वर्षा की रिमझिम फुहार हरी चूनर ओढ़े धरती पर पड़ती है तो लगता है कि इस पर किसी ने मोती जड़ दिए हैं। बागों में पक्षियों का कलरव, आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादल मन में नयी उमंग पैदा करते हैं। बाग-बगीचों, चौबारों और घरों में झूले पड़ जाते हैं। वातावरण में वर्षा, संयोग-वियोग, हंसी-मजाक भरे गीत गूंजने लगते हैं। पिया परदेसी के आने की प्रतीक्षा में गांव की पगडण्डी पर लगीं गोरी की नजरें।
सावन अति मन-भावन
चहक-चहक उठता मन,
कितनी सार्थक पंक्ति है यह।
भारतीय जन-मानस के कुशल ज्ञाता मुंशी प्रेमचंद का कथन है- शायद ही कोई भारतीय नारी ऐसी हो, जिसके पास एक लोकगीत और एक रत्ती सोना न हो।
लोक-गीतों की यह संपदा पर्वों पर सामने आती है। सावन के महीने में झूला झूलते हुए लोकगीत गायन की परम्परा काफी पुरानी है।
श्रीकृष्ण व राधा को प्रतीक मान कर प्रश्नावली शैली में गाये जाने वाले हिण्डोला गीत इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं। कुंजवन में हिण्डोला गड़वाया गया है, जिस पर झूलने के लिए राधा आती है। राधा की तन्वी, गौरांग देह का स्पष्ट वर्णन न कर हिण्डोले की नाजुकता के माध्यम से लोकगीत में इसे गाया जाता है-
हिण्डोला कुंज वन डाला रे।
झूलन आयी
राधिका प्यारी रे।
काहे के खम्भ
गड़वाये रे?
काहे की बटी डोर, प्यारी रे।
केले के खम्भ
गड़वाए रे,
रेशम की बटी डोर, प्यारी रे।।
राधा को झुलाने के लिए कन्हैया उपस्थित हैं, जो उन्हें तेजी से झुला रहे हैं। राधा डरती है तो श्याम झट से कह उठते हैं- राधा डरो मत, तुम तो हमें जान से भी प्यारी हो-
कहां से आए श्याम बनवारी रे?
कहां से आयी राधिका प्यारी रे?
गोकुल से आए श्याम बनवारी
बरसाने वाली राधिका प्यारी रे।
झटक, झोटा दे रहे बनवारी
डरै हैं राधिका प्यारी रे।
डरो मत राधिका प्यारी रे,
रखूंगा तुम्हें जान से प्यारी रे।।
इस प्रकार श्रीकृष्ण-राधा के माध्यम से लोकगीतों में नायक-नायिका की छेड़छाड़ मिलती है।
एक नायिका की नयी शादी हुई है। वह ससुराल में नायक के संग है। रात में बरसात होती है तो नायिका के मन में वर्षा देखने की इच्छा होती है-
पवन झड़ी लागी हो धीरे-धीरे
ओ, राजा मोरे किधर से उठी बदरिया
किधर झड़ी लगी हो धीरे-धीरे
नायिका के आग्रह पर नायक दरवाजा खोल देता है। बिजली की कड़क से डर कर नायिका उसकी बांहों में आ जाती है, तो वह कह उठती है-
ओ राजा मोरे
खोलो न चंदन किवड़िया
करैजवा मोरां कांपै हो धीरे-धीरे
चलो भीतरवा को, हो धीरे-धीरे
एक अन्य नायिका की मनोदशा का चित्रण दूसरे लोकगीत में मिलता है। नवविवाहित नायिका का पति रात्रि में घर नहीं आया। जब वह घर आता है तो नायिका पूछती है-
अम्बर बरसैं मारू मेरे मद चूवै
कोयलिया मल-मल नहावै।
मैं तुमसे पूछूं ऐ हाकिमा,
कहां गए थे आधी रात?
नायक सहजता से कह देता है कि बाग में गया था। इस पर ाोधित नायिका बाग को कटवाने की ही बात कह देती है-
बागो-घूमन हम गए गोरी
वही है कोयलिया की गायें।
मजूर मंगाय अपने बापू से
बाग को दूंगी कटवाएं।।
ऐसा नहीं है कि नायिका, नायक के साथ ही सावन गुजारना चाहती है। वह तो सोचती है कि मां-बाप के आंगन में सखियों के संग झूला झूले। नायिका अपने भाई को चिट्ठी लिख रही है कि भइया सावन बीत रहा है, तुम मुझे ले जाओ-
मेरी, बहना सावन के दिन चार
लेन न आये वीर जी।
रोये-रोये बहना,
चिठिया लिख रही
मेरे वीरा सावन के दिन चार।
बहन की चिट्ठी मिलते ही भाई उसे लिवाने के लिए ससुराल जा पहुंचता है। वह कहता है-
ड्यौढ़ी दरवाजा मौसी खोल दें
बहना को लेने आये वीर।
ड्यौढ़ी दरवाजा, बेटे न खुले।
तेरी बहना गयी बागों के बीच।
फिर उसका भाई, बहन को घर ले आता है। पीहर आकर नायिका अपनी सखी-सहेलियों के संग झूलती-गाती है।
किन्तु सावन का महीना बिना साजन के सूना-सूना लगता है। नायिका पुनः अपनी ससुराल चली जाती है। वहां पहुंच कर पता चलता है कि पिया तो परदेश गए हैं।
इधर, ससुराल में पिया नहीं है। उधर, सखी-सहेलियां छूट गईं। विरह की आग में जलती नायिका इसे अपने कर्मों का फल मानती है। एक लोकगीत में ऐसी ही नायिका की मनोदशा-
सूखि गयी रंग भरी बेली।
विपति मैंने बहुत तेरी झेली।।
महीना सावन का आया
पिया परदेसों में छाया।।
झूला डलाये वो सखी री
जिनका पिया घर होयें।
लौट गये कर्मों के फांस
पलट गयी हाथों की रेखा।
मैं भेजूं नित-नित परवाना,
सजन का नहीं होता आना।।
सावन के महीने में बारह मासा का भी गायन होता है। यह लोकगीत भारतीय लोक साहित्य की अमूल्य निधि है।
– अनिल शर्मा “अनिल’
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