महाराष्ट नवनिर्माण सेना के नेता राज ठाकरे ने एक बार फिर अखंड भारत की मर्यादाओं को रौंदते हुए घृणा और फूट डालने की राजनीति खेली है और रेलवे की परीक्षा देने आए उत्तर भारतीय छात्रों के साथ उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने मारपीट की है। किसी तरह या शायद भारी दबाव के चलते महाराष्ट सरकार को उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा। यह है ताजातरीन राजनीति की खबर, लेकिन यहां पर संदर्भ थोड़े पुराने मगर अहम हैं। शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे के संसद में प्रस्तुत होने की खबरों के संदर्भ में महाराष्ट नवनिर्माण सेना (मनसे) के नेता राज ठाकरे द्वारा की गयी तीखी टिप्पणी के पीछे भले ही उनके निहित राजनीतिक उद्देश्य हों, लेकिन टिप्पणी के तेवर और उसके संदर्भों को सिर्फ यहीं तक सीमित होकर नहीं देखा जा सकता। हमारी संसद देश की सर्वोच्च संस्था है। यदि किसी व्यक्ति को संसद के समक्ष उपस्थित होना पड़ता है तो इसे किसी भी तरह के अपमान से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। शिवसेना को तो यह भी लग रहा है कि राज ठाकरे इस प्रसंग से राजनीतिक लाभ उठाना चाह रहे हैं। राज ठाकरे उग्र भाषा को अपना हथियार मानते हैं और ग्यारह करोड़ मराठियों के खून आदि की बात करके वे एक तरह से क्षेत्रीय भावनाओं को ही उभार रहे हैं। शिवसेना प्रमुख एवं अपने चाचा को लिखे उनके पत्र के संदर्भ में आधिकारिक प्रतििाया स्वयं बाला साहेब अथवा शिवसेना की ही हो सकती है। लेकिन चूंकि इस मसले से भारत की संसद एवं उसका सम्मान भी जुड़ा है, अतः देश के प्रबुद्घ नागरिकों को भी इस बारे में सोचना चाहिए।
हमारी संसद देश की सर्वोच्च संस्था ही नहीं, देश का प्रतीक भी है। इस दृष्टि से देखें तो संसद का सम्मान हमारा अपना सम्मान है और संसद की किसी भी प्रकार की अवमानना से राष्ट अपमानित होता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वयं हमारे सांसद भी कई बार जाने-अनजाने संसद का अपमान करते दिखाई दिये हैं और इसके लिए कभी-कभी प्रताड़ित भी हुए हैं। हमारे नेताओं को, और देश के हर नागरिक को, यह समझने की आवश्यकता है कि संसद की गरिमा पर लगा कोई भी धब्बा वस्तुतः हमारे देश तथा स्वयं हमारे चेहरे को बदरंग बनाता है। संसद की अवमानना चाहे जान-बूझ कर की जाये या फिर अनजाने में, एक अपराध है- अपने देश तथा अपनी जनतांत्रिक व्यवस्था के प्रति अपराध। इसलिए यदि कोई नेता यह कहता है कि यदि बाला साहेब को संसद के समक्ष बुलाया गया तो महाराष्ट में आग लग जाएगी, तो इस धमकी को संसद की अवमानना के अर्थ में ही समझा जाना चाहिए।
वैसे तो स्वयं बाला साहेब ठाकरे ने अपने विद्रोही भतीजे का म़जाक उड़ाते हुए कहा है कि “आजकल कोई भी महाराष्ट में आग लगा देने की बात करने लगा है’, लेकिन सवाल उस राजनीति के औचित्य का भी है, जिसमें किसी राजनेता को इस तरह की उग्र भाषा की आवश्यकता महसूस होती है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारा संवैधानिक अधिकार है। जनतंत्र में किसी को भी अपनी बात कहने का हक मिलना ही चाहिए, लेकिन इस हक के साथ अभिव्यक्ति की शालीनता का कर्त्तव्य भी जुड़ा है। वाणी की स्वतंत्रता भी ़जरूरी है और वाणी का संयम भी। असंयमित स्वतंत्रता उच्छृंखलता कहलाती है, जिसे उचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन