सब पढ़ेंगे, सब बढ़ेंगे

वर्ष 2008 में बहुत कुछ ऐसा हुआ जिसे हम याद नहीं रखना चाहेंगे। लेकिन एक काम ऐसा भी हुआ है जिसके लिए हम इस साल को हमेशा याद रखेंगे। बहुप्रतीक्षित “शिक्षा का अधिकार’ विधेयक लोकसभा द्वारा पास कर दिया गया है और जब ये पंक्तियां मैं लिख रही हूं, तब इसे राज्यसभा में पेश किये जाने की अंतिम तैयारी हो चुकी है। लोकसभा में पास किये जाने का मतलब है कि इस विधेयक को राज्यसभा में भी पास कर दिया जायेगा। इसके पास होते ही “राइट ऑफ चिल्डेन टू फ्री एंड कम्पलसरी एजुकेशन बिल 2008′ कानून का रूप ले लेगा और शिक्षा भारतीयों के मूलभूत अधिकारों में शामिल हो जायेगी। अभी भले यह बहुत प्रभावशाली उपलब्धि न लगे; लेकिन अगर सही से इस अधिकार का उपयोग किया गया तो यह भारत के अब तक के चेहरे को आमूल-चूल ढंग से बदलकर रख देगी। पिछले कई सालों से “सब पढ़ें, सब बढ़ें’ का नारा गूंज रहा था। अब वाकई सब पढ़ेंगे, सब बढ़ेंगे। 2009 इस सपने की शुरुआत का साल होगा।

हम सबने अपनी स्कूली पढ़ाई के दौरान किताबों में लिखे अपने सात मूल अधिकारों के बारे में पढ़ा है। अब इन्हीं सात मूल अधिकारों की फेहरिस्त में शिक्षा का अधिकार भी शामिल हो जायेगा। जिसका मतलब यह होगा कि देश का हर बच्चा जिसकी उम्र 6 साल से 14 साल के बीच होगी, शिक्षा उसका मूल अधिकार माना जायेगा। लंबे समय से गैर-सामाजिक अधिकार कार्यकर्ता यह लड़ाई लड़ रहे थे और अंततः उनकी अगुआई में भारत की आम जनता ने वह लड़ाई जीत ली, जो लड़ाई उसे 60 साल पहले जीत लेनी चाहिए थी। अब सबके लिए न्यूनतम प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध होगी, चाहे वह राजा हो या रंक। अब पढ़ने-लिखने की न्यूनतम सलाहियत से कोई वंचित नहीं रहेगा। क्योंकि अब शिक्षा जीने और अभिव्यक्ति की तरह मूल अधिकार के दायरे में आ गई है।

भारत आज विश्र्व की एक प्रमुख आर्थिक महाशक्ति है। चीन के बाद सबसे तेज आर्थिक विकास दर हमारी है। हमारे यहां दुनिया का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा और गतिशील व मजबूत उपभोक्ता बाजार मौजूद है। इन तमाम तमगों के बीच अशिक्षा हमारी एक बड़ी भयावह सच्चाई है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब भारत आजाद हुआ था तब देश के बहुसंख्यक लोग अशिक्षित थे। लेकिन क्या आप इस तथ्य से परिचित हैं कि भारत में आज 62 साल बाद अशिक्षितों की संख्या 1947 की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है। 1961 में सिर्फ 28 प्रतिशत भारतीय शिक्षित थे और 2006 में शिक्षित भारतीयों का प्रतिशत बढ़कर 66 हो चुका था फिर भी भारत में इस समय 38 करोड़ लोग ऐसे हैं जो लिख-पढ़ नहीं सकते यानी अशिक्षित हैं।

38 करोड़ अशिक्षित लोग! यह बहुत बड़ी आबादी है। आजादी के समय की यह भारत की कुल आबादी से बड़ी तादाद तो है ही, साथ ही अगर हिन्दुस्तान के अशिक्षितों को एक देश के रूप में चिन्हित किया जाये तो चीन, शिक्षित भारत के बाद दुनिया का आबादी के लिहाज से तीसरा सबसे बड़ा देश होगा यह अशिक्षित भारत। जी हां, भारत के कुल अशिक्षित अमेरिका की कुल जनसंख्या का 1ह्ल गुना हैं तो ऑस्टेलिया की आबादी का 17 गुना। देश में 6 से 24 साल की उम्र समूह के लोगों की आबादी 46 करोड़ है। लेकिन इस पूरी आबादी का महज 63 फीसदी ही स्कूल जाता है या स्कूल तक गया है। ऐसे में भला हम हिन्दुस्तान की तुलना तेजी से विकास कर रहे दूसरे देशों से कैसे कर सकते हैं; बावजूद इसके कि भारत में शिक्षा बहुत सस्ती है।

