इन दिनों कुछ काम-धाम था नहीं। सोचा, बैठे-ठाले एक प्रेस कांफ्रेंस ही कर डालें। वैसे भी ज्यादातर प्रेस कांोंसेज ऐसे ही ठाले-बैठे हो जाया करती हैं। मैंने पत्रकारों को निमंत्रण भेज दिये। शाम को प्रेस क्लब पहुँचा तो आश्र्चर्य के साथ देखा, नगर के सभी बड़े-बड़े दिग्गज पत्रकार उपस्थित हैं। केवल चाय और नमकीन पर इतने ज्यादा पत्रकारों को देख कर मेरी तो बांछें खिल गयीं। पत्रकार संघ के सचिव ने कांफ्रेंस शुरू करते हुए कहा, “आप सभी व्यंग्यकारों को जानते हैं। अतः एक व्यंग्यकार को हम “प्रेस से मिलिए’ कार्याम में पकड़ कर ले आये हैं, आप लोग प्रश्र्न्न पूछें’, यह कहकर वे बैठ गये।
सर्वप्रथम प्रश्र्न्न पूछने जो सज्जन खड़े हुए वे पत्रकार बिरादरी में बॉडी लाइन बॉलर के रूप में प्रसिद्घ थे। वे उठे, उन्होंने अपना चश्मा फिट किया। दूर क्षितिज में देखा और पहली बाउन्सर फेंकी-
वे, “आप करते क्या हैं?’
मैं, “करता क्या हूँ, लिखता हूँ।’
वे, “लिखते तो हम भी हैं।’
मैं, “तो फिर?’
वे, “फिर क्या, मेरा मतलब है आप करते क्या हैं?’
मैं, “अरे भाई, कुछ नहीं करता।’
वे, “कुछ करिये साहब! इस देश के लिए कुछ करिये।’
मैं, “अच्छा, आप देश का जिा कर रहे हैं तो सुनिये साहब! यह प्रश्न मुझसे बेंगलुरु, चेन्नई, मुम्बई और कोलकाता की प्रेस कांफ्रेंस में भी किया गया था। वही जवाब मैं दोहराना चाहूँगा।’
कई पत्रकार,”वो बासी जवाब हम नहीं छापेंगे। कई बार छप चुका है वो वक्तव्य।’
मैं, “नाराज क्यों होते हैं। मुझे बोलने की आ़जादी है और आपको छापने की। हम दोनों एक-दूसरे की आ़जादी की रक्षा करेंगे।’
पत्रकार संघ के सचिव बीच में बोल पड़े, “आप स्वयं लिख कर छपवा लें। आपको भी ह़जार रुपये पारिश्रमिक मिल जायेगा।’
“ह़जार रुपये!’ यह सुनते ही मैं बेहोश हो गया।
सभी तरफ से क्या हुआ? क्या हुआ? का शोर मचा। पानी के छींटे दिये गये। मैं होश में आया।
सचिव, “क्या बात हुई।’
मैं, “पारिश्रमिक शब्द सुनकर चक्कर आ गया। और आगे पूछिये।’
एक दक्षिण भारतीय पत्रकार ने पूछा, “कश्मीर की समस्या का हल क्या है?’
“कश्मीर की समस्या का हल दरअसल हमें इतिहास में ढूंढना पड़ेगा। ढूंढने का काम आसान नहीं है। हम सभी को मिलकर कोशिश करनी चाहिये। जब हल मिल जाये तो सभी मिल-बैठ कर उस पर विचार कर लें और उसे लागू कर दें। बस, हल मिलना इतिहास के हाथ में है।’
एक महिला पत्रकार, “सर आपने साहित्य की ओर कैसे रुख किया?’ अन्य पत्रकार मुंह बनाते हैं।
मैं, “देखिये मैडम, साहित्य में आने का कारण मेरे गणित के अध्यापक हैं। उन्होंने मुझे गणित में फेल कर दिया। फिर मैं विज्ञान में भी फेल हो गया और अन्त में जाकर मुझे साहित्य में शरण मिली।’
“अच्छा सर, आपकी दृष्टि में श्रेष्ठ लेखक कौन है?’
