संस्कृत में अंकगणित पर लिखी गई सबसे पुरानी रचना “बख्शाल पांडुलिपि’ है, जिसे संभवतः सातवीं शताब्दी में संकलित किया गया होगा। इसे किसने संकलित किया, इसका कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन समझा जाता है कि इसे तत्कालीन व्यापारियों या उनके पुत्रों की जरूरत के मद्देनजर तैयार किया गया होगा। इन्हें अपने व्यापार की खातिर अंकों के प्रारंभिक ज्ञान व कुछ गणितीय िायाओं को याद रखने की आवश्यकता पड़ी होगी। अगर यह पांडुलिपि आज किसी भी तरह पूरे देश में मुहैया करवाई जा सके तो प्राचीन काल में गणित की स्थिति को समझने में बहुत मददगार साबित हो सकती है।
हाल ही में कोलकाता की एशियाटिक सोसाइटी ने “गणितावली’ नामक ग्रंथ का प्रकाशन करवाया है। उक्त पांडुलिपि की तरह ही इस ग्रंथ में भी इस बात का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि इसे किसने लिखा। हॉं, इस ग्रंथ की पुष्पिका (अंत में दिये गये वर्णन) से इतना जरूर पता चलता है कि सुखदास नामक एक कायस्थ ने रामपालदेव के शासनकाल में शक संवत् 1615 या 1715 में यह पूरी सामग्री कहीं से हासिल की थी। राजा रामपालदेव कहॉं शासन करते थे, उस स्थान का उल्लेख भी नहीं है। इस सामग्री की एक अद्वितीय प्रति एशियाटिक सोसाइटी के संग्रह में सुरक्षित है। यह पूरी सामग्री बांग्ला में नहीं, देवनागरी लिपि में लिखी हुई है। इसलिए हो सकता है कि यह बंगाल से बाहर लिखी गई हो।
ग्रंथ के शुरुआती पन्नों में कई खामियॉं हैं, हालॉंकि बाद के पन्नों की अधिकांश सामग्री सुवाच्य है। संपूर्णानंद संस्कृत विश्र्वविद्यालय (वाराणसी) के सरस्वती भवन के विभूतिभूषण भट्टाचार्य ने काफी मेहनत के साथ इस सामग्री का संपादन किया, लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि इसे अंजाम तक पहुँचाने से पहले ही उनका देहांत हो गया। अंततः मानबेंदु बनर्जी और प्रदीप कुमार मजूमदार ने अंकगणित, प्रारंभिक रेखागणित और क्षेत्रमिति (मापन) की सामग्री वाले इस ग्रंथ का संपादन किया।
इन दोनों संपादकों का विचार है कि यह ग्रंथ गणित की औपचारिक रचना नहीं है। यह ज्योतिषियों की हैण्डबुक है, जिसमें गणित व खगोल शास्त्र के कुछ विषय शामिल हैं। अलबत्ता, इस ग्रंथ के अज्ञात लेखकों ने अपने शुरुआती वाक्यों में साफ कर दिया है कि यह पुस्तक उन कायस्थों या हिसाब-किताब रखने वालों के लिए है, जो गणित का बेहद प्रारंभिक ज्ञान हासिल करना चाहते हैं, मगर जिनकी रुचि विषय के विस्तार में जाने में या उसे सीखने में नहीं है।
आइए, देखें कि इस पुस्तक की योजना क्या है? यह ग्रंथ “कारिका’ के रूप में लिखा गया है। सबसे पहले अध्याय में प्रस्तावना दी गई है, जो इस ग्रंथ को लिखे जाने के उद्देश्य पर प्रकाश डालती है। हालॉंकि पांडुलिपि के इस पहले अध्याय में कई बातें नदारद हैं और विभूतिभूषण भट्टाचार्य जैसे विद्वान भी अंदाज से इन्हें नहीं जोड़ पाए। चूँकि वे मात्र एशियाटिक सोसायटी में उपलब्ध पांडुलिपि पर कार्य कर रहे थे, इसलिए उन्हें जो कुछ उपलब्ध था, उसी से काम चलाना पड़ा।
