सिंथेटिक जायकों के महाराजा

बाजार में एक नयी सॉफ्ट डिंक आयी है। आप उसे सिप कर रहे हैं। बहुत अलग किस्म का स्वाद है। जायके के साथ ही आपका जहन टॉमस हेफ्ती की ओर जाता है। वे दुनिया के सबसे बड़े फ्लेवरिंग निर्माता गिवोडन में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं। यह हो सकता है कि उस सॉफ्ट डिंक का टेस्ट भी हेफ्ती ने ही विकसित किया हो। गौरतलब है कि आज 20 हजार से अधिक सिंथेटिक जायके उपलब्ध हैं। 300 से अधिक स्वाद तो सिर्फ स्टाबेरी के ही हैं। इसलिए स्वाद विकसित करने वाले वैज्ञानिक को सिर्फ सूंघना ही पड़ता है, यह जानने के लिए कि उसके ताजे मिश्रण में अधिक मिथाइल बेंजोएट की जरूरत है या ब्लूटाइल आइसोब्यूटीरेट को कम करना है।

यह हो सकता है कि आपने गिवोडन के बारे में न सुना हो, लेकिन यह यकीन से कहा जा सकता है कि ब्रेकफास्ट सीरल्स, आइसाीम, हर्बल टी, बिस्किट, केक मिक्से़ज, सूप और च्यूंगम में उसका स्वाद अवश्य चखा होगा। दरअसल, खानपान की किसी भी ची़ज को जब फ्लेवर किया जाता है तो उसे स्वादिष्ट बनाने के लिए गिवोडन का ही सहारा लिया जाता है। ज्यूरिख के बाहर स्थित प्रयोगशाला में आज जो गिवोडन फूड्स के कृत्रिम फ्लेवर्स विकसित कर रही है, वह दुनिया की हर पांचवीं फूड कंपनी इस्तेमाल कर रही है।

गिवोडन की इस सफलता का रा़ज हेफ्ती के शब्दों में क्रिएटिविटी है। यह अलग बात है कि प्राकृतिक केले में लगभग 225 फ्लेवर के तत्व होते हैं। लेकिन हेफ्ती सिर्फ 9 तत्वों का प्रयोग करके कृत्रिम विकल्प इंजीनियर कर सकते हैं। वेनीलिन, इथाईल ब्यूटाइरेट, आइसोएमाइल एसिटेट, बेंजीन एसिटेट, यूजिनोल, फिनिथाइल एल्कोहल, आइसोएमआई आइसोवेलिरेट और सिस-3-हेक्जोनॉल को मिलाने के बाद जो साल्वेंट तैयार किया जाता है, उसका एक किलोग्राम 5000 लीटर डिंक को फ्लेवर कर देता है। इसका ़जायका उतना ही शानदार है जितना कि फास्टफूड बनाना मिल्कशेक का है।

लेकिन क्या हमें वास्तव में स्टाबेरी के 300 कृत्रिम स्वाद चाहिए? टॉमस हेफ्ती का कहना है कि अगर फूड उद्योग सिर्फ असल स्टाबेरी पर जायके के लिए निर्भर रहेगा तो उसका मुनाफा काफी हद तक कम हो जायेगा। इसके अलावा इतने ज्यादा ता़जा फल उपलब्ध नहीं हैं और केक मिक्स का स्वाद बच्चों की दवाओं में बिल्कुल अलग हो जायेगा।

गिवोडन के वैज्ञानिकों को “कृत्रिम’ शब्द पसंद नहीं है। वे “प्रकृति जैसा’ (नेचर आइडेंटिकल या एनआई) शब्दों को प्राथमिकता देना चाहते हैं। उनके अनुसार एनआई रसायन अपने मॉलीक्युलर संरचना में बिल्कुल प्राकृतिक तत्वों जैसे होते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि उन्हें रासायनिक प्रिाया से प्रयोगशाला में सिंथेसाइ़ज किया गया है। वेनीला बीन्स से सीधे एक किलो वेनीलिन अलग करने पर लगभग 3.7 लाख रुपये का खर्च आता है जबकि प्रयोगशाला में इसके सिंथेसाइ़ज करने पर 500 रुपये प्रतिकिलो का ही खर्च आता है। दोनों ही तरीकों से वेनीलिन की जो मॉलीकुलर संरचना सामने आती है, वह 4-हाइडोक्सी-3-मिथॉक्सीबें़जलडिहाइड है।

