ऐसी कोई मिसाल जमाने ने पायी हो
हिन्दू के घर में आग खुदा ने लगाई हो
बस्ती किसी की राम ने आकर जलाई हो
नानक ने राह सिर्फ सिखों को दिखाई हो
राम व रहीम व नानक व ईसा तो नर्म हैं
चमचों को देखिये तो पतीली से गर्म हैं
साम्प्रदायिक दृष्टि से देश को विभाजित करने वालों के विरुद्घ चुटकी लेकर टिप्पणी करने वाली इन पंक्तियों के रचनाकार सागर कय्यामी नहीं रहे। लगभग 4 दशकों तक पहले गंभीर और बाद में हास्य रचनाओं से उर्दू-साहित्य जगत में अपनी अलग पहचान रखने वाले सागर कय्यामी ने शायरी विरासत में पायी थी। गंभीर हास्य के लिए पहचानी जाने वाली उनकी उर्दू-रचनाओं की सहजता और सरल भाषा को हिन्दी कविता से बहुत बांट कर नहीं देखा जा सकता। लखनऊ के सैयद मौलवी के घराने से संबंध रखने वाले सागर साहब का जन्म 7 जून, 1938 में हुआ था। उनका असली नाम सैयद रशीदुल हसन ऩकवी था और वह “जोहर’ के उपनाम से शायरी करते थे। अपने बड़े भाई नाजिर कच्चामी की हास्य व्यंग्य शायरी में लोकप्रियता को देखते हुए, उन्होंने भी अपना रुख हास्य की ओर किया, जिसका जिा उन्होंने कुछ इस तरह किया है-
रोते-रोते मेरे हॅंसने पे तआज्जुब ना करो
है वही जिा मगर दूसरे अंदाज से
चुटकुले सुना कर लोगों को हॅंसाने वालों की भीड़ हिन्दी और उर्दू दोनों में बेतहाशा बढ़ती जा रही है। चुटकुले, अश्लीलता और व्यक्तिगत कटाक्ष या उपहास कर हॅंसा तो सकते हैं, लेकिन उन्हें अदब के दायरे में नहीं लाया जा सकता। चुटकुलों और कविता में अंतर को समझने के लिए सागर ़कय्यामी की रचनाएँ हमारी मदद करती हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने हास्य व्यंग्य की शायरी को सम्मानित किया है। गरीबी पर किये गये उनके व्यंग्य को पढ़ते हुए, हमें डूबने वाले जहाज को छोड़कर भाग खड़े होने वाले चूहों की याद आती है-
गुरबत में साथ देते नहीं जानवर तलक
ऐसा ही एक सानेहा मेरी ऩजर में है
मुद्दत से मेरे साथ जो रहता था दोस्तो
चूहा वो मेरे घर का पड़ोसी के घर में है
गरीबी में आदमी के पास कुछ न होने के बावजूद वह अपने “कुछ न’ होने की रक्षा के लिए किस तरह चौकन्ना रहता है, इसका उदाहरण उनकी रचना में इस प्रकार मिलता है –
मुफ़लिसी के जो शिकार होते हैं
एक कंबल में चार होते हैं
खींच ना ले जाए पॉंचवा कोई
सबके सब होशियार होते हैं
सागर साहब ने व्यक्तिगत कटाक्ष को कभी पसंद नहीं किया। वे इसका कड़ा विरोध करते थे। वे हास्य के लिए मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते थे। यूँ भी हिन्दी की काव्य-परंपरा में जिन नव-रसों का उल्लेख किया जाता है, उनमें हास्य-रस भी एक है, जिसके बारे में कहा जाता है कि ये रंजन तो करता है, मनोरंजन नहीं करता, अर्थात मन के भीतर हास्य की उत्फुल्लता तो जागती है, लेकिन वह हास्य मर्यादा के भीतर होता है।
जब फिल्मी गीतों में शब्दों की जगह ध्वनियों एवं शॉर्टकट ने ले ली और नयी पीढ़ी सड़कों पर ईलू-ईलू करती ऩजर आती है, तो वे सोचते हैं कि क्या इस पीढ़ी को राष्टगान याद होगा? उन्हें टैगोर और इ़कबाल की आत्माओं का स्मरण हो आता है-
दिल लुटे जॉं को मिटे खासा जमाना हो गया
खत्म दुनिया से मुहब्बत का फ़साना हो गया
कान में झुक कर कहा टैगोर के इ़कबाल ने
ईलू-ईलू हिन्दू का कौमी तराना हो गया
सागर कय्यामी के बारे में कहा जाता है कि वे चाहे कुछ भी बर्दाश्त कर लें, लेकिन हिन्दुस्तान के बारे में किसी का बुरा कहना बर्दाश्त नहीं करते थे। विख्यात शायर मकमूर सईदी ने एक घटना का उल्लेख करते हुए कहा है कि एक बार एक हिन्दुस्तानी शायर ने पाकिस्तानी शायरों की एक मह़फिल में पाकिस्तान की तारीफ करते हुए, हिन्दुस्तान की बुराई करनी शुरू की। सागर साहब को यह सहन नहीं हुआ और वे उस शायर से उसी मंच पर कुछ इस तरह भिड़ गये कि लोगों को बीच-बचाव करना पड़ा।
िाकेट पर उनकी ऩज्में काफी मशहूर रहीं, विभिन्न प्रकार की पेरोडियों के अलावा “अलाउद्दीन का तरबूज’, “गालिब दिल्ली में’, “एक्कीसवीं सदी का आदमी’ और विशेषकर “हमशक्ल’ आदि ऩज्में काफी लोकप्रिय रहीं। हमशक्ल के िाया-कलापों से उन पर आरोप लगने लगता है, तो वे परेशान हो जाते हैं। उस ऩज्म का अंत हमशक्ल को दफ्नाने की घटना पर कुछ इस तरह होता है।
यूँ दोस्तों ने खत्म मेरा व़जन कर दिया।
मैं मर गया था उसे दफ़न कर दिया।
– एफ.एम. सलीम
You must be logged in to post a comment Login