल प्रसिद्घ हैं। नेपाल में हेरम्ब की पंचमुखी तथा हिन्दचीन में गणपति की कांसे की खड़ी मुद्रा वाली चतुर्मुख मूर्तियां विश्र्व-प्रसिद्घ हैं।
भारत में भी गणपति के अलग-अलग नाम प्रचलित हैं। श्रीमती एलिस केट्टी की पुस्तक “दि गणेश’ के अनुसार गणेश को तमिल भाषा में पिल्लेयर, मोट में “सौन्ददाग’, बर्मा में “महापियेन्ने’, मंगोलिया में “त्वोतखरून खागान’, कम्बोडियन में “प्राहकेनीज’, चीनी भाषा में “कुंआनशी-ति-एन’ तथा जापानी में कांगीतेन (शोदेन) कहा जाता है।
पश्र्चिम में रोमनों के देवता “जेनस’ का नाम श्रीगणेश जी के नाम के समकक्ष ही है। विश्र्वकोषों में वर्णन मिलता है कि इटालियन या रोमन लोग जब पूजा करते थे तो इसी जेनम विशेष देवता का सर्वप्रथम नाम लिया करते थे। इस प्रकार जब हमारी कथा यूरोप में पहुंची, तब वहां भी मंगल मूर्ति श्री गणेश सर्वप्रथम ही रहे। 18वीं शती के संस्कृत विद्वान विलियम जोन्स ने लिखा है कि जितनी विशेषताएं श्री गणेश में पाई जाती हैं, वे सब जेनस में भी दिखलाई देती हैं अर्थात वे जेनस के रूप में श्री गणपति की ही पूजा करते होंगे।
– आचार्य पं. रामचंद्र शर्मा “वैदिक’
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