एक कहावत है- पूत के पॉंव पालने पर ही दिख जाते हैं, जो मात्र कहावत ही नहीं है, बल्कि जीवन की वास्तविकता है। जिस तरह राजकुमार सिद्घार्थ को मानव-कल्याण की धुन थी और एक दिन पत्नी को सोता हुआ छोड़कर वे निकल पड़े थे, मानव-जीवन की पीड़ा-हरण का सपना संजोकर। बाद में यही सिद्घार्थ गौतम बुद्घ भगवान कहलाए। कुछ ऐसा ही वृतांत है जैनाचार्य राजयशसूरीश्र्वरजी म.सा. का। मुंबई में 1943 में पिता जिनदास एवं माता सुभद्रा बेन के घर जन्मे रमेश बचपन से ही धर्मानुरागी थे। मां सुभद्रा को गर्भावस्था के समय स्वप्न में इस बात का संकेत मिल चुका था कि उनकी कोख में पलने वाला बालक कोई सामान्य जीव नहीं है। पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण वह एक महान आत्मा है। वे एक भावी युगदृष्टा को कोख में पाल रही हैं।
बालक रमेश जन्म से ही वीतरागी था। पारिवारिक व सामाजिक बंधन, मोह, ममता, माया, सुख, वैभव उसे अपने मोहपाश में कभी बांध नहीं पाये और 12 साल का यह अबोध बालक निकल पड़ा घर से अपने जीवन की लक्ष्य-साधना के लिये। किन्तु माता-पिता के वात्सल्य ने उसे लौटने के लिये विवश कर दिया। किन्तु इस संत-आत्मा को यह सब मंजूर नहीं था। आखिरकार 19 वर्ष की युवावय में दादा गुरुदेव लब्धिसूरीश्र्वर का शरणागत होकर वह गुरु-सेवा में तल्लीन हो गया और पू. आचार्य गुरुदेव विामसूरीश्र्वर से दीक्षा लेकर जैन-मुनि राजयशसूरीश्र्वर बन गया।
यह संतात्मा चल पड़ी मानव-कल्याण का अलख जगाने। पिछले करीब 46 वर्षों से यह पुण्यात्मा जन-कल्याण के प्रगति-पथ पर अथक रूप से अग्रसर है। देशभर के प्रायः हर भू-भाग में विचरण करके जाने कितनी सुसुप्त आत्माओं को जागृत कर उन्हें जीवन-दर्शन का पाठ पढ़ा कर सद्-मार्गगामी बनाया है। कहते हैं कि पारसमणि के संपर्क में आकर लोहा भी सोना बन जाता है। आचार्य भगवंत राजयशसूरीश्र्वर के दर्शन मात्र से ही जीवन के सारे पापकर्म धुल जाते हैं। उनके चेहरे पर सुषमा और वाणी पर सरस्वती का वास है। कितनी महान होती हैं ऐसी आत्माएँ, जो जन-कल्याण के लिये अपना जीवन न्योछावर कर देती हैं। इसलिए ऐसी आत्माओं को महान आत्मा यानी कि महात्मा की उपाधि दी गयी है।
तमिलनाडु जैसे प्रांत की राजधानी चेन्नई में आज से 10 वर्ष पूर्व चातुर्मास के दौरान राजयशजी ने उस समय प्रत्यक्ष चमत्कार कर दिखाया, जब लोगों ने उनके द्वारा आयोजित जैन-मेले में आकर दुर्व्यसन छोड़ने की स्वेच्छा से प्रतिज्ञा की। यह एक ऐसा भव्य आयोजन था, जिसमें हजारों की संख्या में दर्शनार्थी प्रतिदिन कूड़ेदानों में गुटके पाउच फेंक जाते थे। कितना महान कार्य है लोगों से गुटका फिंकवाने का। लेकिन राजयशजी ने बड़े सहज भाव से इसे सफल कर दिखाया। यही नहीं, मां-बहनों ने असंख्य तादाद में शपथ ली कि किसी भी हाल में वे भ्रूण-हत्या नहीं कराएंगी।
यह तो मात्र एक झलक है आचार्यश्री के जन-कल्याण कार्य की। राजयश जी म.सा. ने जैन-धर्म के अनेक स्थलों का जीर्णोद्घार कराया है। जहां-जहां पांव पड़े संतों के, वहां-वहां छायी सदाबहार। चाहे शिक्षा हो या व्यसन-मुक्ति या कोई अन्य जन-कल्याणकारी कार्य, राजयशजी कर्मठ योगी की तरह जुट जाते हैं कर्मक्षेत्र में और यही उनकी सरलता का रा़ज है। सबको प्यार, वात्सल्य, स्नेह, धर्मानुराग बांटना ही प्रकृति है आचार्य जी की।
गर्भस्थ जीव-हत्या से व्यथित है यह पुण्यात्मा। आओ, हम सब मिलकर उनका दर्शन-लाभ पाकर जीवन को धन्य बनाएँ और इस पुण्यात्मा को वचन दें, कि आज से हम जीवन के हर क्षेत्र में जीव-हत्या नहीं होने देंगे। हत्या मानवता के विपरीत एक जघन्य अपराध है और प्रायः हर धर्म में वर्जित है। फिर क्यों न इसे रोकें, इसका विरोध करें। आचार्यदेव राजयशसूरीश्र्वरजी का हम सबको यही संदेश है-मानव हो तो रोको, मानव-हत्या को। इससे बड़ा और क्या संदेश हो सकता है, मानव-कल्याण का। “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयः सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्र्चित दुःख भा भवेत’ ही जीवन का दर्शन है। संत शिरोमणि राजयशसूरीश्र्वरजी म.सा. पर संत तुलसीदास की यह पंक्ति खरी उतरती है-
परहित सरित धरम नहीं भाई,
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।
– भावसिंह कशाना
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