दूसरा अध्याय “संख्याविधान’ है, जिसमें विभिन्न संख्याओं में मापन का उल्लेख किया गया है। इसकी शुरुआत “यव’ (जौ के बीज) से होती है। फिर “अंगुली’ वितस्ति या बालिश्त, हस्त, डंडा जैसे मापों का वर्णन किया गया है। फिर कोस और योजन का उल्लेख है। एक कोस 2000 डंडे के बराबर बताया गया है, जबकि एक योजन चार कोस के बराबर। पहले तीन माप वेदिक शुल्बसूत्र में भी देखे जा सकते हैं, जबकि कोस और योजन बड़ी दूरियों को नापने के लिए हैं।
इसके बाद वजन के मापों का वर्णन है, खासकर चावल के वजन करने वाले माप। ये माप शुभंकर लिखित बांग्ला आर्या में दिये गये मापों, जैसे- पल, कुडव, प्रस्थ, आधक, द्रोण, मानी, खारी और भार जैसे ही हैं। सुनारों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले मापों जैसे- गुंजा, माशा, कर्शा और पल का भी उल्लेख किया गया है। ग्रंथ के लेखकों के अनुसार अलग-अलग स्थानों के अनुसार एक माशा का मूल्य 16 या 10 या 5 गुंजा के बराबर होता है।
समय की माप के बारे में काफी रूखे ढंग से वर्णन किया गया है। इसके अनुसार एक दिन में 30 मुहूर्त होते हैं, जबकि 30 दिनों से एक माह और 12 माह से एक साल बनता है।
इसमें कुछ ऐसी मापें भी दी गई हैं, जो अब प्रचलन में नहीं हैं, जैसे- वराटका, गंडक या गंडिक, काकिणी, पण, डल्लक इत्यादि। विभूतिभूषण भट्टाचार्य ने डल्लक के बारे में बताया है कि यह बांस या ऐसी ही किसी वस्तु से बना एक पात्र होता था। वे कुछ आधुनिक उत्तर भारतीय शब्दों (दौरी या डाला) की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। रोचक बात है कि घटीमान, द्रम्मकेदार और दीनार का भी उल्लेख है।
तीसरे अध्याय का नाम है, “परिभाषाविधि’, जिसमें खासकर रेखागणित और अंकगणित से जुड़ी तकनीकी शब्दावली दी गई है। जैसे काया (संपूर्ण पिंड), अंशक (भाग), छेद, विश्कंभ, परिधि, भाजक, हरक इत्यादि।
चौथा अध्याय “परिामाविधि’ विभिन्न अंकगणितीय समीकरणों व सूत्रों को समर्पित है।
पॉंचवें अध्याय का नाम “व्यवहारविधि’ है, जिसमें कई प्रकार के नियम जैसे तीन का नियम, पॉंच का नियम, गुणन, चावृद्घि, ब्याज की गणना आदि को समझाया गया है। साथ ही चतुर्भुज, त्रिभुज, वृत्त इत्यादि के बारे में भी संक्षेप में बताया गया है।
छठवें अध्याय में उदाहरणों के जरिये विभिन्न नियमों को समझाने का प्रयास किया गया है। यह इस ग्रंथ का सबसे लंबा अध्याय है और यह गद्य तथा पद्य दोनों शैलियों में लिखा गया है, जबकि अन्य सभी अध्याय केवल पद्य में लिखे गये हैं। इस अध्याय में कई अभ्यास दिये गये हैं। भट्टाचार्य ने कम से कम 49 ज्यामितीय उदाहरण दिये हैं, ताकि पाठकों को समझने में आसानी हो।
इस ग्रंथ में कई कमियॉं निकाली जा सकती हैं। कई स्थानों पर यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर लेखक कहना क्या चाहते हैं। सामग्री भी बहुत अधिक स्तरीय नहीं है। हालॉंकि इसके बावजूद कहना पड़ेगा कि यह ग्रंथ सैकड़ों साल पहले उत्तर भारत में प्रचलित गणित के अध्ययन की एक झलक तो दिखलाता ही है। कुल मिलाकर यह एक दुर्लभ ग्रंथ है, जिसका संरक्षण कर एशियाटिक सोसाइटी ने अनुकरणीय कार्य किया है।
– रामकृष्ण भट्टाचार्य
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