उच्च आय वाले देशों में जहां पढ़ने की उम्र समूह वाले (5 से 24 साल) 92 फीसदी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, वहीं भारत में यह आंकड़ा सिर्फ 63 फीसदी है। जो काफी निराश कर देने वाला आंकड़ा है; क्योंकि भारत के मुकाबले विकास दर में काफी पीछे चलने वाले ब्राजील और रूस में भी शिक्षा का स्तर और स्कूल जाने वाले बच्चों का प्रतिशत काफी ज्यादा है। ब्राजील में 88 फीसदी और रूस में 89 फीसदी स्कूल जाने की उम्र के बच्चे पढ़ रहे हैं जो भारत के 63 फीसदी के मुकाबले काफी ज्यादा हैं। चीन में भी लगभग 70 फीसदी स्कूल जाने की उम्र वाले बच्चे स्कूल जा रहे हैं। इस लिहाज से देखा जाये तो हिन्दुस्तान का प्रदर्शन सबसे खराब है।

आजादी के 62 सालों में हमारे नेताओं की वार्षिक आय में औसतन 3000 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ है। मध्यवर्ग की आय में एक हजार फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ है। उच्च वर्ग की आय में 15 से 20 हजार फीसदी का इजाफा हुआ है। लेकिन साक्षरता दर में इतना भी इजाफा नहीं हुआ कि वह बढ़कर जनसंख्या वृद्घि से अपने को हमकदम कर लेती। संयुक्त राष्ट के अध्ययन अनुमानों के मुताबिक 100 फीसदी शिक्षा का लक्ष्य हासिल करने में 15 से 20 साल लग जायेंगे। जबकि हर साल शिक्षा के बजट में पिछले साल के मुकाबले 15 से 20 फीसदी की बढ़ोत्तरी होती रही। गौरतलब है कि शिक्षा के लिए हम अपनी तमाम सामूहिक प्रतिबद्घता जताने के बावजूद अभी तक अपने कुल बजट का 5 फीसदी भी खर्च करने के लिए अपने आपको तैयार नहीं कर पाये। भले हम इससे कहीं ज्यादा का खर्च गैर योजनागत क्षेत्रों में कर देते हों। अब वक्त आ गया है कि हम शिक्षा के प्रति अपनी उदासीनता से जागें और भारत को दुनिया का एक पढ़ा-लिखा देश बनाने की कोशिश करें।

हालांकि एक तरफ शिक्षा के प्रति हमारी शासकीय दरिद्रता जग-जाहिर है, दूसरी तरफ शिक्षा के प्रति भारतीय जनमानस की लगन और बढ़-चढ़कर शिक्षित होने की प्रिाया में भारतीयों का उत्साह देखने लायक होता है। जिसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पिछले आठ सालों में बाकी क्षेत्रों के खर्चों में जहां बढ़ोत्तरी 30 से 40 फीसदी तक ही हुई है, वहीं शिक्षा के खर्च में बढ़ोत्तरी का आंकड़ा 160 फीसदी को पार कर गया है। एसोचेम (औद्योगिक संगठन) के एक हालिया अध्ययन के मुताबिक हाल के सालों में पढ़ाई के खर्च में सबसे ज्यादा तीव्रता से बढ़ोत्तरी हुई है और यह बढ़ोत्तरी सिर्फ तथाकथित ब्लू चिप वर्ग में ही नहीं हुई बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी देखने लायक है। एसोचेम के अध्ययन के मुताबिक औसत मध्यवर्गीय परिवार में जहां सन् 2000 में एक बच्चे के पीछे उसकी समूची पढ़ाई का खर्चा 25000 रुपये वार्षिक था, वहीं 2008 में बढ़कर 65000 रुपये वार्षिक हो चुका है जो कि लगभग 160 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्शाता है जबकि इस दौरान औसत मां-बाप की आय में अधिकतम 30 से 35 फीसदी तक का ही इजाफा हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक देश में लगभग 3 करोड़ बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं।

अगर शिक्षा के मूल अधिकार को ईमानदारी से और भारत-निर्माण के संवेदनशील जज्बे से लागू किया गया तो यह आजादी के बाद का, अब तक का सबसे बड़ा परिवर्तन साबित होगा। अगर ईमानदारी से शिक्षा, मूलभूत अधिकार के तहत 14 साल की उम्र तक के सभी बच्चों के स्कूल जाने का जरिया बन गई तो भारत का चेहरा रातोंरात बदल जायेगा। देश में धीरे-धीरे आ रही जन-जागरूकता के मद्देनजर इसकी उम्मीद की जा सकती है। भारत में 7,208,052 बच्चे स्कूल से बाहर हैं। जहां तक इस मामले में वैश्र्विक परिदृश्य का सवाल है, तो सन् 2006 में 7 करोड़ 52 लाख बच्चे स्कूल जाने से वंचित थे। जिसमें 54.8 फीसदी लड़कियां थीं। सन् 2000 से 2006 के बीच स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या में 24 फीसदी से ज्यादा की घटोत्तरी हुई है जो एक संतोषजनक आंकड़ा है; क्योंकि सन् 2000 में 9 करोड़ 93 लाख बच्चे स्कूल से वंचित थे जिसमें 58 फीसदी लड़कियां थीं। जिसे देखते हुए 2006 में स्कूल न जाने वाले बच्चो में बड़े पैमाने पर कमी देखी गई। हालांकि इस दौरान सन् 2002 में स्कूल न जाने वाले बच्चों की तादाद 2000 के मुकाबले भी ज्यादा बढ़ गई जब ऐसे बच्चों का आंकड़ा बढ़कर 9 करोड़ 95 लाख पहुंच गया।

