पाकिस्तान वर्चस्ववादी सत्ता-केन्द्रों की टकराहट का अखाड़ा बनता जा रहा है। ये टकराहटें पाकिस्तान की राजनीति को किस मुकाम तक ले जायेंगी, अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन इतना तो तय है कि सत्ता-शीर्ष पर उभरने वाला यह संघर्ष उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही सिद्घ होगा। सत्ता के केन्द्र के एक खाने में अगर यूसुफ ऱजा गिलानी की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है तो उसके समांतर दूसरा केन्द्र राष्टपति परवेज मुशर्रफ का है। अलावा इन दोनों के सेना और उसके अधीन कार्यरत कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई भी है। पिछले दिनों अमेरिका की पहल पर प्रधानमंत्री गिलानी ने आईएसआई को सरकार के गृहमंत्रालय के अधीन लेने की पुरजोर कोशिश की थी। उनकी इस कोशिश को विफल करने के लिए आईएसआई और सेना का शीर्ष नेतृत्व एकजुट हो गया। मौका मुबारक समझ कर अपने प्रति इन दोनों की वफादारी बटोरने की गऱज से राष्टपति मुशर्रफ भी सरकार की इस पहल का पुरजोर विरोध करने लगे। हालात ऐसे बन गये कि इन तीनों की इकट्ठा ताकत फिर एक बार जनता की चुनी हुई सरकार को अपदस्थ कर सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले लेने की आशंका प्रकट करने लगी। फलतः इस दिशा में बढ़े हुए अपने कदमों को सरकार को वापस खींचना पड़ा।
टकराहट का यह अध्याय बंद हो जाने के बाद एक नया मोर्चा फिर खोल लिया गया है। इसके तहत सरकार की भागीदार दोनों प्रमुख पार्टियॉं पी.पी.पी. और पीएमएल (एन) राष्टपति मुशर्रफ के खिलाफ महाभियोग लाने के लिए सहमत हो गई हैं। इसके अलावा मुशर्रफ द्वारा पिछले साल लागू किये गये आपातकाल के दौरान बर्खास्त किये गये न्यायाधीशों की पुनर्बहाली पर भी दोनों ने अपनी सहमति प्रकट की है। यह निर्णय दोनों पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व, जिसमें पी.पी.पी. के सह अध्यक्ष आसिफ अली जरदारी और पीएमएल (एन) के नवाज शरीफ ने शिरकत की, की एक बैटक में 6 अगस्त को लिया गया। बैठक में राष्टपति के खिलाफ महाभियोग सदन में पारित कराने के लिए आवश्यक संख्या बल की बाबत भी आश्र्वस्ति प्रकट की गई। तय यह भी हुआ कि पहले मुशर्रफ से राष्टपति पद त्यागने को कहा जाएगा। अगर वे इसे ठुकरा देते हैं तो उन्हें सदन में महाभियोग का प्रस्ताव लाकर हटाया जाएगा। इसके लिए सभी दलों को मुशर्रफ के खिलाफ अभियोग प्रामाणिक तौर पर तैयार करने को कह दिया गया है। सदन राष्टपति को भी अपने ऊपर लगाये गये आरोपों का उत्तर देने का अवसर मुहैया करायेगा।
उधर, इसका मुकाबला करने की तैयारी में राष्टपति मुशर्रफ भी जुट गये हैं। इस तरह की कोशिशों को विफल करने के लिए वे भी अपने संवैधानिक अधिकारों को खंगालते समझ में आते हैं। रैसे अपने पुराने फौजी तेवर को बरकरार रखते उन्होंने पहले की तरह एक बार फिर घोषित कर दिया है कि वे अपने पद पर बने रहेंगे और इस पद पर रहते हुए वे अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह भी करते रहेंगे। उनका स्पष्ट मानना है कि देश की स्थिरता के लिए उनका पद पर बने रहना बहुत ़जरूरी है। उन्होंने अपनी समर्थक पार्टी पीएमएल (क्यू) को आश्र्वासन भी दिया है कि राष्टाध्यक्ष के रूप में वे अपनी संवैधानिक भूमिका का निर्वाह करते रहेंगे। असलियत यह है कि आपातकाल के दौरान व़जूद में आया पाकिस्तानी संविधान राष्टपति को यह अधिकार देता है कि वह अपनी शक्तियों का उपयोग कर सदन को भंग कर सकता है तथा सरकार को अपदस्थ कर सकता है। इस संवैधानिक अधिकार के अलावा मुशर्रफ के पास एक और हथियार है जिसकी बाबत वह आश्र्वस्त हैं। उन्हें इस बात का मुकम्मल तौर पर भरोसा है कि गाढ़े दिनों में सेना और आईएसआई उनकी मदद में ़जरूर आयेंगे। उन्हें इस बात का भी भरोसा है कि वे पाकिस्तान में अमेरिका के एकमात्र प्रतिनिधि हैं, इस स्थिति में अमेरिका किसी भी हालत में अपने एक भरोसेमंद साथी को खोना नहीं चाहेगा।
मुशर्रफ के इस प्लस-प्वाइंट से पी.पी.पी. के सहअध्यक्ष आसिफ अली जरदारी ब़खूबी वा़िकफ हैं और उन्होंने अपनी ओर से मुशर्रफ के साथ इस टकराहट को टालने की कोशिशें भी की हैं, लेकिन सत्ता की साझीदार पार्टी पीएमएल (एन) के सुप्रीमो नवा़ज शरीफ हर हाल में मुशर्रफ से टकराने को आमादा हैं। उन्हें 1999 में एक रक्तहीन सैनिक ाांति के जरिये मुशर्रफ ने सत्ता से बेदखल किया था और बाद में मुशर्रफ के चलते ही उन्हें एक लम्बे समय तक निर्वासन का दुःख भी भोगना पड़ा था। ये तमाम तल़्िखयॉं उन्हें मुशर्रफ से बदला चुकता करने को हमेशा उकसाती रहती हैं। जरदारी की पार्टी की हालत यह है कि अगर नवा़जशरीफ अपना दिया गया समर्थन वापस ले लें तो उनकी सरकार चली जाएगी। मुशर्रफ के ़िखलाफ महाभियोग का मामला हो अथवा अपदस्थ किये गये न्यायाधीशों की बहाली का मामला, जरदारी ने भरसक टकराव से बचने की कोशिश की है। लेकिन नवाज शरीफ के दबाव के आगे उन्हें मुशर्रफ के खिलाफ यह सख्त कदम उठाने को मजबूर होना पड़ रहा है। इस टकराहट में हार-जीत चाहे जिसकी हो, लेकिन इस हार-जीत का नतीजा पाकिस्तान को अस्थिरता के एक दौर में ़जरूर खींच ले जाएगा। वर्चस्ववादी राजनीति के जब एक ही देश में कई-कई केन्द्र बन जाते हैं तो टकराहटें देश की प्रगति और विकास को बहुत पीछे ढकेल देती हैं। लेकिन पाकिस्तान में हो यही रहा है।
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