हमारे सार्वजनिक जीवन में कम से कम राजनेताओं ने तो यह मान लिया लगता है कि उन्हें कुछ भी कहने का अधिकार है, भले ही वह कितना भी अनुचित और अनावश्यक क्यों न हो। सड़क पर ही नहीं, संसद के भीतर भी हमने अपने नेताओं को अप्रिय और अनुशासनहीन भाषा का इस्तेमाल करते देखा है। जहॉं तक सार्वजनिक बयानों का सवाल है, हमारे नेता एक-दूसरे पर किसी भी तरह का कीचड़ उछालने में संकोच अनुभव नहीं करते। उल्टे यह मान लिया गया है कि कुछ भी कह देने का मतलब अपनी ताकत दिखाना होता है। यह तर्क तो अपने आप में गलत है ही, इस प्रवृत्ति के चलते हमारी समूची राजनीति में घटियापन आ गया है। दुर्भाग्य की बात यह है कि हर राजनेता को इस घटियापन के लिए दूसरा ही दोषी दिखाई देता है। अपना मैला दामन देखने की आवश्यकता कोई महसूस नहीं करता। और इसका परिणाम यह निकला है कि सारी राजनीति मैली दिखाई देने लगी है।
सवाल सिर्फ किसी एक राज ठाकरे के बयानों का ही नहीं है, राजनेताओं में एक होड़-सी मची हुई है अप्रिय और उत्तेजक बयान देने की। उत्तेजक बातें कहने और धमकियां देने को राजनेता अपनी ताकत समझने लगे हैं। यही नहीं, ऐसे आपत्तिजनक बयानों की अनदेखी करके व्यवस्था भी इस आशय के संकेत देती लगती है कि इस तरह के बयान देने वालों को हाथ लगाना खतरनाक है। जबकि हकीकत यह है कि खतरनाक यह स्थिति है। कानून-व्यवस्था का कम़जोर पड़ना अथवा कम़जोर दिखना समाज और राष्ट दोनों को कम़जोर बनाता है। खतरनाक यह कमजोरी है।
वैसे आदर्श स्थिति तो यह है कि हमारे राजनेता संयम बरतना सीखें, संयम की महत्ता समझें। लेकिन यदि वे स्वयं ऐसा नहीं करते या करना नहीं चाहते तो ़कानून-व्यवस्था की रक्षा करने के लिए उत्तरदायी तत्वों को अपनी भूमिका निभानी चाहिए। किसी को भी कुछ भी कहने की आजादी तो है, पर यह “कुछ भी’ सामाजिक मर्यादाओं, वैधानिक सीमाओं तथा औचित्य-शालीनता के अनुरूप ही होना चाहिए। सभ्य व्यवहार का तका़जा है कि अनर्गल कुछ भी न कहा जाये। धमकियों की भाषा वाली राजनीति से तात्कालिक लाभ होते हुए भले ही दिखें, ऐसी राजनीति से कुल मिलाकर सामाजिक घाटा ही होता है। यह घाटा पूरे समाज को भुगतना पड़ता है- यानी हर नागरिक को। यह बात हमारे राजनेताओं को समझनी ही होगी और यह भी समझना होगा कि किसी भी सभ्य व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं होता। यही नहीं, कानून सबके लिए होता है और सब पर समान रूप से लागू भी होना चाहिए। कानून के शासन का यही मतलब होता है।
कानून के शासन का तका़जा यह भी है कि नागरिक (नेता भी नागरिक होते हैं) ़कानून की मर्यादाओं को समझें-स्वीकारें। आम नागरिक से लेकर देश के राष्टपति तक से इन मर्यादाओं के पालन की अपेक्षा की जाती है। वैधानिक और सामाजिक मर्यादाओं के अनुरूप आचरण किसी भी व्यवस्था की सफलता की शर्त है। किसी भी नागरिक को, चाहे वह कितना ही “बड़ा’ नेता क्यों न हो, व्यवस्था की इस सफलता के प्रति अपना दायित्व निभाना होता है। अस्वस्थ राजनीति से यह दायित्व नहीं निभता। धर्म, जाति, भाषा, वर्ग के नाम पर की जाने वाली राजनीति अस्वस्थ ही होती है और ऐसी राजनीति करने वाले अक्सर जिस उग्रता का सहारा लेते हैं, वह राष्ट और समाज दोनों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम स्वस्थ रहना चाहते हैं या नहीं।
– विश्र्वनाथ सचदेव
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