न्यूरोविज्ञान में जो प्रगति हो रही है, उससे और बहुत-सी नयी चीजें सामने आ सकती हैं। मसलन, जब एक बार मीठे के अहसास को समझ लिया जायेगा तो ऐसे मॉलीक्यूल्स की रचना की जा सकेगी, जिनमें कैलोरी न हों और वह सही किस्म के न्यूरोन्स को टिगर कर दें। आज बड़ी संख्या में फूड वैज्ञानिक मल्टीबिलियन डॉलर फूड उद्योग की सेवा कर रहे हैं और कोशिश कर रहे हैं कि ऐसी नयी प्रोडक्ट सिंथेसाइ़ज की जाएं, जो हमें बेची जा सकें। इस सिलसिले में नये शब्द हैं- सुपरइनग्रिडिएंट्स (रोगों से लड़ने वाले प्राकृतिक तत्व जैसे लाइकोपिन, जो कि एक एंटीऑक्सीडेंट है और टोमैटो केचप में पाया जाता है), शेल्फ-लाइफ एक्सटेंशन (खाद्य-पदार्थों को लम्बे समय तक सड़ने से रोकना), न्यूटीजिनोमिक्स और न्यूटास्युटिकल्स, बायोसेंसर्स और बायोटेक्नोलॉजी एनहांसमेंट्स (जेनेटिक मोडिफिकेशन)। दरअसल, यह बात फूड की नहीं है बल्कि “फूड सिस्टम’ या उन औद्योगिक समाधानों की है, जिनको इस तरह से डिजाइन किया गया है कि निर्माताओं को अपने निवेश पर अधिकतम लाभ मिले और ग्राहकों को नये फायदे।

आज शोध का ज्यादा पैसा ऐसी तकनीक डिजाइन करने में लग रहा है, जिससे फूड को लम्बे समय तक “ता़जा’ रखा जा सके। अगर पानी के जहाज से सामान को एक जगह से दूसरी जगह शिफ्ट करते समय फूड को हफ्तों तक “ता़जा’ रखा जा सकता है, तो इसका अर्थ होगा निर्माताओं को अधिक मुनाफा। डबलरोटी को दो दिन बाद क्यों फेंका जाए, अगर नासा के लिए विकसित तकनीक से फूड को सालों नहीं तो महीनों तक ता़जा रखा जा सकता है! पैस्चुराइ़जेशन पर निर्भर क्यों हुआ जाए अगर गामा किरणों का इस्तेमाल करके पैथोजिन्स को मारा जा सकता है? इरैडियेशन के जरिए साल्मोनेला और ई-कोली जैसे बैक्टीरिया को नष्ट किया जा सकता है और सब्जियों को हफ्तों तक सड़ने से बचाया जा सकता है।

गौरतलब है कि वैज्ञानिकों ने फूड की शेल्फलाइफ बढ़ाने के और भी तरीके खोज निकाले हैं। इनमें प्रमुख हैं- हाईप्रेशर प्रोसेसिंग, जिसमें संतरे के जूस पर 10,550 किलो का दबाव प्रतिवर्ग सेंटीमीटर दिया जाता है, पल्स्ड इलेक्टिक फील्ड टेक्नोलॉजी, जिसमें ता़जे फूड को हाईवोल्टेज बिजली से फाड़ा जाता है। इन दोनों ही तकनीकों से बैक्टीरिया को ऐसे नष्ट कर दिया जाता है कि वह फिर से पनप नहीं सकता और साथ ही फूड का टेक्सचर या टेस्ट भी खराब नहीं होता।

आजकल मोडिफाइड ऐटमॉस्फेयरिक प्रोसेसिंग और एक्टिव पैकेजिंग भी की जा रही है जिनमें गोश्त या पालक के पत्तों को एंटी-माइाोबायल गैसे़ज में फ्लश किया जाता है और फिर क्लोरीन से धोकर ऐसी प्लास्टिक की थैली में पैक कर दिया जाता है जिस पर ब्यूटाइलेटेड हाइडॉक्सी-एनिसोल या टर्शरी-ब्यूटाइल हाइडोक्यूनोन रसायन लगे होते हैं। इन रसायनों में से कुछ पर यह भी संदेह है कि इनसे कैंसर हो जाता है। यह सही है कि नयी तकनीक से आप बिना धुले हुए सलाद को अतिरिक्त एक-दो महीना रोक सकते हैं, लेकिन क्या सुपर मार्केट वास्तव में यह चाहती हैं कि उनकी शेल्फ पर फूड तीन या चार साल तक “ता़जा’ रखा रहे?

इंसानी फितरत है कि ताजा फूड खाया जाए। इसलिए आधुनिक फूड उद्योग का सबसे बड़ा खतरा यह है कि जिस रफ्तार से उसमें बदलाव आ रहा है, वह मानव क्रमविकास की तुलना में बहुत ज्यादा तेज है। साथ ही हम संभावित समस्याओं, जिन्हें फिलहाल देख नहीं पा रहे हैं, से तालमेल बिठाने के लिए भी अपने आपको कोई समय नहीं दे रहे।

समस्याएं चाहे जैसी भी आयें, लेकिन यह तय है कि जल्द ही हम ऐसा फूड पैकेज देखेंगे, जो अपने आप यह संकेत देगा कि उसके अंदर जो चीज है वह खाने के योग्य रह गयी है या नहीं। स्मार्ट पैकेजिंग के दौर में यह जरूरी नहीं कि आपको सब ची़ज प्राकृतिक और ताजा ही मिले। लेकिन जो कुछ कृत्रिम और देर तक “ता़जा’ रखने के लिए प्रोसेस्ड चीज मिलेगी, उसी से ही काम चलाने के लिए हम लोग आदी हो जाएंगे।

– आरिज जफर

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