विाम संवत् 1985, सावन की शुक्ल चॉंदनी रात की दशमी। आकाश में पूर्णिमा के चॉंद के उगने से पहले धरती पर रूपपुरी नामक पूनम का चॉंद उभर आया था। ये अवतरण था एक उर्जस्वल विभूति का, जिसे लोकमान्य संत पूज्य प्रवर्तक गुरुदेव श्री रूपचंद्र जी महाराज साहब रजत के नाम से संबोधित कर संसार में श्रद्घा, विश्र्वास और सम्मान का अर्घ्य दान दिया। यह अवतरण उस सूरज के अवतरण की घटना-सा था, जिसने निर्वैरभाव से अवनि के बीच उजाले की अनंत रेखाएँ खींच दीं।
उस दिन दिशाओं ने दिग्विजयी गीत गाये।
एक ज्योतिषी ने रूपपुरी के भविष्य के अज्ञात आखर बांच कर बताया कि यह बालक घर की दीवारों में कैद नहीं रहेगा। उसकी बाहों में दिशाओं को समेटने का पौरुष है। इसके पॉंवों को ममता की बेड़ी से नहीं बांधा जा सकता है। यह तो अपने मन को बांध कर युग की अनंत अमावस्याओं के अंधेरों को कैद से मुक्त करायेगा।
देखते ही देखते रूपपुरी ने कैशोर्य की कठोर धरती पर पॉंव रखे। इसी दौरान उनके घर गुरु शंकर भारती का आगमन हुआ। इन्हें देखकर रूपपुरी के मन की ऊर्जा आंदोलित हो उठी। वे उनके शिष्य हो लिए।
आरणेश्र्वर, राजस्थान का प्रसिद्घ शैवपीठ है। ऋद्घि-सिद्घि और समृद्घि की त्रिवेणी यहॉं बहती है। रूपपुरी को ऐश्र्वर्य और अध्यात्म का दोहरा सुख यहॉं प्राप्त हुआ। गुरु शंकर भारती के सान्निध्य में वे यहॉं योग, प्राणायाम एवं हठयोग की कठिन साधना करने लगे। गुरु शंकर के बाद रूपपुरी को श्री मोतीलाल जी महाराज का सान्निध्य मिला।
श्री मिश्रीलाल जी म.सा. गुरुदेव का जीवन भी काल के ाूर वायु-वेग को सह नहीं पाया और मुनि रूपचंद्र जी एकाकी हो गये, किन्तु उनके साथ था, गुरु मिश्रीलाल जी का आशीष। उनकी कृपा का कवच, जो उनकी संयम-संपदा की सुरक्षा ही नहीं करता अपितु उसे गति भी प्रदान करता था।
नियति, संयति को नहीं छल पाती है, क्योंकि संयति पौरुष के प्रांगण में खड़ा होकर पॉंवों से धरती को और बाहों से आकाश को बांध लेती है। पौरुष और परााम नियति का स्वयं निर्माण किया करते हैं। मुनि रूपचंद्र जी का जीवन इस सत्य का साक्षीमान था।
आशीष के लिए उठे दो हाथ उन्हें एक बार फिर अपनी आँखों के सामने दिखाई दिये। ये वरदहस्त थे, परम पूज्य श्रमणसूर्य केसरी जी महाराज के। मुनि रूपचंद्र जी का यह अपूर्व मिलन था। यह मिलन मंजिल को राह और राह को मिली मंजिल की तरह था। पूज्य मरूधर केसरी जी के आशीर्वाद ने युवा मुनि श्री रूपचंद्र जी को प्रेरणा, पथ, पाथेय व गति प्रदान की, जिससे उनके चरणों ने मंजिल की दिशा में बढ़ने का संकल्प प्राप्त किया।
मरूधरा के गॉंव-गॉंव में आस्थाशील हजार-हजार श्रावक एवं श्राविकाओं ने इस श्रमण-युगल को श्रद्घा, स्नेह व विश्र्वास का उपहार दिया। मरूधरा के चतुर्विध संघ ने इस चार चरणों से एक नयी आस्था, नयी उष्मा, नयी ऊर्जा का विस्तार किया।
मुनि रूपचन्द्र जी ने अपनी चेतना की देहरी पर तप की ज्योति प्रज्ज्वलित की। उपवास से लेकर पचपन दिवसीय सुदीर्घ तप एवं फिर नव मास क्षमण की निराहार साधना कर उन्होंने अपने संयम के स्वर्ण को तप की अग्नि से कुंदन बनाया। वे तप के महायोग में लीन होकर ध्यान की अतल गहराइयों में उतरे। बारह वर्ष तक कठिन तप करके आपने जो ऊर्जा एकत्रित की, उसे समाज के सर्वांगीण उन्नयन के लिए प्रस्तुत कर दिया।
आपने श्रमण-संस्कृति के चिरंतन स्वप्न अहिंसक समाज की रचना कर, अपने संकल्प-सूत्र को पूरा किया। गॉंव-गॉंव तक पॉंव-पॉंव चल कर अहिंसा के इस अनाम उपासक ने हिंसा के ध्वज को झुका कर अहिंसा की वैजयन्ती पताका फहराई।
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