धर्म, जाति और भाषा को किया जा रहा है गलत ढंग से परिभाषित
स्वतंत्रता के बाद भारत की एकता, अखंडता और चौतरफा समृद्घि के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने देश के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए जो मंत्र और सूत्र निर्धारित किए थे, वे अब ओझल-से होते जा रहे हैं। स्वतंत्र भारत को आत्मनिर्भर बनाने और सत्ता संचालन के लिए राजनैतिक शुचिता की जो दिशाएँ तय हुई थीं उनकी, नये-नये बनते जा रहे राजनैतिक दलों द्वारा सत्ता तक पहुँचने के लिए जिस तरह से अनदेखी की जा रही है, उससे सामाजिक सद्भाव, जन कल्याण और विकास के आयाम कलंकित होते जा रहे हैं।
धर्मनिरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव की भावना की जगह धर्म, जाति और भाषा के नाम पर लोगों के मन में कटुता के बीज बोकर, अपने निहित-स्वार्थों के लिए राजनैतिक पार्टियॉं अनुशासन और मर्यादा की सीमाओं के बाहर पहुँचती जा रही हैं। देश का वर्तमान परिदृश्य कुछ इस तरह बन गया है कि जिसमें विभिन्न धर्मों, भाषाओं और जातियों के नाम पर देश टुकड़ों में बॅंटता ऩजर आ रहा है। राजनैतिक पार्टियों के घोषणापत्र जनता को गुमराह करने के हथियार ही रह गये हैं। कतिपय राजनैतिक दलों के धर्म, जाति और भाषा के गुप्त एजेंडे अब खुलकर सामने आ गये हैं। सत्ता के सिंहासन का एक-आध बार रस चख लेने के बाद राजनैतिक दलों का चस्का बढ़ता जाता है और वे सत्ता पर काब़िज होने के लिए ऐसे-ऐसे सत्कर्म करते हुए देखे जा रहे हैं कि वे परस्पर समाज को विघटित कर अपने लिए अलग से एक जनमत बना रहे हैं। इस कुकृत्य के लिए वे धर्म की गलत परिभाषाएँ रचकर विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच खाई पैदा कर रहे हैं और जाति और भाषा के नाम पर लोगों की भावनाओं को भड़का कर अपनी राजनैतिक रोटियॉं सेंकने के लिए खुल्लमखुल्ला मैदान में उतर चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता तक पहुँचने के लिए धर्मप्राण जनता के मन में धर्म को लेकर कुछ ऐसा चक्कर चला रखा है कि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों के बीच दरारें पैदा होने लगी हैं। बहुसंख्यक मतदाताओं में धर्मान्धता के भाव कूट-कूट कर भरने के कुत्सित प्रयास शुरू कर दिए गये हैं और निर्वाचन में कामयाबी के लिए बहुसंख्यक मतदाताओं की बड़ी संख्या को अपनी ओर खींचने के लिए सर्वधर्म समभाव की भावना को चोट पहुँचाई जा रही है। राम मंदिर, राम सेतु और अमरनाथ यात्रा की भूमि के आश्रय के माध्यम से सत्ता तक पहुँचने की चाह को लेकर भाजपा विकास और जनकल्याण के नाम पर तैयार किए गये अपने घोषणापत्रों को सदैव ही दरकिनार करती जाती है। बहुसंख्यकों के वोट पक्के करने के लिए अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत पैदा करने के अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं। केन्द्र और राज्यों में सत्ता हथियाने की तड़प में ये राजनैतिक दल मतों के विभाजन की जोड़-तोड़ को अपना प्रमुख मुद्दा बनाते जा रहे हैं। आतंकवाद जैसे मुद्दों पर अपनी राजनैतिक बयानबाजियों के ़जरिए देश की अस्मिता का भी ध्यान नहीं रखा जा रहा है। एक तरफ तो यह कहा जा रहा है कि आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता, किंतु धर्म विशेष के लोगों द्वारा आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने पर कुछ अलग ही ढंग से परिभाषा रचकर बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों में भेद खड़ा कर दिया जा रहा है। कतिपय राजनैतिक पार्टियॉं कुछ ऐसा प्रचारित कर रही हैं कि आतंकवाद में केवल अल्पसंख्यक वर्ग के कट्टरपंथी लोग ही लिप्त हैं। यदि कहीं किसी बहुसंख्यक को आतंकवाद के लिए आरोपित किया जाता है तो तुरंत इसे धार्मिक उन्माद का रूप दे दिया जाता है। यह देश की धर्मनिरपेक्ष छवि का सरासर मजाक है।
भारत की अनेकता में एकता की अपनी अलग छवि की पहचान तब धूमिल-सी दिखने लगती है जब एकता को खंडित कर अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए कतिपय पार्टियॉं राजनीति के मैदान में धर्म और जाति के मुद्दों को उतार लेती हैं। धर्म तो एक ऐसा विषय है जो सभी प्राणियों के प्रति दया, करुणा, संवेदना, प्रेम और परस्पर सहभागिता और सहिष्णुता का संदेश देता है। धर्म का उपयोग मानव कल्याण के लिए है, न कि राजनीति के लिए है। धर्म का क्षेत्र ही अलग है। उसे अपने ही क्षेत्र में रहने दिया जाना चाहिए। भारत जैसे देश में, जहॉं प्रजातांत्रिक प्रणाली है और विभिन्न धर्मावलंबी यहॉं के नागरिक हैं, वहॉं सभी धर्मावलंबियों को अपने-अपने धर्म का पालन करने का मौलिक अधिकार है। इस दृष्टि से धर्मनिरपेक्षता को सामाजिक एकता का मूलमंत्र माना गया है। किंतु विकास और जनकल्याण की भावना के बजाय अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए सत्ता पर काबिज होने के कुत्सित प्रयासों ने धर्मान्धता को बढ़ावा देकर, विघटन की चाल चलकर, अपने मतदाताओं को गुमराह करने का कुचा चला रखा है। इसी तरह जाति और संप्रदाय के विभिन्न रंगों के फूलों के गुलदस्तों की छवि भी खराब की जा रही है और जाति और संप्रदायों के बीच फूट पैदा कर अपने-अपने जनसमूह तैयार किए जा रहे हैं। अनेक भाषाओं वाले इस गौरवशाली देश में विभिन्न भाषाओं के मिश्रण की मिठास में भी भाषा-भाषियों में भेद पैदा कर कडुआपन घोलने के लिए नई-नई राजनैतिक पार्टियॉं सत्ता तक पहुँचने के लिए आंदोलन चलाकर मैदान में उतर चुकी हैं।
भारत में सामाजिक सद्भाव, आर्थिक विकास और जनकल्याण के लिए राजनैतिक पार्टियों को सत्ता तक पहुँचने का संवैधानिक अधिकार है। किंतु अपने इस अधिकार को हासिल करने के लिए राजनैतिक शुचिता और उसकी पावनता का ध्यान रखना भी आवश्यक है। वर्तमान परिदृश्य में राजनीति में धर्म, भाषा, जाति और संप्रदायों के मुद्दों का उपयोग देखा जा रहा है, जो हमारी राष्टीय एकता और अखंडता के लिए घातक है। उचित होगा कि धर्म, भाषा, जाति और संप्रदायों को गलत ढंग से परिभाषित नहीं किया जाय। इसके लिए राजनैतिक दलों को सत्ता के बजाय देश के हित के लिए अपने आपको समर्पित करना होगा।
– राजेन्द्र जोशी
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