“मेरी राय में मैं ही श्रेष्ठ लेखक हूँ।’
“तब अकादमी आपको पुरस्कृत क्यों नहीं करती।’
“आप अकादमी अध्यक्ष से पूछें।’
इतने में एक बागी पत्रकार तेजी से अन्दर आये और बन्दूक की गोली दागी।
“आप अपने को श्रेष्ठ लेखक कैसे कह सकते हैं?’
“क्योंकि और किसी लेखक को मैंने पढ़ा ही नहीं है।’
“मैं आपको लेखक ही नहीं मानता।’
“मैं भी आपको पत्रकार नहीं मानता।’
सभी पत्रकार मेरी हॉं में हॉं मिलाते हैं। बागी पत्रकार चले जाते हैं।
अब वापस एक युवा पत्रकार अपने मोटे चश्मे और दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए पूछते हैं, “साहित्यकार की सामाजिक उपयोगिता क्या है?’
मैं, “बहुत अच्छा प्रश्र्न्न है। ऐसा प्रश्र्न्न लीलावती ने भी पूछा था। बाद में अकबर ने बीरबल से और ओशो ने मुझसे पूछा था।’
पत्रकार, “अच्छा, आप ओशो से मिले थे?’
मैं, “मिले! अरे भाई जबलपुर के एक कॉलेज में साथ-साथ थे। भेड़ा-घाट पर खूब भेड़ें चराई हैं हम दोनों ने। आह, वे भी क्या दिन थे।’
पत्रकार, “मैं साहित्यकार की सामाजिक उपयोगिता के बारे में पूछ रहा था।’
मैं, “हॉं हॉं, मैं उसी प्रश्र्न्न पर आ रहा हूं। आपने बीच में टोक दिया। हॉं, तो मैं कह रहा था कि भेड़ाघाट के सौन्दर्य की उपयोगिता क्या है? चांदनी की उपयोगिता क्या है? फूल और खुशबू की उपयोगिता क्या है?’
पत्रकार, “हम समझे नहीं।’
मैं, “समझा रहा हूँ, जो महत्व खुशबू और चांदनी का है वही महत्व साहित्य का है और साहित्य की उपयोगिता का है।’
पत्रकार, “अच्छा, दूरदर्शन की स्वायत्तता पर आप क्या सोचते हैं? ‘
मैं, “इसमें सोचना क्या है? हम स्वतन्त्र हुए। अब स्वायत्त हो रहे हैं और आगे जाकर स्वच्छन्द हो जायेंेगे। यही विकास की अनवरत परम्परा है। मेरा एक सुझाव है कि यदि ऑटोनॉमी दी जाती है तो सभी संस्थाओं को दें। प्रेस को भी ऑटोनॉमी होनी चाहिये कि वे अपने सेठों के बारे में लिख सकें।’
सचिव, “ये क्या बकवास है?’
मैं, “बकवास नहीं जनाब, ये हकीकत है। ऑटोनामी फॉर ऑल। यही मेरा नारा है। देखिये तब देश की झांकी कैसी होगी। पत्नी ऑटोनॉमस, पति ऑटोनॉमस, बाबू और अफसर ऑटोनॉमस, पूरा देश ऑटोनॉमस।’
सभी पत्रकार, “ये आप क्या कह रहे हैं? ये तो जंगलराज हो जायेगा। अराजकता हो जायेगी।’
सचिव बीच में ही बोल पड़ा, “प्रेस कांफ्रेंस समाप्त होती है। आइये, सभी चाय पीते हैं और मूंगफली खाते हैं।’ मूंगफली खाते हुए मेरी नींद टूट जाती है। पत्नी जगाती है। मैं प्रेस क्लब नहीं घर पर हूँ। मैं गा उठता हूँ- हाय! मेरा सुन्दर सपना टूट गया…।
– यशवन्त कोठारी
You must be logged in to post a comment Login