सहेज कर रखना होगा आ़जादी के वट-वृक्ष को

“15 अगस्त, 1947′ आ़जादी प्राप्ति के दिन एक पौधे का रोपण यह सोचकर किया गया कि इस बरगद के समान हमारी आजादी प्राप्ति की राह विकसित, प्रफुल्लित एवं सुखद होकर राष्ट को विकसित करेगी। यह बरगद पौधे से वृक्ष बन चुका था। परंतु एक दिन वह अचानक अपनी जड़ों सहित उखड़कर स्वयं गिर गया। इससे सहज ही मन में प्रश्र्न्न उत्पन्न होता है कि क्या हमारे देश की आ़जादी का भी यही हाल होगा, जिसे हमने असीम त्याग व बलिदान द्वारा प्राप्त किया है। हमें आ़जादी जिन आधार स्तम्भों द्वारा प्राप्त हुई है, उन्हें हमने तिलांजलि दे दी है तथा कृत्रिम आधार स्तम्भों (भौतिकवाद-भोगवाद) के सहारे उसकी नींव खड़ी करने का प्रयास कर रहे हैं। क्या कृत्रिम आधार स्तम्भों से किसी भी देश की आ़जादी अक्षुण्ण रह सकती है। यह प्रश्र्न्न मन-मस्तिष्क में उदय होता है तथा इस विषय पर चिंतन करने के लिए हमें विवश कर देता है। महात्मा गांधी आध्यात्मिक संत थे, तिलक ने गीता रहस्य की रचना की थी, गोखले कांग्रेस अध्यक्ष थे, वीर सावरकर की वीरता का कोई सानी नहीं था। इन वीरों एवं शहीदों की मान्यताओं को आज हमने अनदेखा कर दिया है।

किसी भी देश के विकास एवं सुख-शांति के लिए आधार स्तम्भ उसकी संस्कृति होती है। जब उसके आधार स्तम्भों को ही नकार दिया जाएगा या वे रहेंगे ही नहीं तो फिर वह देश अपने शाश्र्वत आधार स्तम्भों के बिना कैसे अपना अस्तित्व बनाकर रख सकता है। किसी मकान या राष्ट के विकास की नींव जब कृत्रिम उपादानों से निर्मित की जाएगी तो फिर वह मकान या राष्ट कितने दिनों तक अपना अस्तित्व कायम रख सकता है, यह अहम् प्रश्र्न्न है। किसी पौधे को मजबूत वृक्ष बनाने के लिए उसकी जड़ों को आवश्यक खाद व पानी देने के साथ उसकी सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती है तथा उसके विकास की ओर ध्यान रखना पड़ता है। इसी प्रकार आजादी के पौधे के विकास के लिए ध्यान देना होता है। हमारी आजादी के पौधे का खाद व पानी हमारी संस्कृति के संस्कार हैं। इन्हीं संस्कारों द्वारा भारतीय संस्कृति का वट-वृक्ष विश्र्व में शांति, विकास एवं दीन-दुखियों का आश्रयदाता बना था, जिन्हें हमने स्वार्थ रूपी मदिरा पीकर, माया के वशीभूत होकर नकार दिया है, जिसका परिणाम आज हम देख रहे हैं, भोग रहे हैं।

बरगद के पौधे को प्राकृतिक वातावरण एवं अनुकूल खाद व पानी मिलने पर वह विकास की ओर बढ़ता जाता है। वह अपनी टहनियों से अपना आधार स्तम्भ (हवाई जड़ें) पैदा करता रहता है। उसी प्रकार भारतीय संस्कृति के संस्कार अपनी आत्मीयता द्वारा अपने आधार स्तम्भों को जनमानस में रोपित करते जाते हैं। हमारी संस्कृति के संस्कार हमें ऋषि-मुनियों के त्याग एवं तपस्या के पुण्य प्रभाव से प्राप्त हुए हैं। इस राष्ट की माटी में उनके द्वारा रोपित बीज मौजूद है। उसी माटी से हमारे शरीर बने हैं। जिस माटी से हमारे शरीर बने हैं उसके संस्कार भी हमारे पास हैं। यह तथ्य सर्वमान्य है कि सजातीय तत्वों में परस्पर आकर्षण होता है। सिर्फ उसे अऩुकूल वातावरण की आवश्यकता होती है।

