तप एवं साधना का संबंध मन से होता है। मन में यदि इनके प्रति तीव्र अभीप्सा उठे, तो ही साधना सधती है, तपस्या प्रारंभ होती है। शरीर तो इन सबका एक माध्यम है, शेष सारी चीजें तो मन से होती हैं। शरीर इस पावन-कार्य में बाधा न बने, इसलिए उसे स्वस्थ और सबल बनाए रखना पड़ता है। मन का अनुगमन करना शरीर का धर्म है। जहॉं तक बात साधना की है, उसकी सारी शर्तें एवं विचार मन की गहराई में होना चाहिए। मन में संसार की लालसा को लेकर तपस्या-साधना संभव नहीं होती। साधना सहज नहीं है। यह मन से अधिक होती है।
ये पंक्तियां उन सभी के लिए हैं, जिनके अंदर साधना के संस्कार हैं, जो सच्चे मन से साधना करना चाहते हैं और जिनकी लगन-निष्ठा साधना के प्रति गहरी है। साधना एवं तपस्या एक अविरल धारा है, जो बहती जाती है। जो इसमें जितना डूबता है, उतना ही मगन हो जाता है। इस राह में बढ़ना हो, तो प्रचंड वेग से उफनती नदी के बीच मझधार में जीवन की किश्ती को झोंकना ही पड़ेगा। तपस्या करनी हो तो भीषण झंझावातों में निर्भीक होकर सतत चलना ही पड़ेगा। मन में संसार को लेकर इस दिशा में बढ़ना असंभव है। संसार और संसार की सुखद स्वप्निल लालसा, लुभावने आकर्षण और मनोरम कामना को लेकर इस राह में चला नहीं जा सकता।
संसार और साधना का घालमेल नहीं हो सकता। जिसे संसार प्रिय है, वह यहीं रहे, इसे पाने का उद्यम करे, परंतु संसार को बनाए रखकर अध्यात्म की डगर पर चलने वालों के लिए निराशा-हताशा ही हाथ लग सकती है, इससे कुछ और ज्यादा नहीं। ऐसे ही लोग अध्यात्म, तपस्या आदि के बारे में बेतुकी बातें करते नजर आते हैं। आप यदि इस राह के राही नहीं हैं तो आप क्यों आए इस राह पर और यदि आ गये तो फिर ऊहापोह किस बात का। चयन करना तो आपके हाथ में है। आप स्वतंत्र हैं चुनाव करने के लिए। आप समझें स्वयं को, जानें निज को। आप में असीम क्षमता है, कोई बाध्य नहीं कर सकता आपको, परंतु यह बात उभरे तो बात बने। उभरती ही नहीं है, इसीलिए तो भ्रम है और भ्रमित मन कहीं नहीं ठहरता तथा साधना के लिए तो निरा अयोग्य होता है।
मन में संसार की अनगिनत इच्छाओं की आंधी, झंझावात तथा वासनाओं की आग समेटे भला कोई तपस्या कर सका है। तपस्या तो इन सब लालसाओं को छोड़ने के पश्र्चात् ही संभव है। जब मन में इन लहरों के तीव्र थपेड़े शांत होने लगे और इनके प्रति निस्सारता का बोध होने लगे, तो ही समझना चाहिए कि साधना के महासमरांगण में एक पग धरा। मन से जब तक इन लहरों की अठखेलियां समाप्त नहीं हो जातीं, मन में उच्च स्तरीय चिंतन ठहर नहीं पाएंगे। वह निकृष्टता की ओर बारंबार चला जाएगा। ऐसे में साधना से प्राप्त सुफल पल भर में समाप्त हो जाते हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि मन सधे तो साधना सधे। अतः सर्वप्रथम मन को साधने की जरूरत है। इसे काबू में करने की आवश्यकता है।
अनियंत्रित चंचल मन वशवर्ती हो तो कैसे? यह प्रश्र्न्न सदियों से साधकों के अंतरमन में कौंधता रहा है। क्योंकि इस पर अधिक दबाव भी नहीं डाला जा सकता और इसे खुली छूट भी नहीं दी जा सकती, ऐसे में मध्यम मार्ग है कि शनैः शनैः इसे अपनी वृत्तियों से मुक्त किया जाए और उच्च श्रेष्ठ वृत्तियों की ओर उन्मुख किया जाये। रामकृष्ण परमहंस कहते हैं, “”मनु के खर-पतवारों को काटने-हटाने की अपेक्षा अच्छी फसल क्यों न बो दी जाए। इससे फसल की रखवाली करते-करते खर-पतवार की निराई-गुड़ाई तो हो ही जाएगी।” अर्थात् श्रेष्ठ चिंतन करने से और मन को इसमें रमा देने से निकृष्ट विचारों के प्रति विकर्षण पैदा हो सकता है। सतत अभ्यास के इस ाम में मन में संसार के प्रति आकर्षण कम और वैराग्य का भार पनपने लगता है। वैराग्य के बिना संसार में मन घिरा रहता है – अनेक ठोकरों के बावजूद मोहपाश में बंधा रहता है। प्रखर वैराग्य हो तो मन उस कठोर चट्टान के समान हो जाता है, जिसमें मोह और आसक्ति के पादप पनप नहीं पाते हैं और इस दृढ़ता से ही तपस्या प्रारंभ होती है।