हालांकि स्कूल न पहुंचने वाले या स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। मगर भारत में यह समस्या कम होने की बजाय बीच-बीच में बढ़ती हुई मालूम हुई है। अब चूंकि शिक्षा को मूलभूत अधिकार के दायरे में ले आया गया है, इससे उम्मीद की जा सकती है कि जल्द ही शिक्षा भारत के लिए सम्पूर्ण ाांति का जरिया साबित होगी। हाल के सालों में हमारी अगर दुनिया में एक मजबूत प्रगतिशील और लोकतांत्रिक देश की छवि पुख्ता हुई है तो इसमें कहीं न कहीं हमारे मजबूत शैक्षिक आधार  का भी हाथ है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि अब जब सब पढ़ेंगे और सब आगे बढ़ेंगे तो भारत भी आगे बढ़ेगा और दुनिया का सिरमौर बन जायेगा। 2009 इसी महान सपने को सच करने का साल हो, आइये हम सब मिलकर यही दुआ करें और इसे सच बनाने की कोशिश करें।

 

विशेषज्ञ कहते हैं…

“शिक्षा के मूल अधिकार में शामिल होने का मतलब है कि अब हर बच्चा स्कूल जाने और पढ़ने का अधिकार रखता है। यह मूल अधिकार हमें उस अपमान और शर्म से मुक्ति दिलायेगा जो अपमान और शर्म हमें सबसे बड़े अशिक्षित देश के रूप में सालों से भोगनी पड़ रही है। यह निचले स्तर तक भारत को बदल देने का औजार साबित होगा।’

– प्रो. यशपाल, विश्र्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष

“अगर कागजों में सब कुछ शानदार दिखने वाला वाकई सच की कसौटी पर भी खरा उतरेगा तो हिन्दुस्तान की किस्मत बदल जायेगी; क्योंकि अगर शिक्षा हमारा मूल अधिकार बन जाये तो हमें हर चीज का अधिकार मिल जाता है या यूं कहें, इसके बाद किसी और अधिकार की जरूरत ही नहीं रह जाती। इसलिए यह कागजों में जितना शानदार है, व्यावहारिक धरातल पर भी उतना ही व्यावहारिक, अर्थपूर्ण और वास्तविक होना चाहिए। बाकी सब बाधाएं अपने आप दूर हो जायेंगी।’

– शिक्षाविद् लतावैद्यनाथन, प्रिसिंपल मॉडर्न स्कूल, बाराखम्बा रोड, दिल्ली

“शिक्षा के अधिकार को मानवाधिकार के रूप में, मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा में अनुच्छेद 26 के तहत रखा गया है। इसी तरह प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के रूप में राज्यों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जिम्मेदारी  मानी गयी है। जिसे उन्हें अपने नागरिकों को प्रदान करना ही है।’

– मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा

 

आंकड़ों के आईने में वैश्विक साक्षरता

ङ दुनिया में सबसे ज्यादा स्कूल न जाने वाले बच्चों की तादाद उपसहारा क्षेत्र में है।

ङ 2001 और 2006 के बीच में उपसहारा क्षेत्र में 47.8 फीसदी बच्चे स्कूल नहीं जा रहे थे।

ङ 2006 के आंकड़ों के मुताबिक स्कूल से बाहर या स्कूल न पहुंचने वाले बच्चों में लड़कियां सबसे ज्यादा थीं-54.8 फीसदी। हालांकि 1990 में स्कूल न पहुंचने वाली लड़कियों की तादाद 60.4 फीसदी थी।

ङ उपसहारा क्षेत्र में स्थित 7 देश उन 10 देशों में शामिल हैं जहां सबसे ज्यादा बच्चे स्कूल नहीं जाते।

ङ अगर दुनिया के सभी बच्चों का स्कूल जाना संभव बना दिया जाये तो इसके लिए 20.7 अरब डॉलर की न्यूनतम सालाना लागत आयेगी। इसमें से 10 अरब डॉलर अकेले उपसहारा क्षेत्र के देशों के लिए चाहिए होंगे।

ङ दुनिया में सबसे ज्यादा 9,096,824 बच्चे नाइजीरिया के हैं जो स्कूल नहीं जाते। दूसरे नंबर पर भारत और 6,821,039 बच्चों के साथ पाकिस्तान तीसरे नंबर पर आता है।

ङ 4,473,123 बच्चों के साथ इथोपिया चौथे, 1,683,349 बच्चों के साथ अमेरिका 5वें और 1,370,566 बच्चों के साथ केन्या  6वां ऐसा देश है जहां इतनी बड़ी संख्या में बच्चे स्कूल नहीं जा पाते।

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