किसी भी पौधे को विकास की स्थिति प्राप्त करने के लिए उसके अऩुकूल वातावरण एवं खाद-पानी मिलने पर वह विशालता को प्राप्त करता है परंतु हमने अपने आधार स्तम्भ हमारी संस्कृति के संस्कारों को नकार दिया है। इसके विपरीत पश्र्चिमी (भोगवाद) संस्कृति व संस्कारों को अंगीकृत किया है। इससे त्याग व भोग के बीच विद्रोह की स्थिति का निर्माण होना स्वाभाविक है। उसका परिणाम हम आज देख रहे हैं। भोगवाद के कारण हम अशांति, आतंकवाद, व्याभिचार, भ्रष्टाचार आदि के फंदे में फंस गए हैं। जिस प्रकार हमने उस वट-वृक्ष के पौधे के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया और वह धराशायी हो गया। वही हाल आज हमारी आजादी के पौधे का, जो वृक्ष बन गया है, दिखाई देता है।

यदि हमें स्वस्थ व विकसित राष्ट चाहिए तो उसके शाश्र्वत आधार स्तम्भों को फिर से खड़ा करना होगा, जिसके सहारे हमने अतीत में विश्र्वगुरु की उपाधि अर्जित की थी। अन्यथा हमारा वही हाल होगा जिस प्रकार से उस वट-वृक्ष का हुआ। कृत्रिम उपादान कभी भी हमें स्थायित्व प्रदान नहीं कर सकते हैं। वे अपनी कृत्रिमता से हमें लुभाकर भ्रमित ़जरूर कर सकते हैं। जिस प्रकार से कंचन मृग ने सीता जी को लुभा दिया था, उसका परिणाम उनका हरण ही हुआ। कृत्रिम उपादान (भौतिकवाद बनाम भोगवाद) एक दिन हमारी आजादी का हरण कर लेंगे और हम देखते रह जाएंगे तथा उस वट-वृक्ष के समान हमारी आजादी का अस्तित्व भी कायम नहीं रह पाएगा, जिसे हमने त्याग व बलिदान द्वारा प्राप्त किया है तथा जिसे हमने भुला दिया है। आज हम कहॉं उन त्यागी व बलिदानी शहीदों को याद करते हैं? उनके चरित्र से प्रेरणा लेने की बात तो बहुत दूर की स्थिति है, बल्कि इतिहासकारों ने हमारी भावी पीढ़ी को शहीदों के चरित्र एवं त्याग से अलग रखने का प्रयास किया है। तथाकथित राजनेताओं ने अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए ाांतिकारी इतिहास को लुप्त करने का प्रयास किया है। जबकि कुर्सी तो अस्थायी है। हमारे राष्ट के विकास के आधार स्तम्भ तथा हमारी संस्कृति के आधार स्तम्भ अपने शाश्र्वत मूल्यों (त्याग) के साथ रहते हैं। उसमें कृत्रिमता का कोई स्थान नहीं है। फिर आ़जादी मिलने के बाद हम क्यों भटक गये? इस पर चिंतन करना होगा तथा चिंतन से प्राप्त शाश्र्वत मूल्यों को अंगीकार करना होगा, तभी हमारे त्याग व बलिदान से मिली आजादी अपने स्थायित्व को प्राप्त कर सकेगी। अन्यथा हम विस्फोटक स्थिति के कगार पर खड़े हैं तथा उस वट-वृक्ष के समान न मालूम कब हम भी अपना अस्तित्व अचानक गंवा बैठें।

 

– डॉ. प्रह्लाद राय अग्रवाल

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