किसी-किसी में वैराग्य का भाव बचपन में पैदा हो जाता है, किसी में जन्मजात होता है और कोई ईश्र्वर की कृपा से इसे उपलब्ध कर लेता है। शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, रमण महर्षि, रामकृष्ण परमहंस आदि में जन्मजात वैराग्य का भाव था और इसी कारण वे शीघ्रता से साधना के शिखर पर पहुंच सके। उनकी तपस्या से दिग्दिगंत सुवासित हो उठा और मानवता को नई प्रेरणा मिली। शुकदेव वैराग्य में प्रतिष्ठित होकर अवतरित हुए। ऐसी घटना बड़ी विरल है, परंतु साधना के स्वरूप में कुछ भी तो असंभव नहीं है।
साधक से सिद्घ बनने की यात्रा बड़ी लंबी है। इसकी डगर बडी कंटीली एवं टेढ़ी-मेढ़ी है। इस डगर के यात्री को संसार में नहीं, अपितु अपने परम प्रभु के पावन चरणों में समर्पित होने के दिव्य आनंद का आस्वाद उठाना चाहिए। साधकों का अनुभव कहता है कि साधना के इस रस के सामने संसार का षड्रस फीका एवं निरस मालूम पड़ता है। यह केवल अनुभवी का सच है, जो इस डगर में बढ़ने वाले साधक ही अनुभव करते हैं। कृष्ण-प्रेम में सराबोर मीरा को भला व्यंजनों के षड्रस में कितना सुख दिख सकता है। भगवान कृष्ण की एक छटा में विभोर मीरा अपनी सुध-बुध खो देती है। ऐसे में उसे क्या फरक पड़ता है कि किसने उसे विष पिलाया या अपमानित-तिरस्कृत किया।
मन में लहरें ही नहीं उठतीं संसार की। मन शांत सागर बन जाता है, जिसमें सदा अपने इष्ट, लक्ष्य एवं प्रभु की छवि ही निरंतर प्रतिबिंबित होती रहती है। मन के इस शांत सागर में यदि एक लहर उठ जाए तो इस पर प्रतिबिंबित छवि का आकार विकृत हो जाएगा। मन में ऐसे विकार न उठें और मन सदा शांत, स्वच्छ और दर्पण के समान निर्मल बना रहे, तो ही साधना और तपस्या के बहुरंगी आयाम निखरते हैं। साधक को इस अवस्था तक आना ही पड़ता है। इस अवस्था तक आने के लिए उसे अपने मन से कामनाओं के कुहांसे को ामशः मिटाते रहना आवश्यक है, चाहे इसके लिए कितने ही वर्ष क्यों न लग जाएं या फिर जन्म ही क्यों न बीत जायें। साधना का यह प्रथम सोपान है- मन का दर्पण के समान स्वच्छ हो जाना, जिसमें झांका और अपनी छवि पा ली।
यहां पर साधना के लिए संसार को छोड़ने की बात नहीं कही गयी है। यहां संसार का तात्पर्य सांसारिक कामनाओं, वासनाओं एवं महत्वाकांक्षाओं से है। इन्हें छोड़ने की बात कही गई है। अतः संसार की इन प्रतिकूलताओं के बीच संघर्षरत होकर मन को इनसे अलिप्त करना है। असीम धैर्य एवं निरंतर प्रयास करके अपने अक्ष्य पर अडिग रहना है। यही शर्तें हैं साधना की, क्योंकि संस्कार मन को तीव्र वेगवती नदी की धारा के समान बहा ले जाते हैं। यहीं पर अपने समग्र पुरुषार्थ के बावजूद किसी समर्थ मार्गदर्शक सत्ता के संरक्षण की आवश्यकता होती है। युग-निर्माण योजना के उद्घोषक ने इस संरक्षण को स्वीकारा है, अतः साधकों को निस्संदेह अपने साधना-पथ पर निर्भर होकर बढ़ना चाहिए। किसी भी साधना के संग गायत्री मंत्र का समावेश होने पर साधना की सफलता में संदेह नहीं रह जाता।
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