स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में कुछ सप्ताह पूर्व संपन्न विश्र्व जल-सम्मेलन में विद्वानों ने दुनिया को चेतावनी दी है कि अगर हमने संसाधनों की बरबादी पर रोक नहीं लगाई तो वह दिन दूर नहीं जब हमें भारी जल-संकट का सामना करना पड़ेगा। हमारे लोग जब किसी भी तरह के संसाधनों का दुरुपयोग करते हैं तो अंततः वह पानी जैसे जीवनदायी संसाधन की बरबादी में परिणत हो जाता है। विद्वानों का कहना है कि विश्र्व में उत्पादित अनाजों का 50 प्रतिशत भाग बरबाद हो जाता है। स्टॉकहोम स्थित अंतर्राष्टीय जल संस्थान का कहना है कि अगर हम खलिहानों, परिवहन, दुकानों, सुपर बा़जारों, जलपान गृहों, होटलों और रसोईघरों में बरबाद होने वाले खाद्यान्न की मात्रा को जोड़ें तो पायेंगे कि यह हमारे कुल खाद्यान्न उत्पादन के आधे के बराबर होगी। इस बरबादी के लिए संपन्न और मध्यम आय वर्ग के साथ-साथ विकासशील तथा विकसित सभी तरह के राष्ट किसी-न-किसी रूप में जिम्मेदार हैं।
यही नहीं, पूरा विकासशील जगत अमेरिका का अनुकरण करने में लगा है जो संसाधनों की बरबादी का चरम प्रतीक है और इस अनुकरण को ही विकास की संज्ञा दी जा रही है। अमेरिका की जीवन शैली में किस तरह संसाधनों की बरबादी होती है, इसे देखा जाना चाहिए। सर्वेक्षणों से पता चलता है कि वहॉं के नागरिक 30 प्रतिशत खाद्य सामग्री तो उपभोग के अंतिम चरण पर ही बरबाद करते हैं, उत्पादन, परिवहन, प्रसंस्करण आदि के दौरान होने वाली बरबादी इससे अलग है। अंतिम चरण पर बरबाद होने वाली सामग्री के उत्पादन, प्रसंस्करण आदि में कुल मिलाकर 400 खरब लीटर पानी प्रयुक्त होता है। इतना पानी 50 करोड़ लोगों की एक वर्ष की ़जरूरतों की पूर्ति के लिए पर्याप्त है।
विकासशील राष्टों में उपयोग के अंतिम चरण की अपेक्षा खाद्य सामग्री के उत्पादन, परिवहन, प्रसंस्करण, भंडारण आदि के दौरान संसाधनों की बरबादी अधिक होती है। शीघ्र बरबाद होने वाली सब़्िजयां, फल आदि त्वरित परिवहन, समुचित भंडारण के लिए शीतगृहों आदि के अभाव में काफी मात्रा में बरबाद हो जाते हैं। फिर समय के साथ-साथ भारत जैसे शाकाहारी राष्ट में भी मांसाहार की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। अन्न, फल, स़िब्जयों की तुलना में मांस के उत्पादन में संसाधनों की अधिक खपत होती है। एक किलो गो-मांस के उत्पादन के लिए 10 से 15 टन पानी की आवश्यकता होती है। स्पष्ट है कि मांसाहार की दिशा में बढ़ने पर बड़ी मात्रा में पानी की बरबादी होगी। मांस के उपभोग के पक्ष में एक तर्क यह दिया जाता है कि यह प्रोटीन का एक अच्छा स्रोत है, परंतु इसकी तुलना में कई गुना कम पानी की मांग करने वाले प्रोटीन के अन्य स्रोत उपलब्ध हैं, जैसे दालें वगैरह।
केवल उपभोग के स्तर पर ही नहीं, उत्पादन प्रिाया के दौरान भी हम संसाधनों की भारी बरबादी करते हैं। भारत का ही उदाहरण लें तो हमने उत्पादन वृद्घि के लिए बड़ी-बड़ी सिंचाई परियोजनाओं का निर्माण किया है परंतु ये सिंचाई योजनाएं पानी की बरबादी का प्रतीक बन गई हैं। ाति हैक्टर कृषि के लिए सिंचाई आयोग द्वारा मान्य आवश्यक पानी की मात्रा की अपेक्षा इनमें औसतन 50 प्रतिशत अधिक पानी खर्च होता है। भूजल से सिंचाई की प्रिाया में सरकार द्वारा सिंचाई हेतु निःशुल्क या सस्ती बिजली उपलब्ध कराने के कारण दोहन किए जाने वाले पानी की लागत कम हो जाती है। अतः किसान पानी के उपयोग में किफायत के कोई प्रयास नहीं करते हैं। कृषि वैज्ञानिकों ने विपुल उत्पादन देने वाले जिन बीजों का विकास किया है, उनसे भी सिंचाई की आवश्यकता बढ़ती है। इस सारे कारणों से कृषि में पानी की मांग में वृद्घि होती है। अगर असिंचित कृषि के लिए भी ऐसे ही विपुल उत्पादन वाले बीजों का विकास कर लिया जाता तो पानी के उपयोग और बरबादी को कम किया जा सकता था।
हमें संसाधनों और पानी की बरबादी को रोकने की दिशा में प्रयास करने ही होंगे। विश्र्व खाद्य संगठन का कथन है कि अगर हमने बरबादी को रोकने की दिशा में प्रयास नहीं किए, तो वह दिन दूर नहीं जब बढ़ती आबादी के लिए खाद्यान्न और पानी उपलब्ध कराना कठिन हो जाएगा। स्टॉकहोम अंतर्राष्टीय जल संस्थान का कथन है कि लोगों की संसाधनों और पानी की फ़िजूलखर्ची की आदतों को बदलने के लिए हमें उपयुक्त आर्थिक प्रोत्साहन देने होंगे। स्वीडन का उदाहरण देते हुए संस्थान का कथन है कि स्वीडन में पानी की कीमतों में वृद्घि के फलस्वरूप पानी की खपत में 30 प्रतिशत कमी आई है। पानी के अभाव वाले देश कुवैत की सरकार उपभोक्ताओं को पानी निःशुल्क उपलब्ध कराती है, जबकि स्वीडन, जहॉं पानी प्रचुरता में उपलब्ध है, में सरकार उसे कीमत के बदले उपलब्ध कराती है। परिणाम यह रहा है कि कुवैत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पानी की औसत खपत 500 लीटर है जबकि स्वीडन में यह मात्र 150 लीटर अर्थात एक चौथाई ही है। भारत जैसे राष्ट में पानी की कीमत बढ़ाने के पूर्व हमें यह सुनिश्र्चित करना होगा कि गरीब आबादी को इसकी उपलब्धता बनी रहे, अन्यथा पानी गरीबों की पहुंच से परे हो जाएगा और इसके सामाजिक एवं स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभाव और भी अधिक गहन हो सकते हैं। परंतु किसी न किसी प्रकार से इस देश के संपन्न नागरिकों द्वारा की जाने वाली पानी की बरबादी को रोकना ही होगा। अगर हमने इस दिशा में ठोस कदम न उठाए तो स्थिति कितनी भयावह होगी, इसकी कल्पना ही हमें सिहरा देती है।
– डॉ. राम प्रताप गुप्ता
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