“आ रंग दे दुपट्टा मेरा..’ फिल्म “मुझे कुछ कहना है’ के इस गाने में करीना के हाथों में दुपट्टा नहीं है, लेकिन फिर भी वह दुपट्टे को रंगने के लिए कह रही हैं। यह सिर्फ एक फिल्म या एक गीत की बात नहीं है। बॉलीवुड में आज भी आए दिन ऐसे गाने आते रहते हैं, जिनमें दुपट्टे का जिा होता है, लेकिन हीरोइन के पास दुपट्टा नहीं होता। फिल्म “पॉपकॉर्न’ का “सिर से सरका जाए दुपट्टा बेइमान रे’, “बीवी नम्बर वन’ का “चुनरी-चुनरी…’ जैसे गानों में दुपट्टा शब्द तो है, लेकिन हीरोइन के पास दुपट्टा नदारद है।
पुरानी फिल्मों के गानों में दुपट्टे का जिा अगर है तो हीरोइन के पास दुपट्टा भी होता था। आज यही गाने जब रीमिक्स बनकर परदे पर उतरते हैं तो उनमें भी दुपट्टा गायब है। दुपट्टे का सरकना सिर्फ दुपट्टे से जुड़े फिल्मी गानों तक ही सीमित नहीं है बल्कि बाकी गानों में से भी दुपट्टे सरक आए हैं। फिल्म “बंटी और बबली’ में ऐश्र्वर्या राय पर फिल्माया गया “कजरारे कजरारे’ में ऐश्र्वर्या के लहंगे से चुन्नी गायब है।
कुछ साल पहले आई फिल्म “बंटी और बबली’ ने सलवार कमीज के साथ बरसों से चली आ रही दुपट्टे की परंपरा को बहुत पीछे छोड़ दिया है। जबकि अभी एक दशक पहले तक बॉलीवुड दुपट्टे और साड़ी में लिपटा हुआ था। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि बॉलीवुड सिर्फ भारतीय संस्कृति के रंग में ही रंगा हुआ था। शुरूआती दौर से ही बॉलीवुड ने भारतीय परिधानों के साथ-साथ पाश्र्चात्य परिधानों को भी अपनाया है। लेकिन अब तक भारतीय परिधानों को भारतीयता के साथ ही अपनाया गया था। लेकिन पिछले कुछ समय से बॉलीवुड ने फिल्मों में हॉलीवुड के स्टाइल की कॉपी कर उसे देसी अंदाज में पेश किया, वैसे ही अब बॉलीवुड भारतीय परिधानों को भी पाश्र्चात्यता के रंग देता हुआ नजर आ रहा है। ये तो बात हुई फिल्मों की। लेकिन आम जिंदगी से भी अब दुपट्टे का चलन खत्म हो गया है। चाहे आप इसे फिल्मों की नकल समझें या फैशन टेंड या फिर मजबूरी, लेकिन सच यही है कि आज महिलाओं के वार्डरोब से दुपट्टा दूर होता जा रहा है।
बसों, लोकल टेनों में चलने वाली लड़कियों ने पहनावे के इस बदलाव को बहुत पहले ही स्वीकार कर लिया था। परंपरागत भारतीय परिधान साड़ी का तो कामकाजी माहौल में लगभग अंत ही हो चुका है। शहरी कामकाजी महिलाओं की साड़ी न पहनने या दुपट्टा न लेकर घर से बाहर निकलने की आजादी का युगांतकारी महत्व है। यह प्रतीक है, सुविधा का। सुविधा पहनावे की यानी पहनावा पांवों में बंधता हो, जो तेजी से चलने में अड़चन पैदा करे, उसे पहनने की मजबूरी बन जाए, तो उसके स्थान पर विकल्प या उस परिधान में बदलाव कर उसे सुविधाजनक बना लेना चाहिए और इसे बदलते वक्त के एक और प्रतीक के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
भारतीय शहरी पुरुषों ने धोती की जगह पैंट को लगभग डेढ़ सदी पहले ही अपना लिया था। धोती से पैंट तक के सफर का एक मुख्य कारण इंडस्टी का आगमन भी है, क्योंकि फैक्टरी में धोती पहन कर काम करना संभव नहीं है। लेकिन महिलाओं के जीवन में परिधानों की बंदिशों में बदलाव अब आ रहा है। बस, मेटो या टेन पकड़ने की मजबूरी और भीड़ में सफर करने की जरूरत के बीच दुपट्टा किसी मुसीबत की तरह है। इस वजह से कुछ समय तक तो दुपट्टा बांधने का तरीका बदल कर काम चलाया गया। कई लड़कियां उसमें गांठ बांध लेती हैं या सेफ्टी पिन लगा लेती थीं। फिर इसकी जरूरत भी कम होती गई और सहूलियत वाले कपड़े भी आम हो गए।
पहनावे को अक्सर संस्कृति के साथ जोड़ा जाता है। लेकिन कहीं सुविधा और कहीं मजबूरी का उस पर प्रभाव पड़ता है। दौड़ने- भागने के लिए साड़ी के मुकाबले सलवार-कुर्ता ज्यादा सुविधाजनक है, यही वजह है कि आज यह देशभर में कामकाजी महिलाओं की पसंदीदा पोशाक में शामिल है। दक्षिण से लेकर पूर्वी भारत तक के परंपरागत परिवारों में महिलाएं अब सलवार-कुर्ता पहनने लगी हैं।
महिलाओं की जिंदगी में तरह-तरह से आ रही आजादी क्या भारतीय समाज को पूरी तरह से बदल देगी? लेकिन क्या ये आजादी परंपराओं और संस्कृति का ह्रास तो नहीं कर रही? इस बारे में कुछ लोगों का मानना है कि परिधानों में आया यह बदलाव सुविधा का प्रतीक तो बन गया है, लेकिन परिधानों में आई यह आजादी बेशर्मी का सबब न बन जाए। परिधानों में सुविधानुसार बदलाव सिर्फ उस हद तक ठीक है, जहां तक उसमें शालीनता बनी रहे।
– नीलोफर
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