समझौता किसी एक विषय-बिन्दु पर हुई दो पक्षों के बीच सहमति का नाम है। यह सहमति भी संभव तभी हो सकती है जब समझौते में दोनों पक्षों के हित समान हों। कोई एक पक्ष अपनी शर्तों पर अगर समझौता करना चाहता हो तो दूसरा पक्ष उसे तभी स्वीकार कर सकता है, जब वह इस कदर मजबूर हो कि अस्वीकार करने का उसके पास कोई रास्ता ही न हो। ऐसा भी नहीं है कि समझौते चिरकालिक होते हैं। जब तक दोनों पक्षों के बीच सहमतियॉं बनी रहती हैं, तब तक यह कायम रहता है। कोई एक भी पक्ष असहमत होने की अवस्था में इसे जब चाहे तब तोड़ सकता है। ऐसा करने के लिए कभी किसी के पास बहानों की कमी भी नहीं रही है। इसलिए इस उक्ति को आज तक प्रामाणिक माने जाने की रस्म निभायी जा रही है कि समझौते अक्सर टूटने के लिए ही होते हैं। इनके टूटने की एक वजह यह भी होती है कि इनकी बुनियाद में तात्कालिक जरूरतें होती हैं। अतएव जब तक ़जरूरतों का संदर्भ बना रहता है तब तक समझौता टिकाऊ होता है। ़जरूरत पूरा हो जाने के बाद कोई भी एक पक्ष और कभी-कभी तो दोनों पक्ष इसको तोड़ते रहते हैं।
भारत अमेरिकी असैन्य परमाणु समझौता भी एक ऐसा ही दस्तावे़ज है। समझौता 123 अगर व़जूद में आया है तो सिर्फ उसकी वजह यही है कि समझौते में दोनों के हित कायम हैं। अगर कोई यह कहे कि इसमें सिर्फ अमेरिका की ही शर्तें हैं अथवा सिर्फ भारत की ही शर्तें हैं, तो यह आलोचना एक पक्षीय ही मानी जाएगी। अगर किसी एक पक्ष की बात होती तो यह हो ही नहीं पाता। म़जेदार बात यह है कि अमेरिका में इस समझौते के विरोधी यह कह कर आलोचना कर रहे हैं कि यह शुद्घतः भारत के पक्ष में है और भारत के भी आलोचक कमोबेश यही राग अलाप रहे हैं कि यह अमेरिका के पक्ष में है। सच्चाई यह है कि यह किसी एक के पक्ष में नहीं है, बल्कि दोनों के पक्ष में है। दोनों की तात्कालिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए और दोनों की माननीय शर्तों को तरजीह देते हुए इस समझौते की बुनियाद रखी गई है। अब कोई अगर यह कहे कि ये शर्तें होनी चाहिये थीं अथवा ये शर्तें नहीं होनी चाहिये थीं, तो उसे यह ़जरूर समझना चाहिए कि किसी एक पक्ष के चाहने न चाहने से ऐसा होने वाला नहीं था।
भारत के आलोचकों को इस समझौते की पृष्ठभूमि ़जरूर समझ लेनी चाहिए। इसकी पृष्ठभूमि पर गौर करने के बाद आलोचकों को भी यह स्वीकार करना होगा कि यह समझौता भारत के पक्ष में एक “अपवाद’ है। अपवाद इस अर्थ में कि वैश्र्विक स्तर पर यह असैन्य समझौता अपनी प्रकृति का अकेला समझौता है। 1974 और 1998 के पोखरण विस्फोट के बाद जिस तरह के प्रतिबंध भारत पर अणुशक्ति संपन्न राष्टों ने लागू किये थे और भारत ने लाख दबावों के बाव़जूद परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार किया था, उसके चलते अमेरिका तो क्या दुनिया का कोई भी देश भारत से इस तरह का समझौता कर ही नहीं सकता था। आलोचक भले ही इसे भारतीय पक्ष की विजय स्वीकार न करें, लेकिन यह समझौता अपवाद होने के अपने स्वरूप में हमारी विजय का प्रतीक है। इसके लिए अमेरिका को अपना स्थापित कानून तक बदलना पड़ा है। आलोचकों को भी याद होगा कि इस मसले पर सीनेट में हुई बहस के दौरान इसके अमेरिकी विरोधियों ने भी कहा था कि अमेरिका के इतिहास में किसी एक देश को फायदा पहुँचाने के लिए इस तरह कभी अपने कानून में संशोधन करने की ़जरूरत नहीं पड़ी। इससे यह अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि यह कितना भारत के पक्ष में है और कितना अमेरिका के पक्ष में है।
अब अगर किसी को यह पीड़ा हो कि अमेरिका इस समझौते के तहत हमें भविष्य में बम फोड़ने से रोक रहा है, तो उनकी पीड़ा का यथार्थ भले सही हो, लेकिन उन्हें यह अधिकार अमेरिका किसी मूल्य पर नहीं दे सकता था। इस बात में सच्चाई है कि यह नागरिक परमाणु समझौता इसी शर्त पर हुआ ही है कि हम इसका सामरिक उपयोग नहीं करेंगे। म़जेदार बात तो यह भी है कि इस पीड़ा का इ़जहार करने वाले लोगों ने ही इस समझौते को व़जूद में आने के पहले भविष्य में कोई परमाणु विस्फोट करने की एकतरफा पाबंदी अपने ऊपर आयद कर ली थी। अब वही लोग इस मसले पर चीख-चिल्ला रहे हैं। कुछ दूसरे तरह के आलोचक इसे सिर्फ इस व़जह से बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं कि यह समझौता अमेरिका के साथ हो रहा है। उस अमेरिका के साथ जो पूंजीवादी साम्राज्यवाद का जनक है। वह भारत की विदेश नीति को अपना गुलाम बनाएगा। अगर इसी तरह का समझौता किसी अन्य देश से होता तो वे हॅंसी-खुशी इसे स्वीकार कर लेते। लेकिन उन्हें इस वास्तविकता का पता नहीं है कि या तो यह समझौता अमेरिका के साथ होता अथवा नहीं होता। किसी अन्य देश के पास इतनी ताकत नहीं है कि वह अपने घरेलू कानून में संशोधन तो करे ही, इस समझौते को आईएईए और सप्लायर्स ग्रुप से भी निर्विघ्न पास करवा दे। अमेरिका ने सिर्फ समझौता ही नहीं किया है इसे अंतिम रूप से हर स्तर पर स्वीकार्य बनाने का वचन भी दिया है। यह समझौता रूस, ाांस, जर्मनी और दक्षिण आीका जैसे देश भी भारत के साथ करना चाहते हैं, लेकिन वे इस अमेरिकी समझौते को आ़खरी मुकाम तक पहुँचने का इंत़जार कर रहे हैं। बावजूद इसके है यह समझौता ही, इसमें सिर्फ भारत के ही हित हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। हित अमेरिका के भी हैं। उसके आर्थिक हित तो हैं ही वह विश्र्व राजनीति में भारत जैसा भरोसेमंद साथी भी चाहता है।
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